संवेदना के नम धरातल से जीवन की मरुभूमि को सिंचित करती हैं ज्ञान की देवी

जब हम रचते हैं, तब हम बचते हैं । भारत आस्था का देश है, विश्वास का देश है मगर इस विश्वास को अन्ध होने से बचाना भी उतना ही आवश्यक है। श्रद्धा जब अंधश्रद्धा बन जाती है तो विवेक खो जाता है और जब विवेक खो जाता है तो हम सही और गलत का अन्तर भी भूल जाते हैं । अपने जीवन में शक्ति की आवश्यकता है और समृद्धि की भी आवश्यकता है मगर इन दोनों का स्रोत सृजन है । सृजन का आधार ज्ञान है और ज्ञान की देवी हैं सरस्वती । वस्तुतः इस सृष्टि के संचालन का आधार ही ज्ञान, विवेक, बुद्धि है क्योंकि हमारे आस – पास जो कुछ भी है, वह विद्या के कारण ही है । शक्ति को आधार मानें, तब भी युद्ध कौशल एक विद्या ही है और समृद्धि को आधार मानें तो भी धनोपार्जन भी एक विद्या ही है । शक्ति और समृद्धि के बीच का सेतुबंधन है सृजन…आप कुछ रचेंगे…तभी बचेंगे और तभी बढ़ेंगे ।
आश्चर्य की बात है न कि विद्या की देवी सरस्वती को शिक्षा प्रांगणों में एक प्रदर्शन मात्र की वस्तु मानी जाने लगी हैं और शिक्षा प्रांगण शिक्षा का मंदिर न होकर राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं । राजनीति की काली छाया ने अपना कलुष युवा मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डाला है कि वे राजनीतिक दलों के क्रीत दास बनकर रह गये हैं। एक समय था जब गुरू और शिष्य के सम्बन्ध में एक अपनापन था, आदर और सम्मान की एक रेखा थी। गुरू तभी मित्रवत होते थे मगर विद्यार्थी और उनके बीच एक मर्यादा की सूक्ष्म ही सही रेखा रहती थी मगर आज स्थिति बदल गयी है । विद्यार्थी घेराव कर रहे हैं और गुरू मित्रता के नाम पर उनके साथ धूम्रपान को सेलिब्रेट कर समानता का कश लगा रहे हैं। आज दोनों को ही शिकायत है मगर शिक्षा के मंदिर को अपने स्वार्थ के रंग में रंगने वाले आज भी यही हैं । इन पंक्तियों को जब लिख रही हूँ तो राज्य में शिक्षक नियुक्ति घोटाले का ग्रहण फैल चुका है। सड़कों पर शिक्षक की नौकरी के लिए उम्मीदवार महीनों से धरनों पर बैठे हैं। शिक्षा प्रांगणों में बदस्तूर अयोग्य युवाओं को सिफारिश के बल पर नियुक्तियाँ देने का सिलसिला जारी है…जिसकी जितनी पहुँच है, उसका उतना पलड़ा भारी है..। अब आप ही बताइए …भला ऐसे वातावरण में माँ सरस्वती भला कैसे निवास करेंगी । विद्या की देवी पूजी तो घर -घर जाती हैं मगर उनसे सीखना और उनको आत्मसात करना कोई नहीं सीख पाता। विद्यार्थी भी तो परीक्षा के दौरान ही माता को इसलिए याद कर रहे हैं कि माता परीक्षा में पास करवा दें । मूर्तियों की पूजा करने वाले हम उनके चैतन्य को सम्मान देना नहीं जानते और चाहते भी नहीं हैं । आप बता दीजिए कि कृष्ण मंदिर, शिव मंदिर, राम मंदिर तो हर जगह मिल जाते हैं मगर सरस्वती मंदिर अपने आस – पास आपने कितने देखे हैं । मुझे याद है कि जब एक बार देवी सरस्वती के पोस्टर खरीदना चाहती थी तो दुकानदार ने कहा कि दीदी ऑफ सीजन सरस्वती के पावा जाए न….। यह ऑफ सीजन दूसरे – देवताओं के लिए नहीं होता…क्या ज्ञान के इस देश में हम वाकई ज्ञान का सम्मान करते हैं..क्या वाकई हम सीखना चाहते हैं….क्या सूखी हुई सरस्वती नदी को फिर से सरस सलिल से भरने की कोई उत्कंठा मन में है…क्या कोई तकनीक,…क्या विज्ञान की ऐसी कोई माया है जो इस सूखी नदी को वापस ला दे…।
दरअसल, यह संसार आराधना भी उसी की करता है जिससे या तो लाभ हो अथवा भय हो…आखिर क्यों यह मान लिया गया कि सरस्वती सिर्फ ब्राहाणों और शिक्षा प्रांगणों की शोभा बननी चाहिए…जबकि सरस्वती का अर्थ सिर्फ किताबें और डिग्री तो नहीं है…जीवन जीने की कला सिखाती है माता सरस्वती की आराधना..संवेदना के नम धरातल से जीवन की मरुभूमि को सिंचित करती हैं ज्ञान की देवी…। जीवन के कण -कण में…क्षण – क्षण में हमें सृजन की आवश्यकता है…ज्ञान, बुद्धि और विवेक की आवश्यकता है…उस साहस की आवश्यकता है जो आत्मबल से मिलता है और वह आत्मबल हमें माँ सरस्वती ही देती हैं । एक बात और यहाँ पर आराधना का अर्थ अपने सारे काम छोड़कर देवी प्रतिमा के सामने बैठे रहना नहीं है…अपना कर्म उत्कट भाव से करते जाना…अपने कर्त्तव्यों का शत – प्रतिशत निर्वहन करना….यही सच्ची श्रद्धा है…यही आराधना है…।
अगर आप गुरू हैं या तथाकथित प्रेरक वक्ता हैं…तब तो आपको अपने आचरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए मगर आज प्रेरणा के नाम पर कीचड़ उछालने की होड़ है..कई बार सोशल मीडिया पर अपने व्यूज बढ़ाने के लिए विवाद जन्म देने वाले गुरू भी दिख जाते हैं…मगर अपने वैचारिक संड़ाध को ज्ञान का नाम देने से बचना भी जरूरी है । वस्तुतः विद्या दान करना इतना आसान भी नहीं है…आपको साधना सिखाने के लिए पहले खुद को साधक बनाना पड़ता है, शिक्षक हैं तो अपने भीतर के विद्यार्थी को मरने मत दीजिए…सरस्वती के उपासक हैं तो पहले सरस्वती के चिंतन को समझिए…सृजन के  उत्स को समझिए…और जो सिखा रहे हैं…पहले अपने जीवन में उसे अपनाने का हौसला रखिए ।

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