महानगर में इन दिनों एक किशोर की मौत का रहस्य परेशान कर रहा है। शहर में मौतें होती रहती हैं और पुलिस हर मामले को सुलझा लेती है मगर इस बार आवेश दासगुप्ता नामक किशोर की मौत का रहस्य सुलझाना उसके लिए आसान नहीं है। पुलिस की नजर में यह एक हादसा है तो आवेश का परिवार इसे हत्या का मामला मान रहा है। आवेश के पिता 6 माह पहले दुनिया से चले गए थे और अब आवेश की माँ ने उसे खो दिया है तो यह तकलीफ समझी जा सकती है। बहरहाल मौत अपनी जगह है मगर हमारे बच्चों, उनकी जिंदगी और दोस्तों के साथ बदलती जीवनशैली पर बहस एक बार फिर से आरम्भ हो गयी है। आज से एक दशक पहले शायद बहस और तेज होती और एक भूचाल सा आ जाता मगर आज के किशोर और किशोर से होते युवा जो जिन्दगी बिता रहे हैं, वहाँ अब यह एक सामान्य सी घटना बनकर हो गयी है।
शराब, सिगरेट और आश्चर्यजनक रूप से मँहगी जीवनशैली देखकर अब घरों में हंगामा नहीं मचता क्योंकि अब ये सब हमारे लिए स्टेटस सिंबल है और यह नशा गलियों – कूचों तक फैलता जा रहा है। याद आता है कि पॉकेटमनी से अधिक खर्च होने पर बचपन में हमसे कई सवाल पूछे जाते थे और सबसे बड़ा सवाल होता था कि इतना पैसा आया कहाँ से? घरों में अब ये सवाल अब कम पूछे जाते हैं जो कि एक जरूरी सवाल है क्योंकि मध्यम वर्गीय से लेकर उच्च वर्ग के परिवारों के अभिभावकों के पास वक्त नहीं है कि वे देखें कि उनके बच्चे कैसी जिन्दगी बिता रहे हैं, उनके दोस्त और परिवेश कैसे हैं औऱ उनकी जीवनशैली कैसी है? एक समय था जब शराब को गंदगी और विनाश की जड़ माना जाता था मगर आज यह परिवार की आदत है। पार्टियों से लेकर शादियों और उत्सवों में शराब और ड्रग्स न हो तो बात नहीं बनती। सोशल मीडिया पर यह असर साफ देखा जा सकता है जब शराब की पैरवी करने वाले शराब पर प्रतिबंध लगाने वाले बिहार के मुख्यममंत्री नीतिश कुमार को गालियाँ देते हैं और शराब और ड्रग्स को लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। आवेश के मामले में भी यही हुआ है क्योंकि आवेश और उसके सारे दोस्त शहर के प्रख्यात स्कूलों में पढ़ते थे। 17 साल की उम्र में गर्लफ्रेंड या ब्वायफ्रेंड अब आम बात है। कयास तो यह भी है कि आवेश की हत्या या आत्महत्या के पीछे यह एक वजह हो सकती है।
सुविचार की माँग करने वाले शायद ही इन पहलुओं पर ध्यान देंगे। आखिर कोई भी जन्मदिन की पार्टी बगैर शराब के अधूरी क्यों लगती है और किशोरों के हाथ में सिर्फ स्मार्टफोन ही क्यों होना चाहिए? अगर देना ही है तो बच्चों को जिंदगी के तमाम अच्छे या बुरे पहलुओं से अवगत करने की जिम्मेदारी बड़े क्यों नहीं निभा पा रहे? सभी स्कूलों में महँगे तोहफों पर पाबंदी रहती है मगर इसका पालन कितने लोग करते हैं? अभिभावकों की छोड़िए, आज तो शिक्षकों का काम तो बगैर सिगरेट के नहीं चलता और कई सरकारी कार्यालयों और उद्योग जगत का भी यही हाल है। ऐसे लोग कैसे नशे और मद्यपान को अवगुण मानेंगे? रही बात मीडिया की तो, वह भी कम गुनहगार नहीं है। कई ऐसे समाचार पत्र, चैनल और पत्रिकाएं हैं जो शराब का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रसार करती हैं। हाथों में बीयर और वाइन की बोतलें और सिगरेट के कश लगाते युवा जब डांस फ्लोर पर थिरकते हैं तो इसमें बुराई नहीं देखी जाती बल्कि इसे पार्टी हार्ड कहा जाता है और फिल्में और आज का तेज संगीत इसमें कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं। जाहिर है कि नामचीन हस्तियों को पैसे दिखते हैं मगर यह नहीं दिखता कि उनकी इस देश और इसके युवाओं के प्रति कोई जिम्मेदारी है। अजय देवगन से लेकर शाहरुख खान तक शराब के विज्ञापन करते हैं और यो यो हनी सिंह इसमें चार बोतल वोदका का तड़का लगा रहे हैं। ऐसे में वही होना तय है जो आज हो रहा है। बच्चे इसे अच्छी चीज मानने लगे हैं और शराब के कारोबार में तेजी से वृद्धि हो रही हैं और इससे भी अधिक बढ़ रही हैं मौतें।
