कथाकार उषा किरण खान – किरण और मिन्नी के नाम से भी परिचित हैं । वे अपना परिचय महादेवी वर्मा की इन पंक्तियों से करती हैं –
‘परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी, बह आज चली’
इनका जन्म 7 जुलाई 1945 में लहेरिया सराय, पकड़िया गांँव, जिला दरभंगा के कोसी क्षेत्र बिहार राज्य में हुआ।
पिता का नाम जगदीश चौधरी, माता का नाम शकुंतला चौधरी
पांँच भाईयों – सुवेश, अखिलेश, विश्वेश, चंद्रेश और राकेश के बीच अकेली बहन
पति बालसखा रामचंद्र खान भारतीय पुलिस सेवा में 1968 से 2003 तक रहे।
चार बच्चों से भरपूरा परिवार, अनेक पौत्र – पौत्रियाँ। पौत्री लखिमा शंकर खान भी कला, शायरी और लोककला के प्रति संवेदनशील हैं।आद्या पंडित तीसरी पीढ़ी के बच्चों में सबसे छोटी ननिहाल की परंपरा की वाहक है। वैसे तो पूरा परिवार ही साहित्यिक संस्कारों से अनुप्राणित हैं।
उषा जी की प्रारंभिक शिक्षा एंगल गर्ल्स स्कूल, पटना में हुई, बाद में लेडी रदरफोर्ड, दरभंगा में हुई, जहाँ इनके लिए हॉस्टल बनाया गया।
हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं की लेखिका उषा जी बाबा नागार्जुन से प्रभावित रही हैं।
इनके पिता सर्वप्रथम लोकमान्य तिलक और बाद में महात्मा गाँधी के सहयोगी रहे। वर्षों तक जेल में भी रहे। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, गंगा शरण सिंह, नागार्जुन आदि साहित्यकारों का आरंभ से ही सानिध्य मिला। बाद में, नागार्जुन उनके अभिभावक रहे। यात्री काका (नागार्जुन) के साथ कविता भी पढ़ी, फिर कहानी और उपन्यास लेखन में आगे बढ़ती चली गईं। धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि ने इनकी कहानियों का खूब स्वागत और प्रकाशित किया। ये कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। भाषा सौन्दर्य और लेखन शैली पर नागार्जुन का प्रभाव पड़ने का प्रमुख कारण यही रहा कि उषा किरण खान ने नागार्जुन को पिता की तरह माना और उनके साहित्यिक संस्कारों से प्रभावित रहीं जो उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है।
इनकी मॉं का पुनर्विवाह हुआ था जिसके कारण उन्हें सामाजिक तिरस्कार का दंश भी भोगना पड़ा।उषा किरण की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इन्होंने अपनी भाषा और क्षेत्र को कभी नहीं छोड़ा।
उषा किरण अवकाश प्राप्त इतिहास शिक्षाविद् रही हैं। अतः सामाजिक, ऐतिहासिक,पुरातत्व शोध से आपका गहरा संबंध रहा है। मिथिलांचल की आदिवासी धरती से जुड़ी दलित और आदिवासी महिलाओं पर उन्होंने विशेष रूप से लिखा है। सीता की धरती मिथिलांचल से जुड़ी होने के कारण आपने मैथिली लोककथाओं में रच – बस कर मैथिली के साथ – साथ हिंदी साहित्य को भी समृद्ध किया है।
16 उपन्यास, 150 हिंदी, मैथिली में कहानी, 2 मैथिली नाटक, 2 हिंदी नाटक लिखे ।
गाँव और महानगर समाज की स्त्रियों को अपने साहित्य में बराबर स्थान दिया। बेमेल विवाह आदि बहुत सी सामाजिक बुराइयों को भी दूर करने में अपना योगदान दिया। ‘एक है जानकी’ जैसी कहानियों ने स्त्री संसार को नए दृष्टि कोण से देखने का नजरिया दिया।
