कहते हैं कि जब बात दूर तक ले जानी हो तो लहजा बदलना पड़ता है और सुनने वाले की शैली अपनानी पड़ती है। बात जब उस पीढ़ी तक ले जानी हो जिसने अपनी सीमा को सर्वस्व मान लिया है तो मेहनत और बढ़ जाती है मगर कायदे से कही गयी बात सोचने पर मजबूर जरूर करती है। आशा पांडेय लिखती हैं, साहित्यकार हैं और इन दिनों लोकभाषा और शैली की मदद से यही कठिन काम कर रही हैं। काकी के रूप में इनकी बातें सोशल मीडिया पर खूब पसन्द की जा रही हैं तो काकी आशा पांडेय से शुभजिता ओजस्विनी ने भी खूब बात की, आप भी सुनिए हमारी बातें –
प्र. स्त्री सशक्तीकरण की परिभाषा आपकी नजर में क्या है?
स्त्री सशक्तीकरण की कोई तय परिभाषा हो ही नहीं सकती…ये देश आस्था और विश्वास पे ही जीना जानता है जहां मान्यता है”जैसे देवता वैसा मंत्र”…अपनी बात को सही ढंग से रखना और बिना किसी आंदोलन के सहज भाव से बिना कहे सामने वाले के द्वारा इसे स्वीकारना ही मूल है।
प्र. लोक साहित्य को आज किस तरह से जनता के बीच ले जाया जा सकता है?
हम जिन्होंने 80/90 के दशक में बचपन गुजारा है,हमारे पास अब भी वो थाती बची हुई है कुछ,और सहज उपलब्ध है सोशल नेटवर्किंग, इस माध्यम का सदुपयोग हम कर सकते हैं अपने पुरखों की थाती को संजोने में ,ऐसा मुझे लगता है।
प्र. काकी जी की परिकल्पना आपने कैसे की?
संयुक्त परिवार से हूँ और अक्सर ऐसे परिवार में एक काकी होती हैं जिन्हें सब पता होता है,वो हर बात को बेबाकी से और तर्कसंगत ढंग से समझाना जानती हैं,मेरे पापा की काकी कहने को हम दादी पर सब काकी कहते थे उनके पास भंडार था,हर तरह की कहानी,कहावत,तर्क के साथ सुनाती थी उन कहानियों में सार होता उनमें वेद पुराण भी होते और महिलाओं से जुड़े प्रश्न और उनके उत्तर भी।जो उम्र के इस दौर में जब विश्लेषण करती हूँ तो वो माइक पर की गई चर्चा से ज़ियादा मुफ़ीद और व्यवहारिक लगते हैं मुझे।
प्र. गृहणियों तक अपनी बात किस तरह से पहुँचायी जाए कि वह उससे जुड़ सकें और आप यह किस तरह से करती हैं?
गृहिणी को गृहिणी बनाने से पहले उसके सोच पर ग्रहण लगाना ये शुरू हो जाता है बचपन से जब उन्हें बस ये समझाया जाता है कि तर्क कुछ नहीं होता उसे कुतर्क कहते हैं और स्त्री को बस चार दिवारी में वो करना चाहिए जो होता आया है,मानसिक गुलाम होकर रह गयी हैं औरतें सोचना ही नहीं चाहती शायद सोचने से कष्ट होगा ये भय हो क्योंकि अब पीढ़ियों से यही कम्फर्ट ज़ोन हो गया है,बेटियों को सिखाओ की ससुराल में कैसे रहना है और बेटों को कि रसगुल्ला जैसी दुल्हन लाना है यानी उसे बचपन से समझाना कि बहन के अलावा जो दिखे, एव खाद्य वस्तु है ये कहने वाली भी स्त्री और भोगने वाली भी स्त्री,ये उदहारण आपसब को अटपटा लगे पर जब रसोई को दस,बारह की उम्र से ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बना दिया जाता है तब उम्र के तीसरे या चौथे दशक में वही उदाहण समझाये और समझे भी जाते हैं।
बड़ी बड़ी किताबी बातों और भाषण से कुछ नहीं बदलाव आ सकता जबतक उसे ज़मीनी हक़ीकत का जामा न पहनाया जा सके,एक लड़कीं जिसने बचपन से माँ/दादी को व्रत उपवास में ही देखा हो उसे एक झटके से ये नहीं कहा जा सकता कि ये मानसिक गुलामी है,इसे न करो तो तुम बराबरी की हक़दार होगी।
उसे ये बताना ज़ियादा सहज कि मंगलवार को यदि पति उपवास करे तो आयु बढ़ती है संतान की।वो सवाल करेगी “संतान!बेटे की ना”तब कहना कि क्यों कल को बेटी को असमय कुछ हो गया तो दुख न होगा,सन्तान यानी दोनों।
पुरुष जब सुनगे व्रत रखना है वो शुगर/bp जाने क्या क्या बहाने गढंगे तब उस सखी को बस मुस्कुराते हुए ये कहना “अच्छा तुम्हारी तो उम्र सिर्फ़ उनकी आँखों मे नहीं दिमाग़ में भी ठहरी हुई है न ये सब तो न होगा तुम्हें”…एक चिंगारी सोच की एक बीज विचार के रोप दीजिये बस,आगे का काम वो खुद करेंगी अपने तरीके से बिना नारा लगाए बिना बैनर लिए। छीनना या मांगना नहीं है होते कौन हैं वो हमें देने वाले,बस जो हमारा है उसपर टीके रहना है।
प्र. अपनी जिम्मेदारियों के बीच आप सृजनात्मक कैसे रह पाती हैं?
उस कहावत से चिढ़ है जहाँ ज़िन्दगी यूँही तमाम होने के मलाल में खत्म हो जाती है इसलिए कुछ नया कुछ बेहतर करने की कोशिश करती रहती हूँ।
प्र. क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हर इंसान में कोई न कोई नैसर्गिक गुण जरूर होता है उसे निखारने और आगे आने का कार्य खुद करना होता है।
ये सही है स्त्री परिवार में बुनियाद की तरह होती है,इसका अर्थ ये नहीं कि खुद को मनो मिट्टी में दबा लिया जाए,यदि धुरी है नारी तब उसे खुश रहना और जरूरी वो मुस्कुराएगी तभी परिवार खिलखिलायेगा । ख़ुश रहना शुरू कीजिए साथ सब ख़ुश रहेंगे।
आने वाली पीढ़ी की सोच बदलने के लिए लड़कियों के साथ साथ लड़कों को भी कई सारी चीज़ें सिखानी होंगी। आज तक और आगे भी वो बातें सिखाने के लिए थैंक यू मम्मी। ❤️
सटीक/प्रेरणात्मक
पुरुष प्रधान मानसिकता के अधीन स्त्रियों की दशा विषयक एक अभियान पुरुषों को शिक्षित और जागरूक करने की…अत्यावश्यक
सार्थक सटीक बात कही आशा जी ने पूरी तरह सहमत उनसे।
यह जो काकी है न बड़ी ग़ज़ब की है ।इसकी हाज़िर जवाबी का तो जवाब ही नही है ।ईश्वर इनके सब सपने पूरे करें। सृजनात्मक रहे। हमेशा