ये त्योहारों का मौसम है और मौसम का कहर ऐसा है कि त्योहार फीके लगने लगे हैं। बेतरतीब विकास ने हमें दिया क्या है, क्या हमने एक बार भी इस बारे में सोचा है। बेमौसम की बारिश बाढ़ बन गयी है…घर डूब रहे हैं..सड़कें नदियों में तब्दील हो चुकी हैं…कई जानें जा चुकी हैं मगर इसका जिम्मेदार कौन है..यह भी हमें सोचना चाहिए..प्लास्टिक पैकेट फेंकते समय शायद हमारे जेहन में न आया हो..अवैध निर्माण करते समय शायद आपने इसके दुष्परिणामों के बारे में न सोचा हो मगर यह जो हो रहा है, वह हमारे और आपकी गलतियों का ही नतीजा है। जो शहर गंगा के किनारे स्थित हैं, वहाँ पर ऊँची – ऊँची इमारतें, शॉपिंग मॉल खड़े हो रहे हैं और आप इसे विकास कहते हैं मगर यह विकास किस कीमत पर हो रहा है..ये अब समझ में आ जाना चाहिए। यह सही है कि मशीनें हमारे काम को आसान बना रही हैं मगर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि मनुष्य की जरूरत ही नहीं बल्कि उसके प्रति जो आत्मीयता और विश्वास मशीनों पर अति निर्भरता ने छीन लिया है…उनका वह काम छीन लिया है…जिसे पुश्तों से वह करते चले आ रहे थे…अब समय आ गया है कि हम अपनी गलतियों को सुधार लें..कोई भी चीज अच्छी या बुरी नहीं होती मगर जब आप उस पर इतने निर्भर हो जाएँ कि अपना विवेक और अपनी संवेदना सब कुछ खोने लगें, जब आपकी आदमीयत पर वह चीज भारी पड़ने लगे तो हमें समझ आ जाना चाहिए कि अब अपनी जड़ों की तरफ लौटने का समय आ गया है। आप प्लास्टिक की जगह फिर से केले और साल के पत्तों को दीजिए…प्लास्टिक की थैलियों की जगह जूट, कपड़ा और कागज इस्तेमाल करें। मिट्टी की कटलरी यानी टेराकोटा कटलरी को अपनाएँ और अनुसन्धान ऐसा हो कि कागज या कपड़े को वाटरप्रूफ बनाया जाए। जल संचय की तकनीक हर घर में अपनायी जाए और बारिश के पानी को सहेजने के तरीके अपनाए जाएँ। ऐसे छोटे -छोटे प्रयास हमें और हमारे शहरों को बचा सकते हैं। तो इस बार विजयादशमी पर प्लास्टिक और मशीनों पर अत्याधिक निर्भरता का ही वध करें और विजयादशमी बनाएँ…विकास का सन्तुलित मॉडल हमारे देश को आलोकित करे। इसी कामना के साथ आपकी अपराजिता एक नयी सज-धज, नये नाम के साथ आ रही है…स्नेह बनाए रखिएगा