समीक्षा : आत्मकथात्मक शैली में प्रेम की संवेदनशील गाथा है ‘अंत में बारिश’

डॉ. वसुंधरा मिश्र

‘अंत में बारिश’ उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में प्रेम और विवाह के बीच होने वाली विभिन्न घटनाओं और सूत्रों को जोड़ने वाली बहुत ही संवेदनशील कथा है। एक ऐसे प्रेमी नायक की कहानी जिसकी उम्र उनतीस वर्ष की और प्रेमिका नायिका की उम्र मात्र पंद्रह वर्ष की है यानि विवाह के लिए नाबालिग है। उम्र, जाति, नैतिक, अनैतिक वैचारिक द्वंद्वों के जद्दोजहद को पार कर विवाह और फिर अंत तक का सफ़र इस उपन्यास को नया और सकारात्मक आयाम देता है। सभी घटनाएँ पत्र शैली और डायरी शैली में उजागर होती हैं। घटनाक्रम फ्लैशबैक में क्रमशः आइने की तरह साफ होता जाता है। साठ के दशक में प्रेम होना और उसकी अभिव्यक्ति करना लड़के और लड़कियों दोनों के लिए तनावपूर्ण स्थितियाँ बयां करने वाली रही हैं। प्रेम की परिभाषा पीड़ा से होकर अपना आकार लेती है। कभी प्रेमी सफल तो कभी असफल। वैसे तो इस उपन्यास में प्रेमी अपने दृढ़ प्रेम और प्रेमिका अपनी समझदारी के कारण परिणाम अर्थात विवाह तक पहुंँचते हैं।
‘अंत में बारिश’ शीर्षक अपने आप में व्यक्त करने में सक्षम है। उपन्यास की लेखिका ने यह बात ‘ प्रतिशब्द’ में स्वीकार करते हुए लिखा है कि उपन्यास के आरंभ में वर्षा की गति सुहावनी और तरल’ रिमझिम होती है और अंत में घनघोर वर्षा होती है। इस बीच कई ऋतुएँ आती-जाती रहती हैं। अंतिम बारिश में नायक की पलकें भींगती चली जाती हैं।और कथा समाप्त होती है।’ (प्रतिशब्द)
जीवन यात्रा में आई बारिश की निरंतरता इसी बात का संकेत है कि विभिन्न ऋतुओं की तरह हमारा जीवन भी कई उतार चढ़ाव से गुजरता है और हम सुख- दुख, मान – अपमान, लाभ- हानि आदि के तराजू में तुलते हुए जीवन को जीते चले जाते हैं। यही जीवन दर्शन है। प्रेम की परिणति और फिर गृहस्थ जीवन तक के विभिन्न रंगों के चित्रों को दर्शाता है ये उपन्यास। प्रमुखता से नायक-नायिका ही इस कथा के केन्द्रीय पात्र हैं।
पत्र लेखन हमारी सांस्कृतिक विरासत है। वर्तमान समय में अब वाट्सप, फेसबुक और सोशल मीडिया आदि के कारण पत्र लेखन की वैसी परंपरा समाप्तप्राय है।
लेखिका का यह पहला उपन्यास है। लेखिका चाहती है कि पत्रों के लेखन में व्यक्ति के मन की बात अधिक संवेदनशील होती है। और प्रेम पत्र तो हृदय में ही समाहित होनेवाले होते हैं। प्रेम से लिखे एक एक शब्द मानो उसके अपनेपन का अहसास कराते हैं। पत्र शैली को इस उपन्यास में आधार बनाकर कथा को क्रमशः बढ़ाया गया है।
डॉ. मुक्ता ने उपन्यास की भूमिका ‘प्रेम के ताने-बाने में बुना मनोरम उपन्यास’ में प्रेम को संबोधित करते हुए लिखा है – ‘प्रेम के बीच रिश्तों के जुड़ने में टकराव और संघर्ष की स्थितियाँ बनती हैं। मूल में प्रेम है। मैं अपना कथन प्रेम के संदर्भ से ही शुरु कर रही हूँ। प्रेम का कोई वायवीय धरातल है या वह शक्ति जो बरबस ही हमें यात्रा में सहभागी बना देता है। प्रेम बाह्य संबंधों को लेकर नहीं वरन् उसकी अंतरंगता को लेकर निश्चित किया जाता है। ‘
