हमें साहित्य को परर्फॉमिंग आट्रर्स से जोड़ना होगा

प्रो. शुभ्रा उपाध्याय बेहद मृदु स्वभाव की हैं। एक -एक बात को बड़े इत्मीनान से समझाना इनकी खासियत है…अपनी कहानियों में भी वे अपने चरित्र के मन का एक – एक रेशा जैसे खोलती हैं। चार किताबें लिख चुकी हैं और लगातार लिख रही हैं। शिक्षा और साहित्य के विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रो. शुभ्रा उपाध्याय से बात हुई, पेश हैं प्रमुख अंश –

प्र. कहानी लिखना कैसे शुरू किया? 

मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के गाँव में बीता है। प्राथमिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में हुई। वह गाँव जो, बिजली, पानी जैसी तमाम मौलिक सुविधाओं से वंचित रहा। सूर्य की रोशनी के बाद लालटेन, डिबरी का प्रकाश और कुआँ, गड़ही, नहर आदि ही सामान्य जन – जीवन के जल स्त्रोत के आधार थे। कृषि ही उनकी जीविका का प्रमुख साधन थी। गाँव के गिने -चुने परिवार ही थे जिनके पास पक्के मकान थे और घर में शहर जाकर कमाने जैसे व्यक्ति और कमाई भी। सौभाग्य से हमारा परिवार उन कुछ गिने -चुने परिवारों में से था जिन्हें शिक्षा की विरासत मिली थी और आर्थिक आधार भी मजबूत था। तब, जब गाँव में लड़कियाँ छोटे भाई -बहनों को खिलाने, खाना पकाने और सिलाई कढ़ाई सीखकर विवाह हेतु सुयोग्य तैयार की जाती थीं, हमें पढ़ने का मौका मिला। बचपन के दिनों में ही जीवन के जमीनी जद्दोजहद को बड़े निकट से देखा और महसूस किया था। उसके बाद जब कोलकाता आना हुआ और पढ़ने के लिए आर्य कन्या महाविद्यालय में दाखिला हुआ तब भी आस – पास की जिन्दगियाँ, विशेषकर स्त्री जीवन और उसके संघर्ष, जो गाँव से लेकर शहर तक किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे, ने मेरे मन को सबसे अधिक छुआ। इस तरह कहानी लिखने की शुरुआत हुई। विधिवत कहानी लिखना मैंने स्नातक की पढ़ाई के दौरान शुरू किया था। कभी – कभी कोई एक कहानी लिखने में पूरी रात बीत जाती थी। कहानी का प्रकाशन सर्वप्रथम एम.ए. के दौरान हुआ। ‘समकालीन संचेतना’ पत्रिका में कई कहानियाँ प्रकाशित हुईं। कई प्रतियोगिताओं में कहानियाँ पुरस्कृत हुईं। एम.ए. के उपरान्त जब मेरा विवाह हुआ तो पहली बार मेरे स्वर्गीय श्‍वसुर जी ने विवाह के अवसर पर ही मेरी कुछ कहानियों का सँग्रह प्रकाशित कर सभी मेहमानों को उपहार दिया था। ‘स्मृतियों के कुहासे में’ सँग्रह का शीर्षक था और उसममें लगभग 8-10 कहानियाँ थीं।

प्र. समकालीन साहित्य को लेकर आपके क्या विचार हैं? 

