सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, इन दिनों मैं आप लोगों से मध्ययुगीन कवयित्रियों के बारे बातचीत कर रही हूँ। इन में से कुछ के बारे में हम सब लोगों ने इतिहास की किताबों में पढ़ रखा था तो कुछ के सिर्फ नाम भर सुन रखे थे, जैसा कि मुझे मेरी पाठिकाओं ने बताया कि, “इन लोगों के तो नाम भर सुन रखें थे जो पता नहीं कैसे स्मृति में अंकित रह गये।” सखियों, कुछ कवयित्रियों को तो इतिहास के पन्नों पर जगह मिली और उनके नाम पाठकों को याद रह गये लेकिन कुछ ऐसी भी हैं जिनके नामों का उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं समझा गया। सवाल यह नहीं है कि किसका अवदान ज्यादा है, किस का कम, किसने ज्यादा अच्छा लिखा और किस ने कम, जब एक युग की प्रवृत्तियों और रचनाकारों की बात की जाती है तो उस युग विशेष में सक्रिय सभी रचनाकारों के अवदान पर संक्षेप ही सही चर्चा अवश्य होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। इतिहास किसी देश का हो या साहित्य का या फिर समाज का, यह तो लिखनेवाले अपनी पसंद, नापसंद, विचारधारा या अन्यान्य कारणों या सुविधाओं के मद्देनजर तय करते हैं कि उन्हें अपनी किताब में किसे शामिल करना है, किसे नहीं। और शायद इसके पीछे एक वजह वह भी है जिसे “लिंगभेद की राजनीति” के नाम से चिह्नित किया जा सकता है। जिन महान लेखकों के हाथों में इतिहास को कलमबद्ध करने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी रही उन्होंने तय कर लिया कि कौन से नाम स्वर्णाक्षरों में चमकेंगे और किन्हें एक ऐसी दराज में दफन कर दिया जाएगा जो शायद ही कभी खोली जाए। लेकिन दराजें तो खोली जाती ही हैं और उनमें कैद नामों को भी विस्मृति के अंधेरे से बाहर निकाल कर दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है ताकि उनका सही मूल्यांकन हो सके। इस श्रमसाध्य महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी कुछ रचनाकार सायास अपने कंधों पर ले लेते हैं। जैसे विस्मृति की खोह में गुम बहुत सी स्त्री रचनाकारों को सामने लाने का काम सफलतापूर्वक संपन्न किया, डा. सावित्री सिन्हा, डा. सुमन राजे सक्सेना जैसी गंभीर लेखिकाओं ने। उनके परिश्रम पूर्ण किए गए शोधकार्य के लिए उन्हें नमन करती हुई आज मैं आप सबका परिचय एक ऐसी ही विस्मृत कवयित्री से करवाने जा रही हूँ जिनका नाम शायद बहुत कम लोगों ने सुन रखा हो। वह हैं, प्रताप बाला।
प्रताप बाला का जन्म संंवत् 1891 में गुजरात के जामनगर राज्य में हुआ था। इनका विवाह जोधपुर के महाराज तख़्त सिंह के साथ हुआ और वह महारानी के आसन पर विराजमान हुईं। कहा जाता है कि स्वजन- परिजनों की असामयिक मृत्यु के कारण सांसारिकता से उनका मोहभंग हो गया। सांसारिक विरक्ति ने इनके मन में कृष्ण के प्रति अनुरक्ति जागृत की और मीराबाई की तरह इन्होंने भी कृष्ण की भक्ति में स्वयं को समर्पित कर दिया। कृष्ण की अराधना करते हुए उन्होंने भक्ति रस में डूबे पदों की रचना की। उनके पदों में भक्ति की गहराई भी है और प्रेम की शक्ति पर अगाध विश्वास भी। उनका काव्य मध्ययुगीन भक्त कवियों की भांति ही पूरे समर्पण और साधना से सृजित है जिसमें कभी वह कृष्ण के मनोहारी स्वरूप का वर्णन करती हैं तो कभी उनके चरणों में स्वयं को समर्पित करती हुई मुक्ति की कामना करती हैं। भक्तिरस में डूबा हुआ एक पद देखिए जिसमें विनय का भाव भी व्यक्त हुआ है-
“भजु मन नंदनंदन गिरिधारी।
सुख-सागर करुणा को आगर भक्तवछल बनवारी॥
मीरा करमा कुबरी सबरी तारी गौतमनारी।
वेद पुरानन में जस गायो ध्याये होवत प्यारी॥
जामसुता को स्याम चतुरभुज लेजा ख़बरि हमारी॥”
इनकी भक्ति में माधुर्य भाव की अभिव्यक्ति भी हुई है जिसमें वह कृष्ण को अपना प्रियतम मानती हुई उन्हें पति रूप में पूजती हैं-
“प्रीतम हमारो प्यारो श्याम गिरिधारी है।
मोहन अनाथनाथ संतन के डोलै साथ,
वेद गुन गावैं गाथ गोकुल बिहारी हैं।
कमल विशाल नैन निपट रसीले बैन,
दीनन को सुख दैन चारिभुजा धारी हैं।
केशव कृपानिधान वाही सो हमारो ध्यान,
तन मन बारूँ प्रान जीवन मुरारी हैं।
सुमिरूँ मैं साँझ-भोर बार-बार हाथ जोर।”
कृष्ण का स्वरूप वर्णन करते हुए कवयित्री भावविभोर हो जाती हैं और उनकी छवि पर करोड़ों कामदेवों को वार देना चाहती हैं-
“चतुरभुज झुलत श्याम हिंडोरे।
कंचन खंभ लगे मणिमानिक रेसम की रंग डोरें॥
उमड़ि घुमड़ि घन बरसत चहुँदिसि नदियाँ लेत हिलोरें।
हरी-हरी भूमि लता लपटाई बोलत कोकिल मोरें॥
बाजत बीन पखावज बंशी गान होते चहुँ ओरें।
जामसुता छबि निरखि अनोखी वारूँ काम किरोरें॥”
चतुर्भुज कृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन करती हुई वह अपनी एकनिष्ठ भक्ति का संकेत भी देती हुई कहती हैं कि उनका मन कृष्ण के चरणों के अतिरिक्त और कहीं नहीं ठहरता-
मो मन परी है यह बान।
चतुरभुज को चरण पठिहरि ना चाहूँ कछु आन।
कमल नैन विसाल सुंदर मंद मुख मुसकान॥
सुभग मुकुट सुहावनो सिर लसे कुंडल कान।
प्रगट भाल विशाल राजत भौंह मनहुँ कमान॥
अंग-अंग अनंग को छबि पीत पट पहिरान।
कृष्णरूप अनूप को मैं धरूँ निसि दिन ध्यान॥
सदा सुमिरूँ रूप पल-पल कला कोटि निधान।
जामसुता परताप के भुज चार जीवन-प्रान॥”
सहज सरल ब्रजभाषा में सृजित भक्तिरस में सराबोर, कवयित्री प्रताप बाला के पदों मेंं सिर्फ उनके समर्पित ह्रदय के गहन भावों की ही अभिव्यक्ति नहीं हुई है बल्कि उनकी कवि क्षमता का भी यथेष्ठ परिचय मिलता है। कवयित्री के ह्रदय की सरलता और निश्छलता तथा प्रेम सिक्त भक्ति का माधुर्य उनकी कविताओं को बरबस ही सरसता के गुण से संपन्न कर देता है। आप से आग्रह है कि आप भी इनके पदों को पढ़िए और स्वयं इनका मूल्यांकन करिए।
आज विदा सखियों। अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी, एक नयी कहानी के साथ।