
आज़ादी के 78 वर्ष में हम प्रवेश कर गए हैं । यूँ ही समाचार के ऐप पर ऊँगली फेरते हुए एक समाचार पर नज़र गई । 13 अगस्त 2025 के दिन प्रभात खबर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, नन्दन फिल्म हॉल, कोलकाता में एक कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पूरे बंगाल के सभी फिल्म हॉल में बांग्ला फिल्म दिखाना अनिवार्य कर दिया है । यह निर्णय बांग्ला फिल्म के लिए है तो, अच्छी बात है । परंतु यदि बांग्ला भाषा के लिए है तो सोचने वाली बात है । 10 वर्ष से जिस राज्य ने विद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती न की हो । जिस राज्य के बच्चे बिना शिक्षक के पढ़ रहे हों । जो शिक्षक थे उन्हें भी बेरोज़गार कर दिया गया हो । उस राज्य की भाषा बचाने का काम फिल्म उद्योग ही करेगी । मुख्यमंत्री को भी पता है कि बिना शिक्षक के बच्चे रास्ते में समोसा, पकौड़ी और मूढ़ी बेचकर फिल्म देखने ही जाएँगे । और भाषा बच जाएगी । रोज़गार तो ऐसे ही बनते हैं ।
जिस राज्य ने नवजागरण की मिसालें दीं हो । वह राज्य ही अपनी संस्कृति और शिक्षा नष्ट कर रहा है । किसी भी शिक्षक की बहाली किसी भी संस्थान, विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में हो उसकी रिपोर्ट और मेरिट सार्वजनिक कर दी जाए तो धांधली की संभावना कम हो जाती है । पर बंगाल की सरकार को अपने ही राज्य की परीक्षा कराने और नौकरी की बहाली निकालने के लिए समय नहीं है । पश्चिम बंगाल का ‘स्कूल सर्विस कमीशन’ हो या ‘कॉलेज सर्विस कमीशन’ न तो बहाली के बाद मेरिट साझा करता है और न ऐसी सूचना देता है कि चयनित अभ्यर्थी का मेरिट और चयन का आधार क्या रहा है या कितने नंबर से अभ्यर्थी पिछड़ा है । बंगाल में अंतिम बार 2016 में विद्यालयों में शिक्षक भर्ती हुई थी । इसमें बंगाल सरकार के शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी के भ्रष्टाचार और रिश्वत के कारण नौ वर्षों के बाद उच्च न्यायालय एवं उच्चतम् न्यायालय ने रद्द कर दिया । 2020 में ‘कॉलेज सर्विस कमीशन’ द्वारा सहायक प्राध्यापक की नियुक्ति के लिए आवेदन आया था । 2022 में उसका साक्षात्कार हुआ । जितने अभ्यर्थियों का चुनाव हुआ उनके मेरिट और योग्यता साझा नहीं हुई । केवल नाम की सूची आ गई । जो चयनित नहीं हुए उन्हें कभी नहीं पता चलेगा कि उनकी कमियाँ क्या थी ?
मैं तीन वर्षों से बिहार में हूँ । यह राज्य मेरे कार्य-क्षेत्र के अलावा कुछ नहीं लगता । मुझे बिहार की व्यवस्था और समाज की रुढ़िवादी नीति से काफी शिकायत है । यहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर कई वर्षों से सरकार ने ध्यान नहीं दिया है । इसके साथ ही बाढ़ इसकी व्यवस्था और रसातल में डाल देती है । परंतु इन तीन वर्षों में चुनाव के ही कारण शिक्षक भर्ती की प्रक्रिया आरंभ हुई । सरकार को भी लगा कि चुनाव में वोट के लिए यह ज़रूरी है । यहाँ की शिक्षक भर्ती और विश्वविद्यालय की बहाली में जिस तरह से हर अभ्यर्थी का नाम और मेरिट सार्वजनिक किया जाता है, वह उम्मीद देती है कि मेरिट का महत्त्व है । अभी बीते दो-तीन वर्षों से ढाई लाख शिक्षकों की बहाली हुई है, ये शिक्षक जिन छात्रों का निर्माण करेंगे निसंदेह वे उन छात्रों से ज़्यादा शिक्षित और आलोचनात्मक दृष्टि रखेंगे जिन्हें शिक्षक नहीं मिले थे । बिहार ने न केवल राज्य योग्यता परीक्षा कराया इनके साथ खाली पदों पर कई स्तर पर बहाली भी की । जिनका चुनाव नहीं उन्हें पता है कि कितने नंबर से वे रह गए । इसी प्रकार 2023 में बिहार विश्वविद्यालय में शिक्षक भर्ती की प्रक्रिया में मेरिट जारी की गई । मैं ऐसा नहीं कहती कि इसमें भ्रष्टाचार नहीं हुआ होगा । यह भ्रष्टाचार मेरिट में आए शिक्षकों द्वारा जगह के स्तर पर हो रही है न कि नौकरी के लिए । आजकल पटना गाँधी मैदान के पास कई अभ्यर्थी आंदोलन कर रहे हैं । यह आंदोलन टी.आर.ई. 04 परीक्षा करवाने के लिए हो रहा है । न कि नियुक्ति में धांधली के लिए ।
