भारत कई कलाओं की जन्मभूमि रहा है मगर नयी सोच हर चीज को पश्चिम से आयातित बताने में विश्वास रखती है। हम पश्चिम को बुरा नहीं कहते मगर ये नहीं मान सकते कि हमारे देश में कभी कुछ था ही नहीं। इतिहास और परम्परा से प्रेरित हम तभी होंगे जब हमें उसकी जानकारी होगी। अपराजिता का प्रयास ऐसी ही परम्पराओं और कलाओं की जानकारी आप तक पहुँचाने का है और इस सन्दर्भ में हम संगीत, नृत्य, चित्र समेत कई अन्य कलाओं से गुजरेंगे। जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि हमारे सपने असीम हैं मगर स्त्रोत और संसाधन सीमित…इसलिए हम जो भी लाएंगे…किसी लेख पर आधारित होगा जिसे हम साभार सम्बन्धित स्त्रोत और लेखक के नाम के साथ ही देंगे जिससे आप मूल स्त्रोत तक पहुँच सकें क्योंकि मूल उद्देश्य तो जानना ही है। इस कड़ी में जानिए भारतीय संगीत के बारे में –
प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों – रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है।
भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है।
भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। भारतीय संगीत की उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से मानी जाती है। रुद्र वीणा आज भी भारतीय संगीत में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। दिल्ली के सँग्रहालय में रावण की रुद्र वीणा बजाती प्रतिमा आप देख सकते हैं। यहाँ रुद्र का अर्थ शिव से है और रावण शिव भक्त थे, ये सब जानते हैं।
ऋषि नारद और देवी सरस्वती के हाथों वीणा विराजमान है। कृष्ण सिर्फ वंशी ही नहीं बजाते थे बल्कि पांचजन्य शंख भी उनके पास था। अज्ञातवास के दौरान अर्जुन ने उत्तरा को नृत्य और संगीत की शिक्षा वृहन्नला रूप में दी थी। जो लोग संगीत को मुगलों से जोड़ते हैं कि उनको याद रखना चाहिए कि अमीर खुसरो अरब से नहीं आये थे बल्कि उनका जन्म इसी भारत की धरती पर हुआ था तो यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने जो सितार बनाया, उसकी प्रेरणा कहीं न कहीं वीणा रही होगी।
वैदिक युग में ‘संगीत’ समाज में स्थान बना चुका था। सबसे प्राचीन ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में आर्यो के आमोद-प्रमोद का मुख्य साधन संगीत को बताया गया है। अनेक वाद्यों का आविष्कार भी ऋग्वेद के समय में बताया जाता है। ‘यजुर्वेद’ में संगीत को अनेक लोगों की आजीविका का साधन बताया गया, फिर गान प्रधान वेद ‘सामवेद’ आया, जिसे संगीत का मूल ग्रन्थ माना गया। ‘सामवेद’ में उच्चारण की दृष्टि से तीन और संगीत की दृष्टि से सात प्राकार के स्वरों का उल्लेख है। ‘सामवेद’ का गान (सामगान) मेसोपोटामिया, फैल्डिया, अक्कड़, सुमेर, बवेरु, असुर, सुर, यरुशलम, ईरान, अरब, फिनिशिया व मिस्र के धार्मिक संगीत से पर्याप्त मात्रा में मिलता-जुलता था।
