शिक्षा और भाषा को पेशेवर धार देनी होगी, यह बहुत जरूरी है

जीवन की अलग – अलग परिभाषाएँ हैं और हर परिभाषा का अपना सत्य है..मगर अन्तत: हर सत्य एक ही निष्कर्ष पर पहुँचता है..ज्ञान और खुशियों को जहाँ तक बाँटा जा सके, बाँटना चाहिए। ज्ञान तो शिक्षक बाँटते हैं मगर खुशियाँ बाँटना तो हमारे हाथ में है। आज शिक्षा के व्यवसायीकरण पर आपत्ति बहुत की जाती है मगर देखा जाए तो एक विषमता हमारे चारों ओर भरी पड़ी है। जहाँ तक हमारा प्रश्न है, हमारा मानना है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण में बुराई नहीं बल्कि बुराई उसे धंधा बना देने में है। शिक्षक का महत्व और उसकी गरिमा का होना बहुत आवश्यक है मगर सोचने वाली बात यह है कि जब पेट भूखा होगा और घर में तंगी रहेगी तो शिक्षक भी मन से कैसे पढ़ाएगा। हम यही बात हिन्दी साहित्य के लिए भी कह सकते हैं और हमारे पूरे समाज में ठहराव का जो दौर है, जो काई जमी पड़ी है..उसका कोई कारण है तो वह यही है कि हमने साहित्य और शिक्षा के बाजारीकरण पर विरोध तो जताया पर उसे संरचनागत दृष्टि से सक्षम नहीं बना सके। आप भले ही बाजार के नाम से चिढ़ते हों मगर बाजार के बगैर दोनों का टिकना नामुमकिन है क्योंकि किताबें लिखने के लिए पढ़ाने के लिए श्रम की जरूरत पड़ती है, शोध की जरूरत पड़ती है. यह एक मेहनत वाला काम है। शिक्षक को तो फिर भी वेतन मिलता है, लेखक को वह भी नहीं मिलता। साहित्यिक सेवाओं के बाजार पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया क्योंकि रुपये हम खर्च नहीं करना चाहते…नतीजा यह है कि गुणवत्ता सिरे से गायब हो रही है और लगातार मंच, हिन्दी और साहित्य, तीनों की गरिमा गिरती जा रही है। आपको सचमुच इन तीनों चीजों से लगाव है तो आपको मुफ्तखोरी छोड़नी होगी..खर्च कीजिए…पेशेवर बनिए…वैसे ही जैसे अँग्रेजी है, बांग्ला व अन्य भाषाएँ हैं…। हिन्दी व भारतीय भाषाओं को पेशेवर और धारधार युवा अन्दाज देने का नाम ही है शुभ सृजन..जिसकी विस्तृत जानकारी आपको वेबपत्रिका में ही मिल जाएगी..बहरहाल गणेश चतुर्थी, शिक्षक दिवस और हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ…रचते रहिए..।

शुभजिता

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