सीयू : “हिंदी और भारतीय साहित्य” विषय पर ‘एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी’

कोलकाता । ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और कोल इंडिया लिमिटेड के संयुक्त तत्वावधान में गत  9 मई को रवीन्द्र जयंती पर राजाबाजार साइंस कॉलेज के मेघनाद साहा सभागार में “हिंदी और भारतीय साहित्य” विषय पर ‘एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी । संगोष्ठी में देश के कई अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों से आमंत्रित विद्वानों ने विचार रखे ।
कार्यक्रम के उदघाटन सत्र में कोल इंडिया लिमिटेड के निदेशक विनय रंजन, प्रोफेसर सुरेंद्रनाथ सांध्य कॉलेज के सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. प्रेम शंकर त्रिपाठी , कोल इंडिया के कार्यकारी निदेशक अजय चौधरी, राजभाषा विभाग के सहायक निदेशक निर्मल कुमार दूबे, कोल इंडिया के उप प्रबंधक राजेश कुमार साव एवं उप प्रबंधक प्रियांशु प्रकाश, अनुवादक संदीप सोनी  सहित कई अतिथि उपस्थित थे । वक्ताओं ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साहित्यिक योगदानों पर चर्चा करते हुए फ़िजी, मॉरिशस, त्रिनिदाद आदि देशों में हिन्दी के उपयोग पर चर्चा की। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन विभागाध्यक्ष डॉ. रामप्रवेश रजक ने किया। इस सत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रो.कुमुद शर्मा, कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रो. राजश्री शुक्ला, उत्तर बंग विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर मनीषा झा, पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर अरुण होता मंच पर उपस्थित थे। वहीं कार्यक्रम की समन्वयक और कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर राजश्री शुक्ला ने कहा कि भारतीय साहित्य को हम एक भाषा का साहित्य नहीं मान सकते, भारत की समस्त भाषाओं का साहित्य ‘भारतीय साहित्य’ है। उन्होंने विदेशी साहित्य के विभिन्न रूपों की चर्चा करते हुए भारतीय साहित्य की सृजनात्मक कल्पनाओं को बचाए रखने के लिए हिंदी को बचाए रखने को प्रेरित किया। उन्होंने स्वीकारा कि भारतीय साहित्य की पहचान भाषिक नहीं बल्कि भारत के सभी भाषाओं के विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है।
प्रो. कुमुद शर्मा ने कहा कि “भारतीय भाषाएँ रुप दृष्टि से अलग हो सकती है लेकिन संरचनात्मक दृष्टि से वें एक ही हैं। इसके निर्माण में वेदों,उपनिषदों और पुराणों का महत्वपूर्ण योगदान हैं। साहित्य के मूल में किसान हैं, गांधी जी को हम स्वाधीनता का नायक मानते हैं लेकिन गांधी जी ने वास्तविक नायक किसानों को बताया हैं। उन्होंने कहा कि हमारे तमाम भारतीय रचनाकारों के बीच एक सांस्कृतिक साझेदारी है।” प्रो. मनीषा झा ने हिन्दी और वर्तमान विमर्शों के अखिल भारतीय स्वरूप पर चर्चा की और ‘प्रकृति विमर्श’ की बात सामने रखी। उन्होंने कहा कि “पर्यावरण भी साहित्य का हिस्सा है। पर्यावरण की मुक्ति सभी साहित्यों का एक प्रमुख अंश है। मनुष्य का जीवन पर्यावरण को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता इसलिए पर्यावरण के प्रति सच्ची संवेदना जरूरी है।” प्रोफेसर अरुण होता ने कहा कि “वर्तमान समय में जहाँ अलगाव की बात हो रही है वहाँ भारतीय साहित्य की बात अत्यंत जरूरी है। भारतीय साहित्य कहने का अधिकार उस साहित्य को है जिसमें भारत के जीवन मूल्यों एवं संस्कृति की चर्चा हो।” डॉ. नगेन्द्र की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि “भारतीय साहित्य हिमालय से भी ऊँचा और प्रशांत महासागर से भी गहरा है।”