उत्तर वैदिक काल के ‘रामायण’ ग्रन्थ में भेरी, दुंदभि, वीणा, मृदंग व घड़ा आदि वाद्य यंत्रों व भँवरों के गान का वर्णन मिलता है, तो ‘महाभारत’ में कृष्ण की बाँसुरी के जादुई प्रभाव से सभी प्रभावित होते हैं। अज्ञातवास के दौरान अर्जुन ने उत्तरा को संगीत-नृत्य सिखाने हेतु बृहन्नला का रूप धारण किया। पौराणिक काल के ‘तैत्तिरीय उपनिषद’, ‘ऐतरेय उपनिषद’, ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अलावा ‘याज्ञवल्क्य-रत्न प्रदीपिका’, ‘प्रतिभाष्यप्रदीप’ और ‘नारदीय शिक्षा’ जैसे ग्रन्थों से भी हमें उस समय के संगीत का परिचय मिलता है। चौथी शताब्दी में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ के छ: अध्यायों में संगीत पर ही चर्चा की। इनमें विभिन्न वाद्यों का वर्णन, उनकी उत्पत्ति, उन्हें बजाने के तरीकों, स्वर, छन्द, लय व विभिन्न कालों के बारे में विस्तार से लिखा गया है। इस ग्रन्थ में भरत मुनि ने गायकों और वादकों के गुणों और दोषों पर भी खुलकर लिखा है। बाद में छ: राग ‘भैरव’, ‘हिंडोल’, ‘कैशिक’, ‘दीपक’, ‘श्रीराग’ और ‘मेध’ प्रचार में आये।
पाँचवीं शताब्दी के आसपास मतंग मुनि द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘वृहददेशी’ से पता चलता है कि उस समय तक लोग रागों के बारे में जानने लगे थे। लोगों द्वारा गाये-बजाये जाने वाले रागों को मतंग मुनि ने देशी राग कहा और देशी रागों के नियमों को समझाने हेतु ‘वृहद्देशी’ ग्रन्थ की रचना की। मतंग ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अच्छी तरह से सोच-विचार कर पाया कि चार या पाँच स्वरों से कम में राग बन ही नहीं सकता। पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ में भी अनेक वाद्यों जैसे मृदंग, झर्झर, हुड़क तथा गायकों व नर्तकों सम्बन्धी कई बातों का उल्लेख है। सातवीं–आठवीं शताब्दी में ‘नारदीय शिक्षा’ और ‘संगीत मकरंद’ की रचना हुई। ‘संगीत मकरंद’ में राग में लगने वाले स्वरों के अनुसार उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँटा गया है और रागों को गाने-बजाने के समय पर भी गम्भीरता से सोचा गया है।
ग्यारहवीं शताब्दी में मुसलमान अपने साथ फारस का संगीत लाए। उनकी और हमारी संगीत पद्धतियों के मेल से भारतीय संगीत में काफी बदलाव आया। उस दौर के राजा-महाराजा भी संगीत-कला के प्रेमी थे और दूसरे संगीतज्ञों को आश्रय देकर उनकी कला को निखारने-सँवारने में मदद करते थे। बादशाह अकबर के दरबार में 36 संगीतज्ञ थे। उसी दौर के तानसेन, बैजूबावरा, रामदास व तानरंग खाँ के नाम आज भी चर्चित हैं। जहाँगीर के दरबार में खुर्रमदाद, मक्खू, छत्तर खाँ व विलास खाँ नामक संगीतज्ञ थे। कहा जाता है कि शाहजहाँ तो खुद भी अच्छा गाते थे और गायकों को सोने-चाँदी के सिक्कों से तौलवाकर ईनाम दिया करते थे। मुगलवंश के एक और बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले का नाम तो कई पुराने गीतों में आज भी मिलता है। ग्वालियर के राजा मानसिंह भी संगीत प्रेमी थे। उनके समय में ही संगीत की खास शैली ‘ध्रुपद’ का विकास हुआ। 12वीं शताब्दी में संगीतज्ञ जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा, इसे सकारण ‘अष्टपदी’ भी कहा जाता है। तेरहवीं शताब्दी में पण्डित शार्ंगदेव ने ‘संगीतरत्नाकर’ की रचना की।