मेरे विचार से उपन्यास’ अंत में बारिश’ में प्रेम की एक नई परिभाषा गढ़ी गई है। आज जहाँ विवाह टूटने के कगार पर है, प्रेमी प्रेमिकाएंँ वाट्सप की डीपी देखकर और सोशल मीडिया पर प्रेम का इजहार कर रहे हैं और वहीं ब्रेकअप जैसी घटनाएँ भी लगातार घटित होती जा रही हैं। ऐसे में प्रेम को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। लेखिका ने प्रेम के विशुद्ध रूप को कहीं भी अमर्यादित नहीं होने दिया है। वरन् वह नायिका और नायक की नैतिक जिम्मेदारी को बड़े ही अंतरंगता के साथ प्रेम को स्थापित करती है जहाँ ईमानदारी और विश्वास का दृढ़ संकल्प है।
आसमान में घने काले बादल एक छोर से दूसरे छोर तक ऐसे छाये थे मानों वे अभी अवनि तल पर उतर आयेगें। ऐसी जोरदार घनी बरसात के मौसम में प्रोफेसर संजय के मन मस्तिष्क में फ्लेश बैक की घटनाओं के साथ जया का पहली बार बारिश में रिक्शे पर आना जिसमें प्लास्टिक का पर्दा लगा होता है। संजय को याद आता है कि वह भीगते हुए उससे मिलने आई थी। संजय एमबीबीएस के प्रोफेसर है और अपने अड़ोस पड़ोस में प्रसिद्ध होने के कारण जया से मिलने नहीं जा सकता था।
जया एक मासूम, नाजुक, दुबली – पतली, छरहरे बदन की, घुँघराले बालों वाली साँवलें रंग की अत्यंत खूबसूरत लड़की थी। संजय स्वयं स्वीकार करता है कि जया से पहला परिचय पटना में लगभग आठ महीने पूर्व होता है। दो मकानों में से एक मकान में संजय किरायेदार थे। वहीं मकान-मालिक यमुना प्रसाद जी की लड़की प्रभा अंकल संजय से अपनी सहेली जया का परिचय कराती है। जया के पिता बिजली विभाग में अस्सिटेंट इंजिनियर के पद पर कार्यरत थे। प्रभा के पिता उसी विभाग में चीफ इंजीनियर थे। दोनों परिवारों के बीच एक पड़ोसी का रिश्ता था। संजय की बड़ी बहन विमला दीदी जो उम्र में काफी बड़ी थी, दोनों परिवारों और दोनों सहेलियों के बीच सेतु का काम करती थीं।
जया और संजय के बीच उम्र का काफी फ़ासला होने पर भी संजय जया के प्रेम में धीरे – धीरे डूबता चला जाता है जबकि जया इस बात से बेखबर थी। लेकिन जब उसे संजय की गहरी अनुरक्ति का पता चलता है जहांँ जीवन और मृत्यु के बीच की दिवार भी ढहाई जा सकती है ऐसे में जया भी कालांतर में उसकी ओर आकर्षित हो जाती है। जया का प्रेम अद्भुत, सात्विक, दुराग्रहपूर्ण मानसिक और अंतर्मुखी था।
प्रथम 28 दिसम्बर 1957 जब संजय ने अपने मित्र राजीव को अपने एकतरफा प्रेम के बारे में बताया था । नायक अपने नितांत व्यक्तिगत संघर्षों को झेलते हुए विगत पांँच छह महीनों में जया के काफी करीब आ जाता है और बाकी एक वर्ष का समय पंख पर सवार हो ऐसे बीतता जैसे आंँधी से वृक्ष के पत्ते उड़ जाते हैं। (पृ.6)
डायरी में लिखे शब्दों से नायक की व्यथा, भावावेग और प्रेम के उत्कर्ष का पता चलता है। उपन्यास में डायरी में लिखी तारीख़ और सन् को इंगित किया गया है। जैसे