कार्यक्रम के दूसरे सत्र का संचालन प्रो. राजश्री शुक्ला ने किया। इस सत्र में मंच पर वक्ता के रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. डॉ. सुधीर प्रताप सिंह और पूर्व प्रो. डॉ. आनन्द कुमार सिंह उपस्थित थें। डॉ.आनन्द कुमार सिंह ने कहा कि “विश्व साहित्य और भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रचनाओं में कोई अंतर नहीं, अन्तर समाधान प्रक्रिया में हैं। उन्होंने जॉन कीट्स और शैली की रचनाओं से लिए गए उद्धरणों द्वारा अपने पक्ष को स्थापित किया, साथ ही उन्होंने मायावाद, अवतारवाद आदि मतों पर भी चर्चा की। वहीं डॉ. सुधीर प्रताप सिंह ने भारत की सांस्कृतिक चेतना को भारतीय साहित्य का दर्पण मानते हुए कहा कि “भारतीय जीवन दर्शन में ही सम्पूर्ण चर-चराचर जगत की सम्पूर्णता है।”
कार्यक्रम के अंतिम सत्र (तृतीय सत्र) का संचालन विजय कुमार साव ने किया। इस सत्र में त्रिपुरा विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर डॉ. विनोद कुमार मिश्र , विद्यासागर विश्वविद्यालय के प्रो. डॉक्टर संजय जायसवाल और स्कॉटिश चर्च कॉलेज की प्राध्यापिका डॉ. गीता दूबे उपस्थित थीं।
डॉ. विनोद कुमार मिश्र ने असमिया स्त्री विमर्श, बहु पत्नी विवाह, भारतीय भाषा का महत्व एवं पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच के संघर्षों के आधार पर अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने हिन्दी को भारतीय साहित्य के बीच एक सेतु के रूप में स्वीकार किया। डॉ संजय जायसवाल ने भारतीय साहित्य को देखने की दृष्टि, भारतीय संस्कृति के मूल चरित्र, वर्तमान में भारतीय साहित्य के समक्ष वैश्विक चुनौतियों, भारतीय साहित्य की अवधारणा आदि विषयों पर विचार रखे तथा अनुवाद का महत्व समझाया । डॉ. गीता दूबे ने कहा कि निराला और टैगोर हिन्दी और बांग्ला साहित्य को पढ़ने के दो सूत्र हैं। उन्होंने विमर्शों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए आत्मकथाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को सबके समक्ष रखा। आत्मकथाओं को उन्होंने अपने समय का इतिहास कहा और माना कि इसमें कहानी स्व जीवन की ना होकर पूरे समाज की होती है, इस क्रम में उन्होंने ‘वे नायाब औरतें’, ‘एक अनपढ़ कहानी’ आदि आत्मकथाओं पर चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि भारतीय साहित्य के संपूर्ण विवेचन के लिए ऐसी कई संगोष्ठियों की आवश्यकता है। कार्यक्रम का आरम्भ सरस्वती वन्दना से हुआ । धन्यवाद ज्ञापन देते हुए डॉ. रामप्रवेश रजक ने कोल इंडिया लिमिटेड के राजेश कुमार साव, उप प्रबंधक (राजभाषा) और प्रियांशु प्रकाश (उप प्रबंधक) का आभार व्यक्त किया ।  कार्यक्रम के आयोजन में संकल्प हिन्दी साहित्य सभा और वाद- विवाद समिति से जुड़े द्वितीय और चतुर्थ सत्र के विद्यार्थियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कार्यक्रम में कलकत्ता विश्वविद्यालय के साथ-साथ राज्य के कई अन्य शैक्षणिक संस्थानों से भी विद्यार्थी जुड़े। साथ ही सोशल मीडिया पर कार्यक्रम का लाइव प्रसारण भी किया गया।

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