संजय जायसवाल की दो कवितायें

संजय जायसवाल

बहुत थक गया ऐ दरख्त

इंतजार करते करते

अब तो सूरज भी छिपने लगा

तुमने तो कहा था

वे आएंगी

गीत गुनगुनाएंगी

क्यों नहीं आईं कोयल

क्यों नहीं आया कठफोड़वा

कम से कम गौरैया यह आ जाती

देखो निशा अपनी जादू बिखेरनी लगी अब

लौट रहे हैं निजाम के अब्बा भी बाजार से

दरख्त कुछ कहते क्यों नहीं

आंखें अब उतरना चाहती हैं

कब तक टंगी रहेंगी

तुम्हारे ऊपर

कान अब भी खड़े हैं सुनने को

दरख्त इतनी वीरानी क्यों

इतनी गहरी शून्यता

कब तक बोहते रहोगे उम्मीद को अपने जर्जर कंधों पर

सुनो तुम

नीड़ बना लो पहले

बिन ठौर कुछ नहीं टिकता

देखो दिन भी बीत गया

ठहर न सकी किरणें

सुनो मैं थक चुका हूं

गर वे आएं तो कहना

वह थका था और चुका था

समय के सागर में वह वृथा था।

 

2.

प्रेम रोज दबे पांव

आता है मेरी कविता में

शब्द हरसिंगार के फूल बन झरते हैं

शिशु बन किलकते हैं तुम्हारी गोद में

रोज दबे पांव आया प्रेम

निडर हो जाता है तुमको पा

भूल जाता है कि प्रेम बचाकर सबकी नजर

दाखिल हुआ है

प्रेम रोज नए नए सवालों के साथ आता है

और तुम उन सवालों की कुंजी बन जाती हो

प्रेम रोज आने से पहले

ले आता है थोड़ी हवा

थोड़ी धूप

थोड़ी सुगबुगाहट

और ले आता है मंदिर की घंटी की ध्वनि

जिसमें बजते हैं  खेत में जुताई कर रहे बैलों के खुर की धाप

चिड़ियों की चहचहाहट

भिखारियों की याचना

कितना कुछ प्रेम समेटे रहता है दाखिल होने से पहले

और सबसे आखिर में प्रेम

आशंका और उम्मीद के साथ दाखिल हो जाता है

इस तरह  रोज

दबे पांव प्रेम आता है मेरी कविता में

शुभजिता

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