1 जनवरी सन् 1959 का नववर्ष जब संजय 29 वर्ष का होता है। जया की रेशमी फ्राक और उसका गुलाबी गुलाब की पंखुरी की तरह मासूम और आकर्षक लगना उसकी उम्र को दर्शाता है। कभी नीले लंबे कोट और इंद्रधनुषी मफलर और अपेक्षाकृत अनसँवरे बालों में पहाड़ी लड़की सी लगती। जया भी उसकी तरफ अनायास ही आकर्षित होती चली गई। जया के पिता से दोनों के विवाह की बात करना और संजय का आश्वासन देना कि मैं आपकी लड़की को खुश रक्खूंँगा। ये सब कहने की हिम्मत वह नहीं जुटा सका। (पृ. 8)
4 जनवरी की शाम का वर्णन संजय अपनी डायरी में करता है। जया उससे 100 गज की ही दूरी पर रहती है लेकिन रिक्शे से आती है क्योंकि उसके पिता को उस पर शक है और वह नहीं चाहती कि उसके चरित्र पर कोई आक्षेप लगाए। वह अपने प्यार को पाने के लिए कुछ भी कर सकती है लेकिन पिता उसके प्रेमी का अपमान करे, नहीं सह सकती। छिप कर आना, अपनी व्यथा को बांँटना, नाराज और फिर खुश होना, खीझना, डांँटना, कॉलेज न जाना, शरीर और मन के बीच लक्ष्मण रेखा खींचना, पीड़ित होना और पीड़ित करना आदि बहुत से सुंदर चित्र हैं जो जया के प्रेम को उदात्त रूप प्रदान करते हैं। प्रेम में बहुत अधिक निकटता से वह चौंक जाती है। वह आतंकित हो उठती है उसे लगता है शरीर के स्पर्श मात्र से कुछ हो जाता है उसके दिमाग में भरा हुआ है। (पृ. 15)
इसी तरह 20.12.1960 के पत्र में संजय प्रिय जया को लिखता है कि तुम्हारे यहाँ अफवाह है कि “मैं एक गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुल दस बीघे खेत हैं कौन कहता है जी? मैं गरीब अवश्य हूँ पर इतना भी नहीं।” वह अपनी हैसियत का प्रमाण देता है। वह अपने प्रेम को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता। संजय पहले भी बंद कमरे में न जाने कितनी ही बार रो चुका है। जया को भूलना बहुत ही मुश्किल है।
संजय को पटना के मेडिकल कॉलेज में अस्थाई नियुक्ति हुई थी अब भगवान की कृपा से दरभंगा के मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो गया। दो वर्ष का प्रोबेशन के बाद वहीं परमानेंट हो जाएगा। और जया भी चाहती थी कि वह पीएचडी करे। और यहीं से पत्रों का सिलसिला शुरु होता है।
संजय का पत्र ‘दुविधा, भविष्य के लिए कुछ संकल्प,’ दिनांक 5.02.1960, दिनांक 12.3.1960,भविष्य की योजना दिनांक 22.4.60, कुछ अंतराल के बाद, वही ऐतिहासिक जगह पटना – दिनांक 4.5.1960,फिर जया का एक संक्षिप्त पत्र, कुछ नोक झोंक, जया का पत्र संजय के नाम जिसमें जया की प्रेम वेदना मुखर हो उठती है – – वह लिखती है
भ्रमित हूँ आज मैं, है चतुर्दिक जो अँधेरा
बाँध लो नाँव मेरे ठाँव, न डरो कि छीन ले कोई पतवार
उस पर सवार हो हम चले जहांँ हो स्वर्णिम उजाला।
ले चलो तुम ज्योति मग में, धन्य हो मेरा सवेरा। ‘पृ 67
आदि कई घटनाओं का उल्लेख किया गया है जिनमें संजय ने अपनी दादी बहन की बीमारी की बात लिखी है। संजय लिखता है कि’ हमारी निष्ठा है तो हम एक साथ रहेंगे। रही बात भविष्य की हम अपने अनुसार अपना गढे़गे पृ69.’