उपन्यास – गई झूलनी टूट, पानी पर लकीर, फागुन के बाद, सीमांत कथा, रतनारे नयन (हिंदी), अनुत्तरित प्रश्न, हसीना मंजिल(12 भाषाओं में अनुदित) , भामती, सिरजनहार (मैथिली), अगन हिंडोला (ऐतिहासिक) आदि।
कहानी संग्रह – गीली पॉक, कासवन, दूब धान, विवश विक्रमादित्य, जन्म अवधि, घर से घर तक (हिंदी), कांचहि बांस (मैथिली) आदि।
नाटक – कहाँ गए मेरे उगना, हीरा डोम (हिंदी), फागुन, एक सारि ठाढ़, मुसकौल बला (मैथिली) कौस्तुभ स्तंभ, जवाहर लाल
बाल नाटक – डैडी बदल गए हैं, नानी की कहानी, सात भाई और चंपा, चिड़िया चुग गई खेत (हिंदी), घंटी से बान्हल राजू, बिरड़ो आबिगेल (मैथिली)
बाल उपन्यास – लड़ाकू जनमेजय।
स्त्री मन की कहानियाँ-डॉ कुमार वरुण(संपादक), उषा किरण खान का कथा लोक – सोनी पांडेय( संपादक) शोधपरक ग्रंथ हैं।
2015 में साहित्य और शिक्षा के लिए पद्मश्री से सम्मानित उषा किरण खान को कई महत्वपूर्ण पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए।
2019 में भारत भारती पुरस्कार,
2011 में साहित्य अकादमी अवार्ड उपन्यास भामती:एक अविस्मरणीय प्रेम कथा (मैथिली)के लिए।
हिंदी सेवी सम्मान (राजभाषा विभाग बिहार सरकार), महादेवी वर्मा सम्मान (बिहार राजभाषा विभाग), दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार,बृजकिशोर मिश्र सम्मान।
कुसुमांजली साहित्य उपन्यास ‘सिरजनहार’ पर इंडियन कौन्सिल फॉर कल्चरल रिलेशन्स द्वारा ढाई लाख रुपये का पुरस्कार, विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार,
2020 में प्रबोध साहित्य सम्मान – (आजीवन योगदान के लिए)
साहित्य से जुड़ने के साथ साथ उषा किरण खान सामाजिक क्रियाकलापों में भी बेहद सक्रिय रहीं। पटना की महिला चर्खा समिति की अध्यक्षा हैं। इनका मानना है कि साहित्य में विचारधारा हावी हो, यह सही नहीं है क्योंकि लेखक को समदर्शी होना चाहिए।
इन्होंने’आयाम’ नामक संस्था की स्थापना की जो साहित्य का स्त्री स्वर है जिसका उद्देश्य ही है समाज की स्त्रियों के स्वर को प्रोत्साहित करना, घरों में बैठी संकोच में डूबी कवि लेखक स्त्रियों की पहचान कराना और स्त्री लेखन का सूचीकरण इत्यादि कार्यों को आगे बढ़ाना।इनके साहित्य में चूड़ीहारिन से लेकर महानगर की स्त्रियों को पढ़ा जा सकता है।
‘गई झुलनी टूट’ उपन्यास जल्द ही ‘पॉडकास्ट’ पर भी आने वाला है जिसकी प्रस्तुति ‘आयाम’ की युवा लेखिकाओं /कवयित्रियों द्वारा किया गया है।
एक मजेदार किस्सा – –
उनकी सास गंगा देवी जिनका पुकार नाम बुच्ची दाई था, इनका बहुत ही अंतरंग रिश्ता था। वे उन्हें चाची कहतीं जिनका साथ 1995 तक ही रहा। उनका बनाया सुस्वाद मैथिली भोजन आज भी उनको स्मरण हो आता है। उषा किरण जी के ही शब्दों में – –
‘सौम्य शिष्ट और परम सुंदरी गंगा देवी 14 की थीं, जब दबंग सास की बहू हुईं। खाना बनाना ससुराल में ही सीखा होगा। वह बड़ी आनंदी स्वभाव की थीं। गीत का संचयन बहुत था। लेकिन यदि दोपहर और शाम में प्राती गाने की धुन पूछियेगा तो वो नहीं बतातीं बल्कि एक कहावत सुनातीं – –
साँझ पराती, भोर बसंत
तखनहिं बूझू गीतक अंत
