-कृतिऋचा सिंह
1.
भयो मन सरस, आयो बसंत
फाग भी मेरे दहकते रह गये,
रंगरेज जब से रूठा मेरा,
खुदरंग मेरे चुनर के हो गये,
म्लान विरह के नयन नीर से ,,
बेसुर हो गये संगीत के सूर,,
क्षीण गये संगम के साध से ,
श्रृंगार गीत मेरे,
पूनम का चांद हो गये निस्तेज ,
जैसे काली विपदा अमावस की रात ,
टूटी मेरी हर सांस की आंस ,
पिया जबसे पकड़ें राह सिंन्धु पार ,,
लाऊं कहां से धीर पीर हुई सहचरी ,
मनमीत बनी मैं तबसे वियोगिनी,,
हो गयी हुं अधीर संताप की हुलस से ,,
तीक्ष्ण मेरे वियोग के विरह ,
भेद न पाये कोई अशस्र ,,
भुवंगन सा आसक्ति लेकर ,
लिपटा रहता जैसे मलयज का योग ।।
2.
फाग के रंग
तुम आओ प्रिय ,
तो रंग खेलूं,
मेरे ऊपर बस,
एक ही रंग चढ़ा,,
प्रियतम प्रेम को
अंग किया,,
जब -जब स्पर्श
प्रेम से हुआ
तन -मन से
पुलकित लाल
रोम-रोम हुआं,
जब निकटता लिए
कपोलों पर रखा
होंठ प्रिये ,
शर्म से सिमटती
केसरिया मेरी चुनर
की सलवटें हो गयी,
सतरंगी इन्द्रधनुष प्रिये,
आलिंगन कर मुझे
प्रेम से भर दिया,,
प्रसन्नता के *पीत रंग प्रिये,,
जीवन राह में हो
साथ हमारा हर्ष-विषाद में
जैसा अवनी का अम्बर से
श्वेत -नील का प्रकाश प्रिये,,
हर्षित हो जाऊं मैं
सोच तेरी सादगी श्वेत के सार प्रिये,
सब है अब स्वीकार प्रिये,
बस संग तेरे चलने का आस प्रिये,
कैसे सोच लिया तुम बीन होगा ,,
मेरा त्योहार प्रिये,
तुम्हीं तो मेरे बेरंग दुनिया का
हो गुलाल प्रिये।।
*पीत(पीला)