यह अत्यन्त गम्भीर प्रश्‍न है। साहित्य वस्तुतः समाज से विलग नहीं होता। समुद्र – बादल और वर्षा की तरह इनके अपने अनन्य रिश्ते होते हैं। एक का अस्तित्व, रूप-स्वरूप, दूसरे के अस्तित्व और रूप – स्वरूप की अनिवार्य शर्त बन जाता है। इसी के बीच ‘कुछ बेहतर’ की चाह सदैव परिवर्तन की दिशा निर्धारित करती रहती है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘एक समय का’ ‘सबकुछ’ न ही सुन्दर होता है और न ही असुन्दर होता है। वैसे ही उसकी ‘शिवता’ के बारे में भी कहा जा सकता है लेकिन हाँ, यह भी उतना ही सत्य है कि सतत एक प्रचेष्टा हमेशा सत्य, शिव और सुन्दर की ओर प्रवाहमान होती है। मैंने कभी भी समय को ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ नहीं समझा है। वैसे ही साहित्य को भी पूरा का पूरा अपनी जमात में ‘त्याज्य’ या ‘वरेण्य’ नहीं माना है। सबकी अपनी मौजदूगी की वजहें हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हमारा, आज का समकालीन साहित्य काफी बड़े पैमाने पर, बड़े फलक को आत्मसात किये हुए है।

प्र. क्या साहित्यिक कृतियों की सम्यक आलोचना नहीं हो पा रही है या नये लेखकों की उपेक्षा की जा रही है? 

इस प्रश्‍न में दो प्रश्‍न हैं। जहाँ तक साहित्यिक कृतियों की सम्यक आलोचना का प्रश्‍न है तो मैं समझती हूँ कि पूरी तरह से इसका उत्तर हाँ या न में नहीं हो सकता है। ऐसा नहीं है कि आज साहित्यिक कृतियों की आलोचना नहीं हो रही है लेकिन यह भी ठीक है कि साहित्यिक कृतियाँ जिस गम्भीर और सम्यक आलोचना दृष्टि की अपेक्षा रखती हैं, कभी – कभी उससे वंचित रह जाती हैं। वैसे भी हमारे समाज में बीमार और डॉक्टर के अनुपात की तरह रचनाकार और आलोचक का अनुपात भी विचारणीय है। अब मैं आपके प्रश्‍न के दूसरे हिस्से पर आती हूँ। इसका उत्तर भी बहुत सीधे शब्दों में नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह प्रश्‍न सिर्फ आज का प्रश्‍न नहीं है। यह एक शाश्‍वत अथवा कहें कि हर समय का प्रश्‍न है। साहित्य जगत की अपनी खूबियाँ, खामियाँ और उनसे निर्मित परिपाटियाँ हैं। मेरा मानना है कि किसी सवाल का उत्पन्न होना ही अपने आप में उसके जवाब की हल्की प्रतिध्वनि हुआ करता है। बावजूद इसके मीडिया और जनसंचार के तमाम सुलभ माध्यमों ने हर व्यक्ति को यह मौका प्रदान किया है कि वह स्वयं को उद्घाटित कर सके। स्वीकार और अस्वीकार किए जाने की दंगल तो नये लेखकों के साथ जुड़ी ही रहती है, फिर भी आज का समय इस मामले में पहले से कहीं ज्यादा उदार दृष्टिगोचर होता है। यह एक शुभ लक्षण है।

प्र. आपकी कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं? 

‘स्मृतियों के कुहासे में’ (जो अप्राप्य है) को छोड़ दें तो मेरी अभी तक कुल चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो कहानी सँग्रह ‘अंतराल’ और ‘कतरा -कतरा जिन्दगी’ हैं। एक आलोचनात्मक पुस्तक ‘अज्ञेय की कहानियों का पुनर्पाठ’ और एक सम्पादित पुस्तक ‘अपने – अपने अज्ञेय’ हैं। मैंने रंजन बंद्योपाध्याय के दो बांग्ला उपन्यास ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ’ और ‘कादम्बरी देवीर सुसाइड नोट’ का हिन्दी में अनुवाद भी किया है जो राजकमल से प्रकाशनाधीन है। उम्मीद है कि इस वर्ष के अन्त तक यह पुस्तक भी पाठकों के हाथ में होंगी।

प्र. आज के महिला लेखन के बारे में क्या कहना चाहेंगी?  