इस ग्रन्थ में अपने दौर के प्रचलित संगीत और भरत व मतंग के समय के संगीत का गहन अध्ययन मिलता है। सात अध्यायों में रचे होने के कारण इस उपयोगी ग्रन्थ को ‘सप्ताध्यायी’ भी कहा जाता है। शारंगदेव द्वारा रचित ‘संगीत रत्नाकर’ के अतिरिक्त चौदहवीं शताब्दी में विद्यारण्य द्वारा ‘संगीत सार’, पन्द्रहवीं शताब्दी में लोचन कवि द्वारा ‘राग तरंगिणी’, सोलहवीं शताब्दी में पुण्डरीक विट्ठल द्वारा ‘सद्रागचंद्रोदय’, रामामात्य द्वारा ‘स्वरमेल कलानिधि’, सत्रहवीं शताब्दी में हृदयनारायण देव द्वारा ‘हृदय प्रकाश’ व ‘हृदय कौतुकम्’, व्यंकटमखी द्वारा ‘चतुर्दंर्डिप्रकाशिका’, अहोबल द्वारा‘संगीत पारिजात’, दामोदर पण्डित द्वारा ‘संगीत दर्पण,’ भावभट्ट द्वारा ‘अनूप विलास’ व ‘अनूप संगीत रत्नाकार’, सोमनाथ द्वारा ‘अष्टोत्तरशतताल लक्षणाम’ और अठारहवीं शताब्दी में श्रीनिवास पण्डित द्वारा ‘राग तत्व विबोधः’, तुलजेन्द्र भोंसले द्वारा ‘संगीत सारामृतम्’ व ‘राग लक्षमण्’ ग्रन्थों की रचना हुई। स्वामी हरिदास, विट्ठल, कृष्णदास, त्यागराज, मुथ्थुस्वामी दीक्षितर और श्यामा शास्त्री जैसे अनेक संत कवि–संगीतज्ञों ने भी उत्तर आदि दक्षिण भारत के संगीत को अनगिनत रचनाएँ दीं। कहा जा सकता है कि भारतीय संगीत शताब्दियों के प्रयास व प्रयोग का परिणाम है।
वैदिक काल का संगीत – भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद के काल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था – इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम ४००० वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख इत्यादि का उल्लेख है। यजुर्वेद में ३०वें कांड के १९वें और २०वें मंत्र में कई [वाद्य]] बजानेवालों का उल्लेख है जिससे प्रतीत होता है कि उस समय तक कई प्रकार के वाद्यवादन का व्यवसाय हो चला था। संसार भर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता है। उस समय “स्वर” को “यम” कहते थे। साम का संगीत से इतना घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। छांदोग्योपनिषद् में यह बात प्रश्नोत्तर के रूप में स्पष्ट की गई है। “का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच” (छा. उ. 1. 8. 4)। (प्रश्न “साम की गति क्या है?” उत्तर “स्वर”। साम का “स्व” अपनापन “स्वर” है। “तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्” (बृ. उ. 1. 3. 25) अर्थात् जो साम के स्वर को जानता है उसे “स्व” प्राप्त होता है। साम का “स्व” स्वर ही है।
वैदिक काल में तीन स्वरों का गान ‘सामिक’ कहलाता था। “सामिक” शब्द से ही जान पड़ता है कि पहले “साम” तीन स्वरों से ही गाया जाता था। ये स्वर “ग रे स” थे। धीरे-धीरे गान चार, पाँच, छह और सात स्वरों के होने लगे। छह और सात स्वरों के तो बहुत ही कम साम मिलते हैं। अधिक “साम” तीन से पाँच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के यमों (स्वरों) की जो संज्ञाएँ हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। जैसा