“साहित्यिकी” ने आयोजित किया पुस्तक परिचर्चा कार्यक्रम

कोलकाता : भारतीय भाषा परिषद के सभाकक्ष में साहित्यिकी संस्था द्वारा दो कहानी संग्रहों पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। वरिष्ठ कथाकार सिद्धेश की किताब “वेणुगोपाल का झूठा सच” और शर्मिला बोहरा जालान के कहानी संग्रह “राग विराग और अन्य कहानियां” पर केन्द्रित इस परिचर्चा में शहर के साहित्यकार बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। वरिष्ठ आलोचक विमलेश्वर द्विवेदी ने कहा कि सिद्धेश जी कि लंबे समय से सृजनशील हैं। “वेणुगोपाल का झूठा सच” की कहानियां बदलते हुए रिश्तों के साथ साथ मध्यवर्ग के बिखराव और उसके अंतर्विरोधों की भी कहानियां हैं। अरबानाइजेस्न के तहत आनेवालों बदलावों को लेखक ने सूक्ष्मता से पकड़ा और सहजता से दर्शाया है। क्षणवाद के दर्शन को भी कहानियों में उकेरा गया है। “जन्मभूमि” कहानी एक तरह के नये मूल्यबोध और उससे उत्पन्न बेचैनी की कहानी जो आज के दौर का सच है।

गीता दूबे ने कहा कि सिद्धेश जी अकथा दौर के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं और उनकी निरंतर सृजनशीलता हमें आशवस्त करती है। उनकी कहानियो में एक तरह की हताशा, बिखराव, अकेलापन और उससे उत्पन्न अवसाद की छाया दिखाई देती है जो आधुनिक जीवन की विडंबना है। उन्होंने कहानी के प्रचलित फार्म को तोड़ते हुए ‘हड़ताल’ जैसी कहानी के माध्यम से कथा कोलाज की रचना भी की है।

शर्मिला बोहरा जालान की किताब पर अपनी बात रखते हुए शुभ्रा उपाध्याय ने इस कहा कि एक स्त्री का रचनाजगत पुरुष के रचनाजगत से भिन्न होता है। लगभग दो दशकों में फैली हुई ये कहानियां आभिजात्य स्त्री या स्त्री के आभिजात्य को उकेरती हैं। शर्मिला संवेदनशील कथाकार हैं और उनकी कहानियाओं की भाषा बेहद सशक्त और कसी हुई है। उनकी कई कहानियों के केन्द्र में मां है लेकिन पिता को उतनी जगह नहीं मिली है। इनकी स्त्रियाँ प्रेम में होते हुए भी अपने स्वाभिमान के प्रति सजग हैं।

मंजुरानी गुप्ता ने “राग विराग और अन्य कहानियां” की हर कहानी पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि  कि शर्मिला जी की कहानियां नारी पीड़ा और अंतर्वेदना को व्यक्त करती हैं। समाज परिवर्तन की जोरदार भले ही नही सुनाई देती पर पीड़ा का मार्मिक चित्रण जरूर मिलता है।

लेखकीय वक्तव्य में शर्मिला ने अपनी रचना प्रक्रिया और रचना यात्रा पर बात रखते हुए कहा कि लेखक को रचने और छपने के साथ साथ छांटना भी आना चाहिए। अपने लिखे हुए के प्रति मोह  से मुक्त होकर और कमजोर रचनाओं के प्रति निर्मम होकर ही लेखक परिपक्व होता है। समय के साथ साथ लेखक का भी विकास होता है और उसकी अनुभूतियाँ प्रौढ़ से प्रौढ़तर होती जाती हैं।

अध्यक्षीय वक्तव्य में रेवा जाजोदिया ने कहा कि यह हमारी परंपरा है कि हम अपने शहर के लोगों की पुस्तकों पर चर्चाओं का आयोजन करते हैं। इन दोनों संग्रहों की  कहानियों को पढ़ते हुए अपने आस पास की घटनाओं से दो चार होने का अनुभव होता है। उन्होंने उपस्थित श्रोताओं और वक्ताओं को धन्यवाद भी दिया। कार्यक्रम का सुंदर और सफल संचालन  सुषमा त्रिपाठी ने किया। 

 

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