धीरे-धीरे बंगाल भी जंगल राज वाला बिहार होता जा रहा है । जिन बातों के लिए बंगाल में ‘बिहारी’ शब्द गाली की तरह प्रयुक्त होता था । बंगाल की राजनीति उन्हीं बातों को अपनाकर बंगाल की बनी बनाई व्यवस्था को बर्बाद कर रहा है । 2016 के बाद से कोई शिक्षक बहाली नहीं ङुई । जिनक नौकरी चली गई उस गलती को सुधारने के लिए सरकार 2025 में पुन: परीक्षा करवा रही है । यह परीक्षा नौ वर्षों से नियुक्त शिक्षकों का अपमान है । इनके साथ ही नौ वर्षों से जिन विद्यार्थियों ने एक भी शिक्षक भर्ती की प्रक्रिया नहीं देखी, वे दस नंबर का अनुभव प्रमाण कहाँ से लाएँगे? 100 नंबर की परीक्षा में 60 नम्बर लिखित, 20 नम्बर साक्षात्कार, 10 नम्बर मेरिट और 10 नम्बर अनुभव । इसका अर्थ है नए अभ्यर्थियों को ऐसे ही छाँट देना है । यह परीक्षा केवल उन शिक्षकों को भरने क लिए है जिनकी नौकरी गई है । कॉलेज में भी भर्ती की कोई सूचना नहीं आई है । पश्चिम बंगाल लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी 7-8 वर्षों से नहीं हुई है । एक व्यवस्थित और सुचारु ढंग से बंगाल सरकार नौकरी के लिए परीक्षा नहीं करवाती है ज़्यादातर भाई – भतीजावाद के भेंट या रिक्तता की भेंट चढ़ जाता है । कलकत्ता विश्वविद्यालय की वर्तमान कुलपति प्रो. शांता दत्ता का अट्ठाइस अगस्त के दिन विश्वविद्यालय की परीक्षा रद्द न करना । उम्मीद जताता है कि शिक्षा व्यवस्था में अभी भी क्रांति बची हुई है । स्त्री शिक्षा और सुरक्षा के लिए के लिए बंगाल का नाम रहा है । वह आज की राजनीति और भ्रष्ट व्यवस्था उतना ही बदनाम कर रही है । राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और स्वामी विवेकानंद की बनाई नवजागरण की विरासत को धीरे-धीरे बर्बाद करने का काम चल रहा है ।
बिहार में नीतिश हो या लालू जनता खुले आम आलोचना कर सकती है । पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की आलोचना को बंगाल की अस्मिता और भाषा से जोड़ कर देखा जाता है । बंगाल में आम जनता, बच्चों एवं स्त्रियों के साथ राजनीति भयावह रूप ले लेती है । चुनाव के दौरान पटाखों को कूड़े में डालकर आम जनता को शिकार बनाया जाता है । बंगाल सरकार भी शिक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए मानक कदम नहीं उठा रही है । महिलाओं की दशा तो दिन-प्रतिदिन बिगड़ रही है । जिस राज्य की महिला उदाहरण थी वह आज पीड़ित बन रही हैं ।
अतिथि शिक्षकों की हालत तो एक रोज़ के मज़दूरों से भी बदत्तर है । रोज का मज़दूर भी पाँच सौ रुपए लेता है परनंतु बंगाल के अतिथि शिक्षकों को एक कक्षा के लिए दो सौ-ढाई सौ रुपए दिये जाते हैं । मुफ्त का अनाज भी सभी को नहीं मिलता । जिन्हें मिल रहा है वे और किसी वस्तु की उम्मीद न करें । गाय के समान खूँटे से बँध कर खाए और चुप रहें । केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही न शिक्षा और न चिकित्सा पर ध्यान देती है । मोदी जी ने अयोध्या का मंदिर बनाया तो ममता जी ने पूरी के तर्ज पर दीघा में जगन्नाथ मंदिर । शिक्षा और चिकित्सा प्राथमिक होना चाहिए । दक्षिण के राज्यों में भी राजनीति है परन्तु वे शिक्षा और चिकित्सा को महत्त्व अधिक देते हैं । आज पूरा देश ही बेहतर इलाज के लिए दक्षिण भारत की ओर जा रहा है । हिन्दी की दशा तो थाली में पड़े बैंगन के समान हो गई है । मतलब कि केवल उपयोग में आ रही है परन्तु स्वीकृति नहीं मिल रही है । भाषा थोपने के मैं भी खिलाफ हूँ परन्तु वास्तविकता यह भी है कि हिन्दी से 60% से ज्यादा लोग और लगभग सभी राज्य समझते हैं परन्तु राजनीति की रोटी कभी ठंडी न पड़े इसलिए हिन्दी का प्रयोग कर हिन्दी के विरोध में प्रदर्शन करते हैं । कुछ बेचना है या मनोरंजन करना है तो हिन्दी याद आती है । इसके बाद सभी अपने भाषा के प्रति सजग हो जाते हैं । मुझे हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दिलाना है पर हम जिस भाषा से काम चलाते हैं उनके प्रति कृतज्ञता बोध तो होना ही चाहिए । इतने वर्षों के विरोध के बावजूद यह अपने आप जनसंपर्क की भाषा बनी है । परन्तु इसके प्रति दोहरी नीति मुझे नहीं समझ आती ।
दिव्या गुप्ता (DIBYA GUPTA)
शोधार्थी