हम कह चुके हैं, सामगायकों को स्पष्ट रूप से पहले “ग रे स” इन तीन यमों (स्वरों) की प्राप्ति हुई। इनका नाम हुआ – प्रथम, द्वितीय, तृतीय। ये सब अवरोही क्रम में थे। इनके अनंतर नि की प्राप्ति हुई जिसका नाम चतुर्थ हुआ। अधिकतर साम इन्हीं चार स्वरों के मिलते हैं। इन चारों स्वरों के नाम संख्यात्मक शब्दों में है। इनके अनंतर जो स्वर मिले उनके नाम वर्णनात्मक शब्दों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। इससे इस कल्पना की पुष्टि होती है कि इनकी प्राप्ति बाद में हुई। “गांधार” से एक ऊँचे स्वर “मध्यम” की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम “क्रुष्ट” (जोर से उच्चारित) पड़ा। निषाद से एक नीचे का स्वर जब प्राप्त हुआ तो उसका नाम “मंद” (गंभीर) पड़ा। जब इससे भी नीचे के एक और स्वर को प्राप्ति हुई तो उसका नाम पड़ा “अतिस्वार अथवा अतिस्वार्य”। इसका अर्थ है स्वरण (ध्वनन) करने की अंतिम सीमा।
संभाव्य स्वरों के नियत क्रम का जो समूह है वह संगीत में “साम” कहलाता है। यूरोपीय संगीत में इसे “स्केल” कहते हैं। हम देख सकते हैं कि धीरे-धीरे विकसित होकर साम का पूर्ण ग्राम इस प्रकार बना-
क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, मंद्र, अतिस्वार्थ
यह हम पहले ही कह चुके हैं कि साम का ग्राम अवरोही क्रम का था। नीचे हम सामग्रम और उनको आधुनिक संज्ञाओं को एक सारणी में देते हैं :साम आधुनिक
क्रुष्ट मध्यम (म)
प्रथम गांधार (ग)
द्वितीय ऋषभ (रे)
तृतीय षड्ज (स)
चतुर्थ निषाद (नि)
मंद्र घैवत (ध)
अतिस्वार्य पंचम (प)
सामगान के प्राय: सात भाग होते हैं – हुंकार अथवा हिंकार, प्रस्ताव, आदि उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन। इसके मुख्य गायक को उद्गाता कहते हैं। उद्गाता के दो सहायक गायक होते हैं जिनको प्रस्तोता और प्रतिहर्ता कहते हैं। गान एक हिंकार अथवा हुंकार से प्रारंभ होता है जिसका उच्चार उद्गाता, प्रस्तोता और प्रतिहर्ता एक साथ करते हैं। उसके मुख्य भाग को उद्गाथ कहते हैं। इसे उद्गाता गाता है। इसके अनंतर एक भाग होता है जिसे प्रतिहार कहते हैं। इसे प्रतिहर्ता गाता है। इसके अनंतर जो भाग आता है उसे उपद्रव कहते हैं। इसे उद्गाता गाता है। निधन या अंतिम भाग को उद्गाता, प्रस्तोता और प्रतिहर्ता तीनों एक साथ मिलकर आते हैं। अंत में सब एक साथ मिलकर प्रणव अर्थात् ओंकार का सस्वर उच्चारण करते हैं।
सामगान की स्वरलिपि – सामगान की अपनी विशिष्ट स्वरलिपि (नोटेशन) है। लोगों में एक भ्रांत धारणा है कि भारतीय संगीत में स्वरलिपि नहीं थी और यह यूरोपीय संगीत का परिदान है। सभी वेदों के सस्वर पाठ के लिए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के विशिष्ट चिह्र हैं किंतु सामवेद के गान के लिए ऋषियों ने एक पूरी स्वरलिपि तैयार कर ली थी। संसार भर में यह सबसे पुरानी स्वरलिपि तैयार कर ली थी। संसार भर में यह सबमें पुरानी स्वरलिपि है। सुमेर के गान की भी कुछ स्वरलिपि यत्रतत्र खुदी हुई मिलती है। किंतु उसका कोई साहित्य नहीं मिलता। अत: उसके विषय में विशिष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु साम के सारे मंत्र स्वरलिपि में लिखे मिलते हैं, इसलिए वे आज भी उसी रूप में गाए जा सकते हैं।
