ग़ालिब की 221वीं जयंती के अवसर पर संगोष्ठी

कोलकाता : गालिब ने भारतीय परंपरा का विकास किया और अपने ऐतिहासिक दौर में दायरों और बंधनों को चुनौती दी। उनकी शायरी लोगों के मन को छूती है और इसने उर्दू के बाहर भी पाठकों को आकर्षित किया है। वे एक उदार और धर्मनिरपेक्ष कवि के रूप में सामने आते हैं। भारतीय भाषा परिषद में ‘कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयाँ और’ पर आयोजित संगोष्ठी में उपर्युक्त विचार व्यक्त किए गए। आलिया विश्‍वविद्यालय की प्रोफेसर दरख्शां जर्रीन ने कहा कि गालिब ने अपने जीवन में इतना अधिक दुख झेला कि वे ईश्‍वर से शिकायत हीं नहीं करते उन्हें झेड़ते भी हैं। उन्होंने बनारस की यात्रा के समय लिखा था कि इतनी बुराइयों के बावजूद यदि दुनिया नष्ट नहीं हो रही है तो इसकी एक वजह बनारस सा खूबसूरत नगर है। वे कलकत्ता भी आए थे और इसके बारे में कहा। ‘कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं, इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाय-हाय’। वे बहुत उदार शायर थे।
खिदिरपुर कॉलेज की प्रोफेसर इतु सिंह ने कहा कि गालिब को पढ़े बिना उत्तर भारत की बौद्धिक समृद्धि को समझा नहीं जा सकता। प्रो.इरशाद आलम ने कहा कि गालिब के पास एक विश्‍व दृष्टि थी।
अध्यक्षीय भाषण देते हुए डॉ.शंभुनाथ ने कहा कि गालिब एक ऐसे कवि थे कि यदि प्रेम और खुदा में किसी एक को चुनने का सवाल आता तो गालिब प्रेम को चुनते। उनके प्रेम का बड़ा ही व्यापक अर्थ था। उन्होंने अपनी शायरी में यह दिखाया है कि हिंदुस्तान अपने अभाव में भी कितनी जिंदादिल रह सकता है और आत्मसम्मान के लिए लड़ सकता है।
धन्यवाद देते हुए पीयूषकांत ने कहा कि पश्‍चिमी देश अपनी विरासत को बचा कर रखते हैं। हमें भी हिंदी-उर्दू की अपनी साझी विरासत को बचाना चाहिए। सभा में बड़े पैमाने पर साहित्यप्रेमी और युवा उपस्थित थे।

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