आज का महिला लेखन अत्यन्त समृद्ध है। मुझे लगता है कि आज की महिलाओं ने स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य की सभी विधाओं को चुना और माध्यम बनाया है। कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता, रिपोर्ताज, डायरी, संस्मरण, यहाँ तक कि आलोचना के क्षेत्र में भी बड़ी समर्थता के साथ स्वयं को स्थापित किया है। समाज की तमाम बुलन्दियों की तरह साहित्यिक बुलन्दियों पर भी अपने परचम लहराये हैं। यह अत्यन्त सन्तोषजनक है कि आज की तारीख का कोई भी मुकम्मलसाहित्यिक अनुष्ठान बिना महिला की भागीदारी के पूरा नहीं होता। आप देखें कि आज की महिलाओं का लेखन आपको चमत्कृत करेगा। महिलाओं ने अपने लेखन को अद्भुत विस्तार दिया है। उनकी चेतना, संवेदनशीलता, अभिव्यक्ति की दक्षता, सब कुछ उन्हें श्रेष्ठ रचनाकार के रूप मे प्रतिष्ठित कर रहा है। 150 -200 पृष्ठों के उपन्यास, 5 -6 पन्नों की कहानियाँ, डायरी के आधे-अधूरे पृष्ठ, चेतना, संवेदना और भावना की त्रिवेणी के बहुतेरे अनछुए आयाम खोल देते हैं।

प्र. आज का स्त्री विमर्श किस तरह का विमर्श है और घरेलू स्त्रियों से जुड़े प्रश्‍नों पर आज का साहित्य कहाँ तक बात कर पाया है? 
कई बार जैसे कोई आन्दोलन या मुहिम भटकाव का शिकार हो जाते हैं, वैसे ही विमर्श भी अपनी तमाम बेहद जरूर बातों के बाद भी हम भटक जाते हैं। चिन्तन के स्तर पर बहुत गम्भीर विमर्श कई बार उथली और सतही बातों में फंसकर अपनी रूपरेखा अथवा प्रारूप से भिन्न शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। मुझे लगता है कि स्त्री विमर्श भी इसका अपवाद नहीं है। स्त्रियों की पीड़ा, उनकी संवेदना, उनके संघर्ष, उनकी अस्मिता, उनकी चेतना, उनकी स्वतन्त्रता की भाव भूमि से जिस विमर्श को सम्पृक्त होना चाहिए, वही अक्सर उनके बाह्य रूपाकार की ज्यामिति सुलझाने में व्यस्त दिखता है। ‘स्त्री आत्मा’ की मुक्ति, ‘देह की मुक्ति’ का विमर्श बन जाती है। ‘स्त्री मन का सुख’ ‘स्त्री मन की स्वाधीनता’ ‘दैहिक सुख’ ‘दैहिक स्वाधीनता’ की राह पकड़ लेता है। रिश्तों के प्रति नकार, परिवार की उपेक्षा, सम्बन्धों में धैर्यहीनता, सब प्रकार से ‘स्व’ की सन्तुष्टि का उतावलापन न जाने इस विमर्श को किस राह पर ले जा रहा है। तसल्ली इस बात की है कि ऐसी परिस्थितियों में भी अभी भी कई स्त्री विमर्श पर काम करने वाली लेखिकाएँ स्त्री विमर्श को उसके सच्चे अर्थों में ही खंगाल रही हैं। ऐसे प्रयास निश्‍चय ही सतह की काई को काट सकने में समर्थ होंगे और स्त्री विमर्श भटकावों से होता हुआ ही सही, किन्तु गन्तव्य तक अवश्य पहुँचेगा।
जहाँ तक घरेलू स्त्रियों से जुड़े प्रश्‍नों पर साहित्य के बात करने का सवाल है तो एक बात पहले स्पष्ट करना चाहूँगी कि स्त्री मात्र के साथ घर एक अद्भुत ढंग से जुड़ा होता है। चाहे कामकाजी स्त्रियाँ हों अर्थात जो घर के बाहर दफ्तर, स्कूल, कॉलेज में कार्यरत हैं, हों अथवा घरेलू स्त्रियाँ, जिन्हें आज हम ‘होम मेकर’ कहते हैं, वे हों। ऐसे कई सन्दर्भ होते हैं जहाँ इनकी समस्यायें अथवा संघर्ष एक जैसे होते हैं जिसमें मुझे लगता है कि सबसे बड़ी बाात इनके सम्मान और स्वाभिमान की होती है। ऐसा नहीं है कि साहित्य इनसे सरोकार रखने वाले प्रश्‍नों पर बात नहीं करता लेकिन हाँ, यह अवश्य है कि ज्यादातर ये प्रश्‍न सहानुभूति, दया, अथवा देयता के आलोकपुंज में रखे जाते रहे हैं। वहाँ भी स्त्री किसी न किसी दाता के प्रति नतमस्तक ही रही है।
आज का समय इस दृष्टि से काफी बदल गया है। स्त्रियाँ अपने सन्दर्भों के साथ स्वयं उपस्थित हो रही हैं। अपने संघर्ष, अपनी समस्यायें, स्वयं उद्घाटित भी कर रही हैं और सुलझा भी रही हैं। स्त्रियाँ स्वयं साहित्य की बाँह धर अपने घर का कोना -कोना दिखाने को तत्पर हो रही हैं।

