माओवादी जीवन को पीछे छोड़ नया जीवन जी रही है गीता

गीता माओवादी दस्ते के लिए काम कर चुकी हैं, लेकिन अब उन्होंने नई शुरुआत की है। यह कहानी है छत्तीसगढ़ के बस्तर के सुदूर जंगल के इलाक़ों में रहने वाली आदिवासी युवती मड़कम मुक्के यानी ‘गीता’ की है। गीता, सुकमा ज़िले के कोंटा प्रखंड के एक गांव के रहने वाली हैं जहां ना सड़क है, ना बिजली और ना ही दूसरी और कोई बुनियादी सुविधा। माओवादी रहीं गीता का कहना है कि इसी वजह से वो माओवादी छापामारों के ‘बाल संघम’ के साथ बचपन में ही जुड़ गई थीं। जब वो बड़ी हुईं तो वो माओवादियों के सांस्कृतिक दस्ते में शामिल हुईं और जंगलों में घूम घूम कर ‘क्रांतिकारी गीत’ सुनाने का काम करने लगीं। दो महीने पहले गीता ने चिंतलनार के पास पोलमपल्ली पुलिस कैम्प में जाकर आत्मसमर्पण कर दिया था. अब उन्हें सुकमा ज़िला पुलिस बल में नौकरी मिल गयी है।

“मेरा नाम मड़कम मुक्के यानी गीता है। मैं आदिवासी हूँ। मैं सुकमा ज़िले के कोंटा प्रखंड के एक दूर दराज़ के गाँव की रहने वाली हूँ। मेरा गाँव घने जंगलों के बीचोबीच है, जहाँ मैं पली और बड़ी हुई. बचपन में मैं माओवादियों के संगठन ‘बाल संघम’ से जुड़ गयी थी।नकाफी सालों तक मैं इसके साथ जुड़ी रही। मगर मुझे उनका सांस्कृतिक दस्ता बहुत आकर्षित करता था। सबके साथ मिलकर मुझे क्रांतिकारी गीत गाने का बहुत शौक़ था। चूंकि मैंने बाहर की दुनिया कभी नहीं देखी थी, इसलिए यह सांस्कृतिक दस्ता मुझे बहुत रोमांचित करता था।

एक दिन मैंने खुद ही जाकर माओवादी नेताओं से बात की और उनके सांस्कृतिक दस्ते में जुड़ने की इच्छा जताई। फिर मैंने गाना और नाचना सीखा। जल्द ही मैं इस दस्ते का हिस्सा बन गयी और जंगल के गावों में जाकर लोगों के बीच संगठन का पैग़ाम पहुंचाने लगी। मुझे इसमें काफी मज़ा आता था। लोगों के बीच क्रांतिकारी गीत गाना और नाचना मुझे बहुत अच्छा लगता था. जंगल में मनोरंजन का कोई साधन नहीं है क्योंकि ना यहां बिजली है, ना सड़क और ना ही फोन।

इसलिए जंगल के गावों में यह सांस्कृतिक दस्ता ही एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा। इस बीच मैंने हथियार चलाना भी सीख लिया। मगर मैं ज़्यादातर सांस्कृतिक दस्ते के साथ ही जुड़ी रही। मगर बाहर की दुनिया मैंने कभी देखी नहीं थी। मुझे लगा कि मुझे वो सब कुछ भी देखना चाहिए जो मैंने और मेरे गांव के लोगों ने कभी नहीं देखा।

चूँकि माओवादियों के साथ जुड़ी रही इसलिए पुलिस और सुरक्षा बलों के साथ हमेशा आँख मिचौली खेलती रहनी पड़ती थी। एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े तक भागते रहना पड़ता था. हमेशा सुरक्षा बलों से मुठभेड़ का डर बना रहता था। बड़ी खराब ज़िंदगी थी. सुबह कहीं होती थी। शाम कहीं. हमेशा ख़ौफ़ का साया मंडराया रहता था। एक दिन मैंने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया. ताड़मेटला जाते हुए आपने पोल्लमपल्ली में सुरक्षा बलों का कैंप देखा होगा। मैं वहां चली गयी और आत्मसमर्पण कर दिया। आत्मसमर्पण करने की वजह से स्थानीय प्रशासन ने मुझे पुनर्वास का आश्वासन दिया. उन्होंने मुझे ज़िला पुलिस बल में तैनात कर दिया. मैं पुलिस बल की गुप्तचर शाखा के लिए काम करती हूँ।

रहने के लिए मुझे एक सरकारी घर भी दिया गया है. जंगल के बाहर आकर अब मुझे अच्छा लग रहा है. लोगों से मिल रही हूँ। यह मेरी दूसरी ज़िंदगी है. अभी तो बस इसकी शुरुआत हुई है. पता नहीं कहाँ तक जाएगी।

(साभार – बीबीसी हिन्दी)

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