महाकाव्य काल में संगीत
वाल्मीकि रामायण में भेरी, दुंदुभि, मृदंग, पटह, घट, पणव, डिंडिम, आडंवर, वीणा इत्यादि वाद्यों और जातिगायन का उल्लेख मिलता है। जाति, राग का आदिरूप है। महाभारत में सप्त स्वरों और गांधार ग्राम का उल्लेख आता है। महाजनक जातक (लगभग 200 ई. पू.) में चार परम महाशब्दों का उल्लेख है। इन्हें राजा उपाधि रूप में विद्वान् को प्रदान करता था। पुरनानूरू और पत्तुपाटटु (100-200 ई.) नामक तमिल ग्रंथों में अवनद्ध (चमड़े से मढ़े हुए) वाद्यों का बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे वाद्य का विशिष्ट स्थान होता था जिसे “मुरसुकट्टिल” कहते थे। तमिल के परिपादल (100-200 ई.) ग्रंथ में स्वरों और सात पालइ का उल्लेख है। “पालइ” मूर्छना से मिलता है। उसमें “याल” नामक तंत्री वाद्य का भी उल्लेख है। “याल” के एक प्रकार में एक सहस्र तक तार होते थे। दक्षिण के एक बौद्ध नाटक सिलप्पडिगारन् (300 ई.) में भी कुछ संगीतविषयक बातों का समावेश है। इसमें वीणा, याल, बाँसुरी, पटह इत्यादि वाद्यों का जिक्र है। उस समय के प्रचलित रागों का भी इसमें उल्लेख है। उसी समय के “तिवाकरम्” नामक एक जैन कोश में भी संगीत के विषय में कुछ जानकारी दी गई है। इसमें संपूर्ण षाडव और ओडव रागों का उल्लेख तथा है तथा श्रुतियों और सात स्वरों का भी वर्णन है। कालिदास के नाटकों में संगीत की चर्चा इतस्तत: आई है। मालविकाग्निमित्र में तो संगीत में दो शिष्यों की पूरी प्रतियोगिता ही दिखलाई गई है।
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र
भारतीय संगीत का जो सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है वह है भरत का नाट्यशास्त्र। भरत के काल के विषय में विवाद है। यह एक संग्रह ग्रंथ है। इसलिए इसके काल का निर्णय करना और कठिन हो गया है। विद्वान् लाग इसका काल लगभग ई. पू. 500 से 400 ई. तक मानते हैं। नाट्यशास्त्र में श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्छना, जाति और ताल का विशद विवेचन किया गया है। भरत ने श्रुतियों का विचार स्वर की स्थापना के लिए किया है। उन्होंने 4 श्रुतियों के अंतराल पर षड्ज रखा है, उसके अनंतर 3 श्रुतियों के अंतराल पर ऋषभ, 2 श्रुतियों के अंतराल पर गांधार, 4 श्रुतियों के अंतराल पर मध्यम, फिर 4 श्रुतियों के अंतराल पर पंचम, 3 श्रुतियों के अंतराल पर धैवत और 2 श्रुतियों के अंतराल पर निपाद रखा है। इस प्रकार श्रुतियों की कुल संख्या 22 मानी है। भरत ने षड्जग्राम और मध्यमग्राम ऐसे दो ग्राम माने हैं। ऊपर जो श्रुतियों का अंतराल दिया है वह षड्ज ग्राम का है। यह ग्राम षड्ज से प्रारंभ होता है। इसलिए इसका षड्जग्राम नाम पड़ा। जो ग्राम मध्यम से प्रारंभ होता है उसका नाम है “मध्यम ग्राम”। मध्यम ग्राम में मध्यम चतु:श्रुति, पंचम त्रिश्रुति, धैवत चतुश्रुति, निषाद द्विश्रुति, षड्ज चतु:श्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, एवं गांधार द्विश्रुति होता है। गांधार ग्राम भरत को मान्य नहीं है।