शराब के सेवन से हर 96 मिनट में एक भारतीय की मौत हो रही है। देश के कुछ राज्यों में जबसे शराब पर बैन लगाई गई है, तभी से लोगों में यह चर्चा का मुख्य टॉपिक है। शराब बंदी पर छिड़ी बहस के बीच इंडियास्पेंड ने खुलासा किया है कि भारत में शराब पीने के प्रभावों से प्रतिदिन 15 लोगों या हर 96 मिनट में एक व्यक्ति की मौत हो रही है। इंडिया स्पेंड ने यह खुलासा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया उपलब्ध आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर किया है। भारत में प्रति व्यक्ति शराब के उपभोग में 38 प्रतिशत वृद्धि हुई, जो 2003-05 में 1.6 से बढ़कर 2010-12 में 2.2 लीटर प्रति व्यक्ति हो गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपॉर्ट में भी यह खुलासा किया गया है कि भारत में 11 प्रतिशत से अधिक लोग शराबी हो गए थे, जबकि अंतर्राष्ट्रीय औसत 16 प्रतिशत है। आंकड़े बताते हैं कि शराब के खिलाफ बड़े पैमाने पर राजनीतिक समर्थन मिले। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि शराब एक स्वास्थ्य समस्या है न कि नैतिक।तमिलनाडु में चौथी बार मुख्यमंत्री के रूप में कार्य शुरू करने के पहले दिन जे. जयललिता ने 23 को करीब 500 से अधिक शराब की दुकानें बंद कर दीं। इस साल अप्रैल में बिहार में शराब के उत्पादन, बिक्री और उपभोग पर भी रोक लगा दी गई है। केरल में भी अगस्त, 2014 में शराब की बिक्री सिर्फ पांच तारा होटलों तक सीमित कर दी गई थी। बंगाल में यह माँग उठ रही है मगर दिल्ली दूर है। हाल ही में हुई शराबबंदी से पहले, भारत में गुजरात और नगालैंड ही ऐसे राज्य थे, जहां शराब के लिए निषेध लागू था। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार शराब के प्रभावों से सबसे अधिक मौतें महाराष्ट्र में होती हैं। मध्य प्रदेश और तमिलनाडु, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
तमिलनाडु के संगठन मक्काल अधिकारम (लोक शक्ति) के एस. राजू ने बताया कि “बड़े अपराध और दुर्घटनाएं शराब के कारण होती हैं। यह डकैती और महिलाओं के यौन उत्पीड़न के लिए भी जिम्मेदार है”। उन्होंने कहा कि शराब के कारण तमिलनाडु में सबसे अधिक तीस साल से कम उम्र की विधवाएं हैं। सन 2014 में जहरीली शराब पीने से प्रतिदिन पांच लोगों की मौत होती थी। वहीं, मालवानी और मुंबई में 2015 में अवैध शराब पीने से करीब 100 लोगों की मौत हो गई थी। जहरीली शराब पीने से 2014 में 1699 लोगों की मौत हुई थी, जो 2013 में 387 लोगों की हुई मौत की तुलना में 339 प्रतिशत ज़्यादा है।हालांकि लंदन स्कूल ऑफ हाईजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रमुख लोक स्वाथ्य विशेषज्ञ विक्रम पटेल ने इस बात पर जोर दिया था कि निषेध से शराब की लत और मौतें कम नहीं हो सकती हैं। ठहरकर देखने की जरूरत है कि सब कुछ हासिल करने की होड़ में बहुत कुछ पीछे छूट रहा है। आज उसे सम्भालने और सचेत होने की जरूरत है वरना इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा।
नोटः 2014 से शराब के कारण हुई मौत के आंकड़े नहीं दिए जाते हैं, इसलिएयह रिपॉर्ट 2013 के आंकड़ों के आधार पर बनाई गई है।
(आँकड़े एबीपी न्यूज की खबर के आधार पर साभार)