नैराश्य भरे पत्र में संबोधन मेरी निराशा! से किया गया है। जया की माँ को भी पत्र लिखा है संजय ने जहांँ वह स्पष्ट लिखता है कि वह एक ईमानदार आदमी है, जिंदगी में अगर आवारागर्दी और मौज का खेल खेलना होता तो इतनी ठोकरें नहीं खानी पडतीं। पृ 73। बिना संबंध के जया के नाम क्या लिख दूंँ? यदि आप तैयार हों तो आप जहांँ कहें मैं चलकर अपना सब कुछ लिख देने को तैयार हूँ। पृ 74।
जया अपने निर्णय में लिखती है “मैं वहाँ तक आपका साथ दूंँगी जहाँ तक सत्य है, ईश्वर है, यह पृथ्वी है। क्या इससे भी अधिक प्रूफ की आवश्यकता है? – बहुत भावुक हो रही हूँ – बस आपकी जया। पृ 77
साथ ही प्रोफेसर संजय अपनी थीसिस के बाद की योजनाएं भी बनाता है और जया जो उसके जीवन की आधार है उसको आश्वस्त करता है कि जाति कुल की बातें करने वाला समाज पीड़ा ही देता है। वे ऊँचे कुल के राजपूत चंद्रवंशी या सूर्यवंशी की दुहाई देते हैं और बड़ी उम्र की।
21.9.1960 के इस पत्र में संजय ने जया को स्पष्ट लिखा है कि एक बार अंत में हमें किसी की खुशी, दम्भ, या झूठे अभिमान के लिए मरना नहीं है। हमें मारने वाले मार डालें तो ठीक है। दूसरी बात यह है कि यह लडाई संयोगवश पूरी की पूरी तुम्हारे हाथों में है। वे तुमसे ही हारेंगे। समय निरावधि है। हमारी निष्ठा है तो हम एक साथ रहेंगे। रही बात भविष्य की हम अपने अनुसार अपना गढेंगे। ‘पृष्ठ 69
संजय जानता है कि जया और उसका विवाह समाज में मान्य नहीं है। फिर भी वह और जया अपने निर्णय पर अडिग हैं।
एक पत्र में जया को वह’ भोली बाल सखी ‘और’ बालिका वधू ‘से भी संबोधित किया है। संजय अपने को’ एक एडल्ट पुरुष’ मानते हैं।स्त्री ही अपमानित नहीं होती बल्कि पदस्थ, चर्चित, सम्मानित पुरुष को स्त्री से भी अधिक विवश किया जाता है।
5.12.1960 के पत्र से पता चलता है कि संजय की नियुक्ति फिर दरभंगा में एक वर्ष के प्रोवेशन पर हो गई है। जया हर हाल में उसका साथ ही देने का निर्णय करती है । अपना निर्णय देती है कि जहाँ सत्य है, ईश्वर है यह पृथ्वी है तब तक वह संजय की है। संजय पीएचडी भी पूरा कर लेना चाहता है।
जया उसे बराबर पत्रों में आश्वस्त करती है कि यदि वह आपकी नहीं होगी तो किसी की भी नहीं होगी, वह पलायनवादी संस्कृति की नहीं है, वह उसी ठाकुर अजीत सिंह की बेटी है जो अपने निश्चयों पर अड़े हुए हैं। वह पत्थर से टकरा सकती है। पर उन पत्थरों की चोट संजय को न लगे। पृ83। पत्रों में संजय अंत में लिखता है तुम्हारा केवल तुम्हीं में खोया हुआ।
पत्रों के सिलसिले चलते रहे। 4.4.1961 के पत्र के बाद से लगातार छ महीनों तक परिवार के रिश्तेदारों सगे-संबंधियों और कॉलेज के कुछ आत्मीय मित्रों ने मिलकर जया के पिता को मनाया। अन्ततः आकाश को धरित्रि पर झुकना ही पड़ा।जून 1961 में जया एडल्ट हो गई तब विवशतावश पिता ने धूमधाम से विवाह किया और विदाई हो गई।
यहाँ भी मर्यादा का पालन करते हुए घूंँघट में जया की विदाई होती है। संजय अपने गांँव सुदामापुर ले गए जो गाजीपुर से गंगा के पार ताड़ी घाट से 7-8 किलोमीटर दूर था। जया के चेहरे को देख संजय ने कहा दो वर्ष बाद मिली हो। ‘सिंदूर लिप्त मांग, ललाट पर बिंदी घूंँघट से अस्त व्यस्त होने के कारण काली घुँघराली लटें उसके चेहरे पर बिखरी हुई थीं और बनारसी साड़ी तथा आभूषणों से सुसज्जित उसका सौंदर्य अनिर्वचनीय था, मैं भाव विमुग्ध हो गया।’
