शांत था गंगा का पानी

वसुन्धरा मिश्र

कलकल खल खल करती गंगा
आज शांति से बहती लगी
मन में हलचल मची
रोज मचलती लहरें बलखाती
नाव से अठखेलियाँ करती
पों पों की आवाज से लांच का चीरते हुए उस पार जाना
किनारे पर सर्कुलर ट्रेन का धड़ धड़ निकलना
हजारों की भीड़ की चिल्ल पों
गंगा आज चुपचाप लगी
गंगा सिर्फ़ धर्म की परिभाषा बनाई गई
जीवन की नैसर्गिक प्रकृति बन इंसानों की रक्षक बनी
किसी ने दरिया तो कहीं माँ बनी
सखी बन संस्कृति बनी
एक तट से दूसरे तट तक चुनरिया चढ़ न सकी
प्रेम और स्नेह में बंध न सकी
चांद की रोशनी में नहाई लहरों ने रास लीला रचाई
कभी लाल तो कभी सिंदूरी
बादलों के रंग में रंग जाती
विचित्रता से भरी शांत दिखी
बहुत खूबसूरत लगी खुश लगी
अंग अंग थिरकती लगी
बहुत वर्षों बाद लगा सूकून से भरी लगी
विश्राम मिला
भूल चुकी थी अपने अस्तित्व को
खो चुकी थी अपना प्रवाह
सूर्य की रोशनी में चांदी सी चिलकती
चांद की छिटकी किरणों में नहाई
अपने वक्षस्थल को निहारती
हिरनी सी चंचला लगी
नीले आसमान की छाया में श्वास लेती
हंस बत्तख और मछलियों की सहेली बनी
मचलती नवयौवना सी गंगा
आज शांति दूत लगी
इंसानों की बस्ती अब भाती नहीं
चिरना फाड़ना काटना नोचना फेंकना
कालिख पोतना मार काट से दूर
आज संवेदनशील और भावनाओं की देवी गंगा
अपनी दुनिया में  आज खुश है।

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