शिवप्रकाश दास की 2 कवितायें

शिव प्रकाश दास
दीमकें

दीमकें जब पकड़ लेती हैं किसी चीज को,
धीरे–धीरे ही सही सब कुछ चाट जाती हैं,
वह नहीं करती फर्क किसी काठ में,
और न ही किसी धर्म ग्रंथ, या मैक्सिम गोर्की की माँ ’ में,
वह दिन–रात किर्र,किर्र,किर्र की आवाज़ में,
ध्वस्त कर देती हैं एक पूरा वर्तमान,
और अंत में भहरा कर गिरा देती हैं,
आदमी का सुनहरा भविष्य ।
मैं कलम उठाता हूँ ,
और लिखना चाहता हूँ,
इन असंख्य दीमकों के खिलाफ़,
जिनकी आड़ में बैठे,
सेंक रहे हो तुम अपनी गोटियाँ,
ये दीमकें कभी धर्म, कभी भाषा,
कभी जाति बनकर,
करती हैं हमला आदमी पर,
और कर लेती हैं गिरफ्त,
आदमी का विवेक,
जहाँ लगा है विचारों का कारखाना,
वे फहरा देती हैं तुम्हारी विजय पताका,
और इस तरह वे तुम्हारी जीत सुनिश्चित कर,
बढ जाती हैं किसी दूसरे की ओर ।
मैं परिचित हूँ दीमकों की इन कलाबाजियों से,
इसलिए ओ दीमकों के सरताज,
मैं लिखता हूँ तुम्हारे भी खिलाफ़,
और उतार देना चाहता हूँ,
रेशमी जामा तुम्हारे तन से,
दिखला देना चाहता हूँ,
उस रेशमी जामे के पीछे की सच्चाई ,
जहाँ असंख्य दीमकें अपनी बिलबिलाहट के साथ,
तुम्हारे भीतर ही मुस्कुरा रही हैं ।

मंथन

सुना है मंथन जरूरी है स्व’ का
मंथन के बाद ही बदलता है सबकुछ
बदलने लगती है मनुष्य की स्थिति
मैं झांकने लगता हूँ अपने भीतर
शुरू होता है दौर मंथन का
गहराइयों से फूट पड़ता है
विष का फौवारा
विष से मैं परिचित हूँ ,
क्योंकि मंद मुस्कान के साथ
बार–बार परोसा जाता रहा है
उसे मेरे ही सामने
और घोषित किया जाता रहा
मेरी इस मंथन को
अब तक के सारे मंथनों से श्रेष्ठ
इस तरह हरबार सबसे आखिरी में
मेरे हिस्से में सजता रहा
विष और विष से सजा धजा पात्र
मैंने आज भी जारी रखा है
अपने मंथनों का दौर
यानि एक और, एक और
विष प्याले का इंतजार
अमृत कलश से कोशों दूर
आत्म मंथन के द्वारा करना चाहता हूँ
विष से आगे की यात्रा
पर हर बार यह मंथन
एक नई चुप्पी में बदल
कर लेता है मुझे गिरफ्त
कई मोटी जंजीरों में कराहता मन
अमृत कलश की चाह लिए भटकता है हर ठौर
और वह है कि कैद किसी दलदल में
राजकुवरों की हाथों में
सजने को लालायित
बैठा रहता है अपनी पलकें बिछाए ।।

शुभजिता

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