गाँव में संजय और जया का विधि विधान से मंगल गीतों की गूँज के साथ पुश्तैनी मकान में स्वागत हुआ। दो तीन दिन बाद ही दरभंगा मेडिकल कॉलेज से संजय को कॉलेज ज्वाइन करना पड़ा जो दोनों के लिए बहुत ही कष्टप्रद रहा। बहन और भुआ के पास नई नवेली दुल्हन जया को छोड़कर जाना संजय को दुखी कर रहा था क्योंकि जया इस तरह के पिछड़े गाँव में कभी रही न थी। जया की पढाई के लिए भी संजय प्रयास कर रहा है।
फिर संजय के पत्रों से पता चलता है कि वह मकान की तलाश भी कर रहा है और शांतिनिकेतन की यात्रा के विषय में भी लिखता है। अब वह उसका पति है।
जया भी साइंस में केमेस्ट्री से एम एस सी किया। संजय का भी लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और वहीं गवर्नमेंट गर्ल्स डिग्री कॉलेज में जया भी प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हो गईं। दो पुत्र मन्नू और टुन्नू भी हुए। संघर्षों के दिन समाप्त हुए, में छह वर्षों तक लखनऊ में रहे।
संजय के पटना वाले पुराने मित्र राजीव रंजन भी आते हैं और 12 वर्ष के बीच कितना परिवर्तन हो गया इस पर दोनों बातचीत करते हुए खाना भी खाते हैं। राजीव हिन्दी के प्रोफेसर हैं लेकिन कुंवारे हैं। संजय अपनी रिसर्च स्कॉलर जो हार्ट पर रिसर्च कर रही है, उससे परिचय कराते हैं।हँसी मजाक में समय कट जाता है।
संजय की शादी के 15 वर्ष बीत गए। जया भी घर की जिम्मेदारी निभाते हुए खुश है और चाहती है कि संजय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में वैंकुवर जाए और अपना शोध पत्र पढ़ें । 25 सितंबर 1978 में कनाडा जाते हैं जब तक संजय चार बच्चों के पिता बन चुके थे। ये सब सपने पूरे हो रहे थे लेकिन जया संजय का विछोह सहन नहीं कर पाती थी और जार बेजार रोती रहती थी । सेंट पाल्स हॉस्पिटल में कॉन्फ्रेंस की सभी बातों को संजय ने जया को टेलिफ़ोन पर बताया। एक पत्नी की तरह उसने भी यही कहा कि किसी विदेशिनी से दिल मत लगाना। फिर तो संजय मैक्सिको में डेढ़ महीने रहे। फिर लंदन, न्यूयॉर्क आदि जगहों पर भी योग्यता के कारण जाना रहा। इसी बीच तबियत भी खराब हो जाती है। संजय उम्र के अंतिम पड़ाव की तरफ भी जा रहे थे लेकिन मन और मस्तिष्क की जिज्ञासाएं बराबर रहती थी। अपने फाइल में दबे जया को लिखी चिट्ठियों को भी पढ़ते जिसमें गाँव की पगडंडी से होते हुए शहर और विदेश यात्रा करने वाले एक व्यक्ति के प्रतिफल भोगे हुए क्षणों, मनोदशा और अपना देश, अपना शहर, अपना घर – परिवार के प्रति आकर्षण का यथार्थ चित्र भी ही जिन्हें मैं अपनी अपनी फाइल से प्रस्तुत कर रहा हूँ –
मेक्सिको प्रवास से जया को प्रेषित पत्र के विषय में संजय जया के करीब ही रहता। पृष्ठ 118।
विदेशों का वैभव पैसा रूपये सब देखने के बाद भी अमरीका यूरोप आदि से मन भर गया। बस अपने देश की ही याद आती रहती और अपने बच्चों को भी यही बताता कि गाँव की गरीबी पढ़ते समय देखी थी, यहाँ विदेश में आकर अमीरी देख ली। पृष्ठ 119। जया के बिना अब संजय एक पल भी कहीं नहीं रह पा रहे हैं। अपने 25 से उन्तीस पत्रों में मेक्सिको अमेरिका जापान आदि देशों के खान पान आदि विभिन्न विषयों पर भी उल्लेख किया है। मिस्टर सैमुएल, मिस जेसिका आदि के विषय में भी बातें लिखी। संजय विदेशों में भारतविद कहलाने लगे। योग और शरीर तंत्र पर विविध व्याख्यान देते रहे। फिल्म