मैं जयशंकर प्रसाद पर पीएचडी करना चाहता था मगर मेरे मन का विषय नहीं मिल पाया मेरे गुरू के कहने पर मुझे विषय बदलना पड़ा। आखिर प्रेमचंद पर शोध किया और मुझे 8 साल लगे। मेरा मानना है कि शोध का विषय चुनने की स्वतंत्रता विद्यार्थियों को मिलनी चाहिए। वह जिस बारे में जिज्ञासा महसूस करे…जिसको लेकर उसके मन में सवाल उठें…उसी पर काम करने की स्वतंत्रता उसे मिलनी चाहिए। 9 पुस्तकें पढ़कर 10वीं पुस्तक लिखने में कौन सा नयापन है?
1962 में जब प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय ने प्रेमचंद की 9 पुस्तकें प्रकाशित कीं और इन 9 पुस्तकों को देखकर लोगों ने समझ लिया कि प्रेमचंद पर जितना काम होना था, हो गया और अब उस पर कुछ नहीं हो सकता। पीएचडी करते हुए भी ऐसी प्रवृति हुई कि अब इस विषय पर कुछ नहीं हो सकता।
1980 में प्रेमचंद विश्व कोश की परिकल्पना की, 100 साल पूरे हुए थे उनकी जयंती के। राष्ट्रीय स्तर पर कमेटी बनी। जैनेन्द्र कुमार अध्यक्ष थे और मैं महामंत्री था। दो खंडों में प्रकाशित प्रेमचंद विश्व कोश में ताराख के अनुसार जीवनी लिखी गयी। उसमें बहुत से तथ्य थे और दस्तावेज के साथ थे….ऐसे तथ्य सामने आये जिससे प्रेमचंद की आदर्श छवि को धक्का पहुँचने वाला था।
पूरे साहित्य जगत में हलचल मच गयी और मैंने वामपंथी लेखकों का विरोध भी झेला। नयी जानकारी के अनुसार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी बेटी कमला देवी की शादी में 7 हजार रुपये दहेज में दिये थे और यह बात खुद उनकी बेटी ने बतायी थी। विवाह 1929 में हुआ था। प्रेमचंद और उनके समधी के बीच हुई बातचीत से संबंधित दस्तावेज भी मेरे पास थे इसलिए मैं अपनी बात पर दृढ़ रह सका। शोध में पक्ष और विपक्ष कुछ नहीं होता। जब हम इतिहास खोजते हैं तो कोई नया तथ्य सिर्फ इस वजह से नहीं छिपा सकते कि कि किसी बड़े व्यक्तित्व की आदर्श छवि खंडित होगी।
प्रेमचंद की 300 कहानियाँ हैं, हम उनमें से एक तिहाई भाग को ही जानते हैं। 299 कहानियों का संकलन नया मानसरोवर के नाम से 1988 में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया। किसी व्यक्तित्व अथवा विषय को जानने के लिए जीवन की आहुति देनी पड़ती है।
प्रेमचंद की 300 कहानियों में 3 हजार चरित्र हैं। वे अपने चरित्रों के माध्यम से मनुष्यता का संदेश देते हैं। उनका साहित्य मनुष्यता के भावों की व्याख्या करता है। उनके चरित्र मनुष्यता की रक्षा करते हैं और यह मनुष्यता कफन कहानी में भी दिखायी पड़ती है।
प्रेमचंद साम्यवाद अथवा वामपंथ का समर्थन करने के कारण महान नहीं हैं। 1928 में उन्होंने साम्यवाद को पूँजीवाद से भी ज्यादा भयानक बताया था। उनके पात्र समय का सत्य बताते हैं। प्रेमचंद सिर्फ ग्रामीण चिंतन के लेखक नहीं हैं। गोदान में वे, गाँव और शहर, दोनों को इक्कठा करते हैं। प्रेमचंद को समग्रता से पढ़े जाने की जरूरत है। साहित्य को जीवन बनाइए, जीवन को साहित्य। हिन्दी को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लाकर ही उसका विकास सम्भव है।
(कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला की श्रृंखला के तहत दिये व्याख्यान के कुछ अंश)