भारत की मिट्टी में ऐसी कई वीरांगनाओं ने जन्म लिया, जिन्होंने मुगल शासकों से लेकर ब्रिटिश हुकुमत तक की नींद हराम कर दी थी। जिन्हें गुलामी में जीने के बजाय मौत मंजूर थी। आज हम भारत की उन रानियों के बारे में बता रहे हैं जिन्होंने पुर्तगालियों, मुगलों, ब्रिटिश शासन और फिर सामाजिक कुरीतियों का न सिर्फ डटकर सामना किया, बल्कि समय आने पर उन्हें खत्म करने का काम भी किया।
1. रानी अब्बक्का चौटा (1525–1570) –16वीं शताब्दी में रानी अब्बक्का चौटा उल्लाल (वर्तमान में कर्नाटक) की वो वीरांगना थीं, जिन्होंने पुर्तगालियों का काल कहा जाता था। तुलु नाडु की चौटा वंश की रानी अब्बक्का ने अपने छोटे से राज्य को एकजुट कर गुरिल्ला युद्ध की रणनीति बनाई थी। उस वक्त व्यापार पर पुर्तगालियों का कंट्रोल था। मनमाना कर वसूला जाता था जिसका रानी अब्बक्काटा चौटा ने जमकर विरोध किया। उन्होंने कई बार पुर्तगालियों के खिलाफ अपनी बहादुरी दिखाई। वीरता और स्वतंत्रता की भावना की वजह से उनका नाम भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानियों में गिना जाता है।
2. रानी ताराबाई भोंसले (1675-1761)-रानी ताराबाई भोंसले मराठा साम्राज्य की एक साहसी और रणनीतिक शासिका थीं। छत्रपति शिवाजी की पुत्रवधू रानी ताराबाई भोंसले को अक्सर ‘रैन्हा दोस मराठा’ या ‘मराठों की रानी’ के नाम से भी जाना जाता था। अपने पति राजाराम भोंसले की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने नाबालिग बेटे शिवाजी द्वितीय के नाम पर मराठा साम्राज्य का नेतृत्व किया। अपनी बुद्धिमानी और साहस से उन्होंने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासक को भी परेशान कर दिया था। ताराबाई को मराठा इतिहास में एक नायिका के रूप में सम्मान दिया जाता है। उन्होंने 1700 में परिस्थितियों के कारण मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाली थी, फिर भी अपने लोगों के लिए लड़ने में उन्होंने कभी ढिलाई नहीं बरती। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने मुगलों की मानसिकता को गलत साबित कर दिया। एक महिला कुछ भी कर सकती थी। वह अपने दुश्मनों से लगातार सीखती रहती थी और उसकी चतुर रणनीतियों ने मराठा सेना को दक्षिणी कर्नाटक पर अपना शासन स्थापित करने में मदद की।
3. रानी अहिल्याबाई होल्कर (1725-1795)- अहिल्याबाई होल्कर का जन्म अहमदनगर के जामखेड के चोंडी गांव में हुआ था। उनके पिता ने उन्हें घर पर ही पढ़ाया था, फिर भी वह हमेशा दूसरों के कल्याण की कामना करती थीं। एक राजघराने में विवाह और एक राजकुमार को जन्म देने के बावजूद, उन्होंने कुछ ही दशकों में अपने पति, ससुर और पुत्र को खो दिया था। इसलिए वे 11 दिसंबर 1767 को मराठा साम्राज्य की मालवा रियासत की रानी बनीं। अपने शासनकाल के दौरान, उन्होंने राजवंश की जमकर रक्षा की, आक्रमणों का खंडन किया और अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार किया। अहिल्याबाई ने मंदिरों, धर्मशालाओं, कुओं और सड़कों का निर्माण करवाया, विशेष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार। इसलिए उन्हें ‘देवी अहिल्या’ भी कहा गया।
4. रानी चेन्नम्मा (1778-1829)-कित्तूर (वर्तमान कर्नाटक) की वो वीर रानी थीं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। अपने पति और पुत्र के निधन के बाद, चेन्नम्मा ने वंश को आगे बढ़ाने के लिए एक उत्तराधिकारी गोद लेना था, या फिर उसे अंग्रेजों के हाथों खो देना था। उन्होंने पहला विकल्प चुना। 1824 में, उन्होंने शिवलिंगप्पा नाम के एक लड़के को गोद लिया, लेकिन इससे ईस्ट इंडिया कंपनी नाराज हो गई। ब्रिटिश हुकुमत को अस्वीकार करने पर रानी चेन्नम्मा और अंग्रेजों के बीच 1824 में युद्ध छिड़ गया। रानी चेन्नम्मा ने अपने राज्य कित्तूर का रियासत का दर्जा खोना नहीं चाहती थीं, इसलिए उन्होंने 1824 में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए। अंग्रेजों ने 21 अक्टूबर 1824 को 20,000 सैनिकों और 400 तोपों से लैस होकर हमला कर दिया। हालांकि वह एक बार तो उनसे निपटने में कामयाब रहीं, लेकिन दूसरे प्रयास में असफल रहीं। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर बैलहोंगल किले में आजीवन कारावास की सजा दी।
5. सेतु लक्ष्मी बाई (1895-1985)- सेतु लक्ष्मी बाई त्रावणकोर रियासत (वर्तमान केरल) की रानी थीं, जिन्होंने 1924 से 1931 तक नाबालिग महाराजा चिथिरा थिरुनाल के लिए रीजेंट के रूप में शासन किया। लोग उन्हें महिला अधिकारों की पैरवी करने वाली रानी मानते थे। वह महिलाओं के काम करने और आगे पढ़ाई करने को लेकर इतनी उत्साहित थीं कि उन्होंने एक प्रोत्साहन योजना बनाई थी। कॉलेज जाने वाली लड़कियां उनके महल में चाय के लिए उनके साथ शामिल हो सकती थीं। उनके शासन में खासतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुधार हुए। उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश का समर्थन किया, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने महिलाओं को आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया, उन्हें स्थानीय पदों से सरकारी पदों पर पदोन्नत किया, इस प्रकार यह सुनिश्चित किया कि सरकारी निर्णयों में उनकी समान भागीदारी हो। 1927 में, उन्होंने छात्राओं के लिए कानून की पढ़ाई खोल दी और त्रिवेंद्रम के महिला महाविद्यालय को इतिहास, प्राकृतिक विज्ञान, भाषा और गणित की कक्षाएं शुरू करने का आदेश भी दिया।