बनाने का निमंत्रण भी आने लगा। विदेश में बुखार, ब्लड प्रेशर, ब्लड सूगर आदि बीमारी भी हुई। सबसे बड़ी एक बात यह समझ में आई कि अध्ययन कर्म आदमी को कहाँ से कहाँ पहुंँचा देता है। पर देश की गरीबी और गंदगी के बावजूद संजय देश की मिट्टी को नहीं भूल आते। मिस्टर सैमुएल की सेवा, प्रभा ठकराल की सेवा, शशि की सेवा को संजय अविस्मरणीय बताते हैं जिन्होंने मेक्सिको में उनका ध्यान रखा। घटनाक्रम धीरे-धीरे जीवन के अंतिम पड़ाव तक आता है और संजय उन घटनाओं को सहेज कर अपने अंतर्मन में संजो कर रखता चला जाता है।

विदेश भ्रमण में बारह वर्ष बीत गए। जया भी 30 सितंबर 2003 में सेवानिवृत्त हो जाती है। संजय तो जया से 15 वर्ष पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके थे। मन्नू टुन्नू और पम्मी ने जया के प्रथम सेवानिवृत्ति पूरी होने पर केक भी काटा। बड़े खुशी से जीवन बीत रहा था पर जया के सेवानिवृत्ति के दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि एक दिन आधी रात को उसके पेट में असह्य दर्द होता है जो गॉलब्लेडर में पथरी के कारण हुआ था। ऑपरेशन भी होता है फिर भी पेट का दर्द ठीक नहीं होता। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भी भर्ती कराया गया। संजय स्वयं उसका ऑपरेशन कर न सके। अपने मित्र द्वारा करवाया। अॉपरेशन हुआ लेकिन गॉलब्लेडर के बगल की एक नस में एक अत्यंत सूक्ष्म छिद्र हो गया था और मामला गंभीर हो चला था। आईसीयू में ले जाया गया लेकिन जया तीसरे दिन चल बसी।
संजय ने अंतिम संस्कार किया। उसके जाने के पंद्रहवें दिन बाद भरे पूरे घर में संजय को अकेला पन काट रहा था वही शाम का वक्त बरामदे में बैठे हुए संजय को जया की वही छवि याद आ रही थी जब ऐसी ही घनघोर बरसात में विवाह के पूर्व प्लास्टिक का पर्दा लगे हुए रिक्शे में मिलने आती है। अगले ही पल जया की अंतिम यात्रा के समय की छवि संजय की पनियल आँखों में तैर जाती हैं।
उपन्यास अंत में बारिश में घटनाएँ तीन भागों में बँटी हैं। पहली विवाह के पहले प्रेम को पाने की पीड़ा दूसरी विवाह के लिए कई संघर्षों का सामना और तीसरा विवाहोपरांत विदेश जाने की आकांक्षा में घर से दूर रहना।
देखा जाए तो 1960 से लेकर 2003 तक के नायक और नायिका की प्रेम यात्रा को चिट्ठियों द्वारा एक सूत्र में बांधने की कोशिश की है। और अधिकतर चिट्ठियां संजय द्वारा लिखी गई हैं। पत्नी का कल्पित नाम जया है जिसे वह चिट्ठियों में प्रेम प्रदर्शित करने और अपने कार्योँ का ब्योरा देने के लिए लिखता रहता है। जबकि जया की ओर से जो लिखा गया वह बहुत कम है लेकिन महत्वपूर्ण है। उसका प्रेम सिर्फ समर्पण है। प्रेम की पीड़ा, हर्ष, अपनापन, उदासी आदि भावनाएंँ हृदय में आत्मसात करती हैं जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। प्रेम की प्राप्ति होने पर प्रिय के साथ दूरियांँ समाप्त हो जाती हैं। प्रेम से उम्र की संख्या भी कोई मायने नहीं रखती। प्रेम से हर दूरी घट जाती है। जया संजय मय हो जाती है। उसकी घुटन ऊब पीड़ा और पराजय का बोध भी ऊपर उठ कर ममता स्नेहिल भावों से परिपूर्ण हो जाता है। संजय कितनी ही विपरित स्थितियों से गुजरा लेकिन प्रिय जया के साथ उसमें नवीन उत्साह और आत्मविश्वास का संचार ही भरा रहा । यही मनुष्य को पौरूष प्रदान करता है और हर प्रकार की बाधाओं से जूझने की शक्ति देता है।
