वाराणसी । अपने हर काव्य में वीरता का सजीव चित्रण करने वाले कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी अपने उपाख्यानों से लोगों में अप्रतिम जोश का संचार किया था…
स्वातंत्र्य पूर्व भारत के वीर रस के सुविख्यात कवि श्याम नारायण पाण्डेय एक अप्रतिम कवि होने के साथ-साथ अपनी परम ओजस्वी वाणी के द्वारा वीर रस के अन्यतम प्रस्तोता भी थे। यह उनकी वाणी का ही प्रभाव था कि उनको सुनने वाला श्रोता, किसी चलचित्र को देखता हुआ सा मंत्रमुग्ध हो जाया करता था- ‘वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी। था शोर मौत से बचो-बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी।।’
कवि श्यामनारायण पाण्डेय का जन्म सन् 1907 में डुमरांव गांव, मऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ था। गांव में ही अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने काशी आ कर संस्कृत का अध्ययन किया और यहीं रहते हुए काशी विद्यापीठ से हिंदी में साहित्याचार्य किया। सन् 1991 में 84 वर्ष की अवस्था में वह कैवल्यधामवासी हुए।
कवि श्यामनारायण पाण्डेय वस्तुत: हमारे धरोहर कवियों की पंक्ति में अग्रगण्य थे जिनकी वाणी में उनके संस्मरणों को उनकी मृत्यु के पूर्व आकाशवाणी गोरखपुर ने सहेजकर रख लिया था।
कहते हैं कि देश के लिए गौरव भावना बीजरूप में बालमन में यदि विकसित की जाती है तो उसका प्रभाव अचूक होता है। यही कारण था कि प्रचंड ओज के कवि श्यामनारायण पाण्डेय जितने लोकप्रिय देश के लिए मर मिटने की भावना से लबरेज आजादी के मस्तानों के बीच में रहे, आगे चलकर वह- उतने ही मान्य उन नन्हें-मुन्हें बच्चों के बीच भी हुए जो अपनी पाठ्य पुस्तकों की ‘चेतक और महाराणा प्रताप की सचित्र कविताओं’ का पाठ पूरे जोशो-उमंग के साथ छोटे-छोटे तिरंगों को हाथ में लिए गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के अवसरों पर विशेष रूप से किया करते रहे।
जन्मभूमि के स्वातंत्र्य के प्रति तड़प और उसके प्रति गौरव भावना का ज्वाजल्यमान दृष्टांत हल्दीघाटी के उपाख्यानों में हम एक-एक कर पाते हैं। राणा प्रताप के स्वाभिमान का ओजस्वीपूर्ण वर्णन असंख्य लोगों को उनका मुरीद बनाता है।
स्वतंत्रता आंदोलन का वह युग, एक ऐसा युग था जब देश में व्याप्त उथल-पुथल को हिंदी कविता का विषय बनाकर कवि अपने दोहरे दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। वह एक ओर तो राष्ट्र के प्रति अपने स्वधर्म का निर्वाह राष्ट्रीय भावनाओं को अपनी कविता का विषय बना कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर वह राष्ट्रव्यापी स्वातंत्र्य चेतना को युवाओं की धड़कनों में अपनी कलम के द्वारा अनवरत उद्दीप्त कर रहे थे। स्वाभाविक था कि उर्वर प्रज्ञा भूमि के चलते कवि ने तत्युगीन समस्याओं को अत्यधिक संवेदनशीलता के साथ ऐतिहासिक सांचे में रखकर समूचे युग के सामने एक दृष्टान्त रखा। इसके पीछे जो महनीय उद्देश्य कार्य कर रहा था वह यही था कि राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत कविताओं की कोख में स्वातंत्र्य चेतना का विकास होता रहे और यही कारण था उनके हर काव्य, महाकाव्य में क्रांति कामना चरितार्थ हुई है।
श्यामनारायण पाण्डेय ने बहुत सी उत्कृष्ट काव्यसर्जनाएं की हैं। ‘हल्दीघाटी’, ‘जौहर’, ‘तुमुल’, ‘रूपान्तर’, ‘आरती’, ‘जय हनुमान’, ‘परशुराम’, ‘जय पराजय’, ‘गोरा-वध’ इत्यादि जिनमें प्रमुख हैं। इनमें ‘हल्दीघाटी’ सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। राजस्थान की ऐतिहासिक रणभूमि ‘हल्दीघाटी’ जो अकबर और महाराणा के युद्ध की साक्षी थी। कहते हैं की हल्दीघाटी की मिट्टी जो कि हल्दी की तरह पीली थी, भीषण युद्ध के कारण रक्त निमज्जित होकर लाल हो गई। उसी को आधार बनाकर लिखा गया था ‘हल्दीघाटी’ महाकाव्य उस समय के सर्वश्रेष्ठ सम्मान ‘देव पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था। हल्दीघाटी महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हुए प्रसिद्ध ऐतिहासिक युद्ध पर निबद्ध किया गया है। प्रताप के ऐतिहासिक त्याग, आत्म बलिदान, शौर्य, स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता एवं जातीय गौरव के उद्बोधन ‘हल्दीघाटी’ में उस दौर की आजादी के दीवाने युवाओं के बीच खासी लोकप्रियता अर्जित की। सन् 1939 का समय, वह समय था जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अपनी परिपक्वता की ओर बढ़ रहा था। ऐसे समय में ‘हल्दीघाटी’ ने युवाओं के उबाल खाते रुधिर में एक पवित्र आहुति का कार्य किया और ‘हल्दीघाटी’ तत्कालीन विद्यार्थियों और स्वतंत्रता के पुजारियों का कंठमाल बन गई।
‘जौहर’ में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का हृदयहारी आख्यान है। रानी पद्मिनी जो न सिर्फ राजपूती स्वाभिमान का अपितु भारतीय नारी के उस गौरव का प्रतीक हैं जो अपने सतीत्व और सम्मान के स्वातंत्र्य की रक्षा हेतु हंसते-हंसते जौहर की ज्वाला में कूदकर प्राणों को स्वाहा कर देती है। आजादी के उसी युग में यह उस अप्रतिम भाव का द्योतक नहीं तो और क्या है, कि जब स्वातंत्रता की अभीप्सा लिए तरुण दीवाने किसी भी प्रकार के बलिदान यहां तक कि आत्माहुति देने में भी पीछे नहीं हटते थे।
श्यामनारायण पाण्डेय जी की कृतियों की विशेष बात यह है कि यदि वह पौराणिक आख्यान को भी अपने काव्य का आधार बनाते हैं तो भी उसकी विषयवस्तु के चुनाव में वह ओज तथा वीर रस को ही प्रमुखता देते हैं। वह वीरता जो उस युग की पहचान थी। वह ओजस्विता जो पराधीन भारत में भी स्वाभिमान और राष्ट्रगौरव के भाव से भारतीय जन-मन को ओत-प्रोत रखा करती थी। यहां ‘तुमुल’ और ‘परशुराम’ का उल्लेख समीचीन होगा। जब तुमुल के अंतर्गत दो पराक्रमी और विलक्षण व्यक्तित्व के धनी युवाओं लक्ष्मण और मेघनाद के बीच धर्मयुद्ध हुआ तो वस्तुत: उसके माध्यम से भारतीय संस्कृति और समाज के उद्दात्त प्रतिमानों को उपस्थापित किया गया है। वहीं परशुराम विष्णु के ही रौद्र अवतारस्वरूप धर्मसंस्थापनार्थ की भावभूमि पर रचे-बसे एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपनी प्रतिबद्धताओं के पालनार्थ कुछ भी कर सकते हैं-‘
आखों से बहती अग्निसरित्,
मुख तेज वर्तुलाकार हार।
जिह्वा पर बुदबुद शिवस्तोत्र,
रुधिरेच्छु भयंकर परशुधार।।’
स्वाभाविक था कि उस युग का जनमानस अपनी मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण के सहज भाव से आप्लावित होता। ‘जय हनुमान’ भी उसी प्रतिकार का प्रतीक है जो उस दौरान गांधी जी के ‘करो या मरो’ के आह्वान के बाद ‘करेंगे या मरेंगे’ के रूप में कोटि-कोटि आवाज बनकर उद्घोषित हो उठा-
‘ज्वलल्लाट पर प्रचण्ड तेज वर्तमान था,
प्रचण्ड मानभंगजन्य क्रोध वर्धमान था।
ज्वलंत पुच्छबाहु व्योम में उछालते हुए,
अराति पर असह्य अग्निदृष्टि डालते हुए।
उठे कि दिग्दिगंत में अवण्र्य ज्योति छा गई,
कपीश के शरीर में प्रभा स्वयं समा गई।।
पाण्डेयजी के काव्य में भाव और अलंकारों का हम अद्भुत सम्मिश्रण पाते हैं। वह अपने समय में कवि सम्मेलनों के शीर्षस्थ कवि थे। कहा जाता है कि उनके शौर्यपूर्ण काव्य को उन्हीं की ओजस्वी वाणी में सुनने की इच्छा लिए श्रोतागण मीलों-मील पैदल चलकर पहुंचा करते थे। कवि पाण्डेयजी के व्यक्तित्व का एक पक्ष यह भी था कि वे बहुत स्पष्टवक्ता थे। कविधर्म के विशेष गुणों से अलंकृत होने के बावजूद चारणधर्मिता या चाटुकारिता को उन्होंने स्वयं से कोसों दूर रखा था। आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए कवि श्यामनारायण पाण्डेय जैसे दुर्धर्ष कवि योद्धा का पावन स्मरण अनिवार्य प्रतीत होता है।
(साभार – दैनिक जागरण पर प्रकाशित डॉ. श्रुति मिश्रा का आलेख)