मूर्छना का अर्थ है उभर या चमक। सात स्वरों के क्रमयुक्त प्रयोग की संज्ञा मूर्छना है (क्रमयुक्ता स्वरा: सप्त मूर्च्छनास्त्वभिसंज्ञिता: भरत, व.सं.अ. 28 पृ. 435)। भरत ने षड्ज और मध्यम दोनों ग्रामों में सात सात मूर्छनाएँ मानी हैं। मूर्छनाएँ “जाति” गान का आधार थीं। विशिष्ट स्वर विशेष प्रकार के सन्निवेश में “जाति” कहलाते थे। जिसमें ग्रह, अंश, तार, मंद्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और औडुवत्व के नियमों द्वारा स्वरसन्निवेश किया जाता था, वह “जाति” कहलाता था। जातिगान संगीत की बहुत विकसित अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था पर पहुँचा हुआ था। जाति ही राग की जननी है। भरत ने सात ग्रामराग भी गिनाए हैं और यह बतलाया है कि वे जाति से प्रादुर्भूत होते हैं।
नाट्यशास्त्र में चच्चत्पुट, चाचपुट अथवा चंचूपुट, षटपितापुत्र अथवा पंचपाणि, संपत्केष्टक, उद्बद्ध अथवा उद्घट तालों का उल्लेख है। ये क्रमश: 8, 6, 12, 12 और 6 मात्राओं के ताल थे।
भरत के अनन्तर
तमिलनाडु के कुडुमियमालइ स्थान में एक उत्कीर्ण लेख मिला है जो संभवत: 7वीं ई. शती का है। इसमें सात जातियों, सात स्वरों और कुछ श्रुतियों का तथा अंतर गांधार और काकलि निषाद का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में सातवीं शती तक संगीत की पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी और उसके मुख्य विषय उत्तर से दक्षिण तक प्रसिद्ध और ग्राह्य हो चुके थे।
कुछ लोग नारदीय शिक्षा को भी 7वीं शती के आसपास का ग्रंथ मानते हैं। इस ग्रंथ के देखने से तो यही पता चलता है कि यह भरत के नाट्यशास्त्र से अधिक प्राचीन है। इसमें श्रुति, स्वर, ग्राम का उल्लेख तो है ही, वैदिक संगीत और गात्रवीणा का भी विशद वर्णन है। नाट्यशास्त्र में वैदिक संगीत का वर्णन नहीं है।
भरत के अनंतर मतंग ने संगीत पर बहुत प्रकाश डाला है। उनका काल लगभग 850 ई. है। उनकी बृहद्देशी जाति और राग, गांधर्व और देशी संगीत के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उन्होंने “द्वादशस्वर मूर्च्छना” पद्धति चलाई, जिसका लगभग 200 वर्ष तक प्रभुत्व रहा। अभिनव गुप्त (लगभग 1000 ई.) ने अपने ग्रंथ अभिनव भारती में द्वादश स्वर मूर्छनावाद का खंडन किया है।
11वीं शती में मिथिला के राजा नान्यदेव ने “सरस्वती हृदयालंकार” ग्रंथ की रचना की। यह भरत के संगीत पर एक विस्तृत और सारगर्भ भाष्य है। इस ग्रंथ के अभी तक थोड़े से ही भाग मिले हैं।
पश्चिमी चालुक्यों के वंशज महाराज सोमेश्वर संगीत के प्रकांड विद्वान् थे। उन्होंने अपने “अभिलषितार्थ चिंतामणि” के चौथे प्रकरण में एक हजार एक सौ सोलह श्लोक संगीत पर लिखे हैं। भिन्न प्रकार के प्रबंधों का उदाहरण इस ग्रंथ की विशेषता है। इनक राज्यकाल 1127-1134 ई. है।