जीवन के अंतिम पड़ाव पर आकर भी जया की प्रेम बारिश संजय को प्रेमासिक्त करती रही। घनघोर बारिश के पानी ने संजय के आँसुओं धो डाला और नाती- पोतों से भरा- पूरा एक परिवार छोड़ जाती है जो दोनों के प्रेम की निशानियाँ हैं। जीवन और मृत्यु मानव जीवन के चरम सत्य है परंतु उनके बीच का फासला नियती नहीं स्वयं प्रिय का है, प्रेम यही आत्मविश्वास जगाता है। उमड़ते घुमड़ते इस बारिश में भी संजय को काले बादलों के बीच चमकती हुई बिजली की रोशनी में अपने बच्चों का हँसता मुस्कुराता चेहरा नजर आता है जो उसके बचे खुचे जीवन को आश्वस्त करता नजर आता है। संजय जया के प्रेम की कसक लिए सकारात्मक होने का निश्चय करता है जबकि वह सबके साथ रहते हुए भी अकेला ही है।
लेखिका भगवंती सिंह का यह प्रथम उपन्यास है जो उनके जीवन के सत्तर दशक का परिणाम है। हिंदी साहित्यकार और कबीर मर्मज्ञ पति डॉ शुकदेव सिंह के गुजर जाने के बाद वे उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने में लगी हैं। उनका लिखा कथा साहित्य यथार्थ जीवन का चित्र है। उन्होंने जीवन के बहुमूल्य अनुभवों को बहुत ही सहज बहते हुए झरने की तरह एक एक शब्द मोतियों को पिरोया है। इस उपन्यास में ऐसा लगता है कि मानो लेखिका के निजी जीवन की कहानियों की लड़ियों का गुच्छा पत्रों के माध्यम से धीरे-धीरे खुल रहा हो।
भाषा शैली बहुत ही सहज, सरल और चरित्र के अनुरूप है। बिना किसी अनावश्यक प्रयास के स्वतः स्फूर्त शब्दों ने उपन्यास का रूप ले लिया। कई घटनाओं का विन्यास और उनकी कथा तारतम्यता में प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी और माँ- पिता सभी के किरदार अपनी-अपनी सामाजिक मर्यादा और उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं। कहीं-कहीं उपन्यास की कसावट में आई खामियाँ खटकती हैं जो मूक ढंग से व्यक्त हो जाती हैं। विदेश जाने के दौरान लिखे पत्र कभी-कभी औपचारिकता निभाते हुए भी लगते हैं।
समाज के झूठे दंभ को बेनकाब करने वाला यह उपन्यास अपने परिवार, बड़े कहलाने वाले तथाकथित दादा, अहंकारी लोगों की कलई खोलने वाला है। दो प्रेम करने वालों को एक नहीं होने देने के लिए कई दलीलें देता यह समाज अपनी दकियानूसी सडे़ गले विचारों में जीने वाले समय के साथ किस तरह धराशायी और अवसरवादी हो जाते हैं यह भी इस पूरे उपन्यास की पर्तें खोलते पत्र महत्वपूर्ण संदेश देते हैं। एक अकेला व्यक्ति समाज की खोखली दिवारों से कब तक सिर फोड़ता रहेगा। संजय का लिखना ‘जिन्हें शीशा समझकर हम टकरा गए वे पत्थर निकले। हमने सोचा था कुछ शीशा टूटेगा, सब कुछ हम जोड़ने की कोशिश करेंगे फिर जिंदगी सामने होगी। लेकिन हम टूट गए। पत्थर तो पत्थर ठहरा। – – – जो इतने भयानक और कठोर हैं अपने हों या पराये उनके प्रति कैसी श्रद्धा? कैसी ममता? पृ69।
लेखिका ने पुरुष की संवेदनशीलता को समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा है जो समाज के मूल्यों, आचार विचार को एक नये एंगल से देखने का आईना प्रदान करता है। प्रेम का सूत्र अंत तक अपने दामन से जुड़ा रहता है।
बहुत कुछ छूट गया है। कुछ समझने का प्रयास किया है। अभी तो “अंत में बारिश” की गहराई में छिपी बहुत सी कहानियां हैं जिन्हें उजागर करना है।

शुभजिता

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