प्र.बाजारवाद को आप किस रूप में देखती हैं? 

मुझे लगता है कि आज हम जहाँ खड़े हैं, वहाँ से बाजारवाद को नकारना अथवा उसकी उपेक्षा करना एकदम असम्भव है। यह उस दुधारी तलवार की तरह है जिसे बरतने का शऊर सीखना अत्यन्त आवश्यक है। बाजारवाद अब बाजार से उठकर हमारे साथ हमारे घरों में स्थायी रूप से बस रहा है। ऐसी स्थिति में हमें एकमात्र साहित्य ही इसके साथ इसके बीच सुरक्षित मनुष्य बने रहने में मदद कर सकता है।

प्र. युवा पीढ़ी में क्या साहित्य के प्रति उदासीनता है? अगर हाँ तो इसका जिम्मेदार कौन है और स्थिति से कैसे निपटा जा सकता है? 

यह प्रश्‍न मुझे बिल्व पत्र की तरह दिख रहा है। तीन प्रश्‍न। युवा पीढ़ी साहित्य के प्रति एकदम उदासीन है, यह नहीं कहा जा सकता। हाँ, थोड़ी लापरवाही युवा पीढ़ी में साहित्य के प्रति जरूर देखी जा सकती है लेकिन अभी भी आप देखिए तो साहित्य विपुल पैमाने पर रचा भी जा रहा है और पढ़ा भी जा रहा है। मुझे तो युवा पीढ़ी इस मामले में भी बड़ी सकारात्मक और रचनात्मक दिखती है। थोड़ी बात उसकी लापरवाही पर करें जिसे आप उदासीनता कह रही हैं, वस्तुतः आज की जीवनचर्या (लाइफस्टाइल) ही एकदम बदल गयी है। मीडिया और जन संचार ने जीवन में नयी क्रान्ति लाकर इसे आमूलचूल परिवर्तित कर दिया है। आज हर व्यक्ति में, मैं विशेषकर युवा बच्चों की बात कर रही हूँ, उसके पास स्मार्टफोन है जिसमें दुनिया भर की जानकारियाँ भरी हुई हैं। ई लाइब्रेरी सुलभ है। आज बच्चे पुस्तकें खरीदने और पढ़ने की अपेक्षा मोबाइल में ही पत्रिकाएँ व पुस्तकें डाउनलो़ड कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं। हाँ, यह सत्य है कि यदि हम साहित्य के पठन – पाठन को प्रकाशित पुस्तकों के फॉर्म में देखना चाहते हैं। युवा पीढ़ी को पुस्तकालयों के रीडिंग रूम में में घंटों बैठा हुआ देखना चाहते हैं तो यह अवश्य कम हुआ है लेकिन समाप्त एकदम नहीं। इसके पीछे भी हमारी आज की जीवनचर्या ही काम कर रही है। जीवन की गतिशीलता तीव्र हो गयी है। व्यस्तताएं बढ़ गयी हैं। इसमें संचार क्रान्ति ने सब कुछ इन्सटेंट मुहैया करवा रखा है और तो और घर -परिवार के बुजुर्ग अभिभावक भी पुस्तकों का साथ छोड़ स्मार्टफोन और लैपटॉप की गिरफ्त में आते जा रहे हैं।  पुस्तकों के साथ रहने, पुस्तकों को पढ़ने का ‘संस्कार’ भी विलीन होता जा रहा है जिसे हमें युवा पीढ़ी तक पहुँचाना था। अब मैं कह सकती हूँ कि युवा पीढ़ी में यदि कहीं थोड़ी -बहुत साहित्य के प्रति उदासीनता है भी तो वह हमारी परिस्थितियों के साथ -साथ हमारी भी देन है।
जहाँ तक निपटने का प्रश्‍न है तो सबसे पहले हमें यह समझना और समझाना होगा कि तमाम तकनीकी हमारे जीवन के साधन हैं, साध्य नहीं। ये हमारे जीवन को सरल बनाने के लिए हैं, खोखला करने के लिए नहीं। माध्यम को माध्यम की तरह इस्तेमाल किया जाए, उसे उद्देश्य न बनने दिया जाए्। द्वितीयतः हम अभिभावक – शिक्षक जनों की जिम्मेदारी है कि बच्चों को साहित्य से परिचित करवायें। उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करें। सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर उपहारों के साथ पुस्तकों को भी उपहार में देने – लेने के प्रति उत्साहित करें, साहित्य चर्चा करें।