हास्य कथाओं की भंडार थीं, अभिनय करके कथा सुनातीं। सौन्दर्य, अभिनय कला और पाक कला उनकी सात पौत्रियों में उनसे ही आया है, पर गंगा देवी एक बड़े पंडित की बेटी तथा बड़े पंडित की पत्नी होती हुई निरक्षर थीं। मैंने जिन गांँव की कहानियों का जिक्र किया है सब उनसे ही सुना जिसे मैं हिंदी में अनुदित कर पटल पर रखूंँगी। अति परिश्रमी घोर दुःख सहकर भी आनंदी स्वभाव वाली गंगा देवी मेरी सास, मेरी सदा सहेली रहीं। ‘
सास बहू का रिश्ता सिर्फ रिश्ता ही नहीं है बल्कि उषा जी ने इसे पूरे घर, समाज, देश और राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर से जोड़ा है।
चालीस साल पहले की लिखी कहानी ‘अड़हुल की वापसी’ का एक छोटा- सा अंश—
यह ठेठ कोसी क्षेत्र के गाँव की कहानी है। अड़हुल और ओवरसीयर साहब की कहानी, एकतरफ़ा उद्दाम प्रेम और नदी के वेग सा टीस उठता मन में। दशकों बाद फिर वह बेला आती है जब फिर दोनों आमने-सामने होते हैं। देखें क्या होता है – –
अड़हुल – –
घर पहुंँचते पहुंँचते मेरे अंदर सालों पहले की अड़हुल जाग कर बैठ गई। मेरा रोयांँ इस उमर में भी खड़ा होने लगा। कलेजा धक – धक करने लगा। यह क्या हो रहा है। साहेब के बगल में बैठी तीन घंटे से मैं नया जनम नहीं पुनरजनम लेने गई हाय राम!
जब उन्होंने कहा कि वे लौट जाना चाहते हैं तो राहत की सांस ली लेकिन ये बच्चे भी न, अंकल – अंकल कहकर उन्हें रोक दिया। आगत स्वागत किया है सो ठीक पर मेरा मन चंचल हो रहा था। मेरा भोला भाला बेटा उनसे यहाँ रहने की, केंद्र खोलने की सिफारिश कर रहा है। मैं तो पागल हो जाऊंँगी।
साहब की मंशा क्या है नहीं मालूम। वे भी केंद्र खोलने की बात पर हामी भर रहे हैं। उनके लोग बहुत दिन से आवाजाही करते रहे हैं। अब ये रहकर इलाके का हेतु देखेंगे। अपने मन में सोच रही हूँ कि अगर ये रहने को तैयार होंगे या जादे आवाजाही करेंगे तो हम पुरैनिया दूसरे बेटे के पास चले जाएंँगे। काहे तो मन घबड़ा रहा है।
साहेब गाड़ी पर बैठ गया, भर नजर हमारी ओर देखा, हाथ उठाकर बोला – “अच्छा अड़हुल हम जाते हैं, तुम्हारा गाँव घर बच्चे सब याद रहेंगे। जल्दी ही लोग आएंँगे केंद्र खोलने। मुझे बच्चों के पास विदेस जाना है।”
अपने आदत के अनुसार हमने आँचल से मुंँह ढक लिया – जानते हैं क्यों, इस हमारे गांँव में बाल बुतरू के सामने नाम धरके पुकारे इसीलिए, यह मेरा नैहर थोड़े न है। लेकिन जी हल्का हो गया। गाड़ी नजर से दूर चली गई।
यह कहानी उस अड़हुल और ओवरसियर साहेब की है जिनकी आशनाई चालीस साल पहले कोशी के बीच पनपी थी और दफन हो गई थी। समय कैसे कैसे किसे उखाड़ लाता है देखिए गुनिए।
उषा किरण खान के साहित्य संसार को मैंने छोटी सी खिड़की से केवल झाँका भर ही है, पूरे दरवाजे के पार जाना संभवतः स्त्री के पूरे तंत्रों – मंत्रों को समझना है जो प्याज की परतों की तरह उतराते- गहराते हैं, जहांँ खट्टे – मीठे – तीखे – कड़वे – कसैले विभिन्न स्त्री संवेदनाओं और भावों के विभिन्न रंगों और भावों का एकीकरण मिलता है। जहाँ संस्कार है, संस्कृति की धरोहर है और स्त्री सशक्तीकरण है, अपने अधिकारों के प्रति सजग स्त्री मन है।
वरिष्ठ कथाकार के कहानी संसार का वैविध्य विस्मित करता है। उनकी कहानियाँ स्त्री जीवन के विविध रूपों का दस्तावेज़ है।लेखन में गतिशीलता जारी है।