सोमेश्वर के पुत्र प्रतापचक्रवर्ती हुए जिनका दूसरा नाम जगदेकमल्ल था। इनका राज्यकाल 1134 से 1143 ई. तक रहा। इन्होंने “संगीत चूड़ामणि” नामक ग्रंथ की रचना की। यह बहुत प्रामाणिक ग्रंथ था। अब यह केवल खंडित रूप में मिलता है। बड़ोदा ओरिएंटल इंस्टिट्यूट ने इस खंडित ग्रंथ को 1958 में प्रकाशित किया है। इसमें स्वर, प्रबंध, ताल और राग के प्रकरण दिए हुए हैं। ताल का वर्णन इसमें बहुत विस्तृत है।
चालुक्यवंशीय सौराष्ट्रनरेश महाराज हरिपाल संगीत के प्रसिद्ध विद्वान् थे। इनका काल 1175 ई. है। इन्होंने “संगीत सुधाकर” नामक ग्रंथ की रचना की है जो अभी तक अप्रकाशित है। इसमें लगभग 70 रागों का वर्णन है। इसमें नृत्य, वाद्य और गीत तीनों का प्रतिपादन हुआ है।
सोमराज देव ने 1180 में “संगीतरत्नावली” की रचना की। इनका दूसरा नाम सोमभूपाल था। यह सम्राट् अजयपाल के वेत्रधर थे। इनके ग्रंथ में स्वर, ग्राम, प्रबंध, राग, ताल, सभी का विशद वर्णन है। इन्होंने एकतंत्री और आलापिनी वीणा के भी लक्षण दिए हैं।
12वीं शती ई. में जयदेव ने “गीतगोविंद” की रचना की। इनका जन्म बोलपुर के पास केंदुला ग्राम में हुआ था। जयदेव ने विभिन्न राग और तालों में प्रबंध लिखे हैं। उन्होंने मालव, गुर्जरी, वसंत, रामकरी, मालवगौड़, कर्णाट, देशाख्य, देशीवराडी, गोंडकरी, भैरवी, वराडी, विभास, इत्यादि रागों और रूपक, यति, एकताल, इत्यादि तालों का प्रयोग किया है। अपने प्रबंधों की उन्होंने स्वरलिपि नहीं दी है, अत: यह कहना कठिन है कि वह इन्हें किस प्रकार गाते थे। किंतु इतना स्पष्ट है कि 12वीं शती तक प्रबंध की गायनशैली ख्याति प्राप्त कर चुकी थी और कई राग और ताल लोकप्रिय हो गए थे।
पाल्कुरिकि सोमनाथ ने तेलगु में 1270 ई. में “पंडिताराध्यचरितम्” नामक एक ग्रंथ लिखा। इसमें लगभग 32 प्रकार की वीणाओं का उल्लेख है और मृंदग में समहस्त और वैशलम् इत्यादि की चर्चा है। इसके अतिरिक्त गमक, ठाय, नृत्य इत्यादि का भी इसमें विस्तृत वर्णन है।
भारतीय संगीत का “नाट्यशास्त्र” के अंनतर सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ शार्ंगदेव का “संगीतरत्नाकर” है। शार्ंगदेव के पूर्वज कश्मीर से आए थे और दक्षिण के यादववंश के देवगिरि के राजा के यहाँ नियुक्त हो गए। अत: शार्ंगदेव को उत्तर और दक्षिण दोनों की संगीतपद्धतियों के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने समस्त भारतीय संगीत का विस्तृत शास्त्र “संगीतरत्नाकर” में दिया है। इसमें श्रुति, स्वर, ग्राम, जाति, राग, प्रबंध, नृत्य, ताल सभी पर प्रकाश डाला गया है। इसमें संदेह नहीं कि यह भारतीय संगीत का आकर ग्रंथ है। इसकी रचना 13वीं शती में हुई थी।
शाकंभरि के राजा हम्मीर ने लगभग 1300 ई. में “श्रृंगारहार” की रचना की। इसमें भाषारागों और देशी रागों का वर्णन है। 120 ताल और एकतंत्री, नकुला, किन्नरी और आलापिनी इत्यादि वीणाओं की भी चर्चा है। जैन आचार्य पार्श्वदेव ने लगभग 1300 में “संगीत-समय-सार” की रचना की, जिसमें उस समय के संगीत का बहुत ही विशद वर्णन है।
(स्त्रोत – विकिपीडिया)
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