प्र.  साहित्य को आम जनता के बीच में कैसे स्थापित किया जाए? 

आम जनता के बीच पहुँचने वाले साहित्य की अप्रतिम मिसाल है रामचरित मानस, सूर और मीरा के पद, कबीर के दोहे, प्रेमचन्द की कहानियाँ। मुझे लगता है कि थोड़ी सी सतर्कता और जागरुकता आवश्यक है इसके लिए। आप यदि देखें तो ‘रामचरित मानस’ के जन – जन तक पहुँचने में रामलीलाओं का अद्भुत योगदान है। अखण्ड पाठ का आयोजन, गायन, गायन प्रतियोगितायें इत्यादि इसे आम जन के बीच स्थापित करती हैं और सब कुछ अत्यन्त सहज रूप में्। हमें साहित्य को परर्फॉमिंग आट्र्स से जोड़ना होगा, साहित्यिक कृतियों का मंचन, पाठ, गायन, जैसे आयोजन इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं्। आज के समय में फिल्म एक अत्यन्त सशक्त माध्यम है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म निर्माण को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। आप महत्वपूर्ण पाश्‍चात्य फिल्मों पर गौर करें, प्रायः फिल्में ऐसी कृतियों पर आधारित होती है जो जनसामान्य के मनोरंजन के साथ उनके रुचि परिष्करण और संस्करण का भी काम करती हैं। सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य उत्सवों एवं अनुष्ठानों में साहित्यिक कार्यक्रमों को शामिल किया जाये।

प्र. हमारे पाठकों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगी? 

कहते हैं कि साहित्य हमें जीने का सलीका सिखाता है। वस्तुतः वह हमारे मन को उदार बनाता है। हमारे मन के कलुष को धोकर उसे तमाम जानी – अनजानी ग्रन्थियों से मुक्त करता है। हमें एक दूसरे से जोड़ता है। एक दूसरे तक पहुँचने का रास्ता निर्मित करता है। एक दूसरे की व्यथा, पीड़ा, दुःख की आँच को महसूस करने का सामर्थ्य प्रदान करता है। इस प्रकार अन्ततः हमें एक बेहतर मनुष्य बनाता है। अनुरोध करना चाहूँगी कि कृपया साहित्य से स्वयं जुड़ें और दूसरों को भी जोड़ें।

शुभजिता

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