जीवन में दृष्टि का बड़ा महत्व है। यह हमारी दृष्टि ही यानि हमारी सोच या नजरिया ही है जो हमारी विचारधारा बनता है। जब विचारधारा बन जाती है और वह जब अडिग हो जाती है तो वही हमारी सीमा भी बन जाती है। सितम्बर की शुरुआत जब जन्माष्टमी के साथ हुई है तो चलिए हम अपनी बात को कृष्ण के ही माध्यम से ही समझाते हैं। हम सब जानते हैं कि कृष्ण योगीराज और 64 कलाओं के ज्ञाता के अतिरिक्त एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। वंशी उनको प्रिय थी मगर वह उनका एकमात्र परिचय नहीं थी। इसके बावजूद हजारों वर्ष बाद भी धरती पर उनका प्रथम परिचय वंशी से जोड़कर और माखन चोर के रूप में होता है..इसके आगे बढ़कर थोड़ा देखा जाये तो वह गीता के उपदेश या विश्वरूप तक सिमटता है मगर वे एक कुशल योद्धा थे…यह तथ्य चाहकर भी याद नहीं आता। इससे आगे बढ़कर सोचिए तो जिस द्वारिकाधीश की 16 हजार 8 पत्नियाँ हों..एक देवकी और यशोदा जैसी माँ हो. एकानंगा और सुभद्रा जैसी बहन और द्रोपदी जैसी सखी हो….उस व्यक्ति के साथ जब किसी स्त्री को देखते हैं…वह राधा ही होती है…मजे की बात यह है कि खुद श्रीमद्भागवत में भी राधा का उल्लेख सीधे नहीं आता मगर उनका होना एक सत्य है…यही हमारी दृष्टि की सीमा है क्योंकि हमने जो अपने एकांगी दृष्टिकोण से एक विराट व्यक्तित्व को देखा है।
हम उससे परे न तो उनको देखना चाहते हैं और न समझना चाहते हैं…अगर वंशी के साथ सुदर्शन चक्र और प्रतोद आप नहीं जोड़ते तो आपका हर आकलन और आपकी हर दृष्टि अधूरी है। उनकी बाल लीलाओं जितना ही महत्वपूर्ण, उनका गीता ज्ञान, उनका युद्ध और उनका समग्र दर्शन है। देखा जाए तो कृष्ण जिस विराट उद्देश्य के साथ जन्मे थे, उसे पूरा करने में उनका सबसे अधिक साथ द्रोपदी ने दिया था…एक ऐसा सशक्त चरित्र जो आज भी सशक्तीकरण की परिभाषा बना हुआ है। अगर वह न होती तो आर्यावत को धर्म की तरफ ले जाने का कृष्ण का अभियान पूरा ही नहीं हो पाता। रक्मिणी..एक ऐसी नायिका जो श्रीकृष्ण का आधार ही है और उनकी विराट द्वारिका को उनके अतिरिक्त कोई और नहीं सम्भाल सकता था मगर आज भी उनका परिचय सिर्फ श्रीकृष्ण के स्वयम्बर तक ही सीमित है। आज यह जिक्र करने का एक कारण है जो सन्देह और विवाद, दोनों इन दिनों का सत्य है…विचारधारा जब व्यक्ति केन्द्रित हो जाती है तो अपना उद्देश्य खो देती है और आज हमारे देश में विचारधारा का यह स्पष्ट विभाजन हमें दिखायी दे रहा है। राष्ट्रवाद, वामपंथ, पूँजीवाद के घटाघोप में फँसा हमारा बुद्धिजीवी वर्ग कुछ भी अपनी दृष्टि से परे देखना ही नहीं चाहता। पक्ष जब विपक्ष में था, यही करता था और आज का सत्ताधारी दल भी यही कर रहा है।
हमारी राजनीति और समाज से सौहार्द और परस्पर सम्मान की दृष्टि से खोती जा रही है। अब विरोध का मतलब वैचारिक नहीं बल्कि कटुक्ति, उपहास, नीचा दिखाना हो गया है क्योंकि हम अपनी सीमाओं के परे जाकर कुछ देखना ही नहीं चाह रहे। यह ऐसा है कि हमारी बात न सुनी तो हम किसी की परवाह नहीं करते, न देश की, न न्यायालय की, न संविधान की और न समाज की…हमें बस विरोध करना है और इसलिए करना है कि जो व्यक्ति हमारे सामने है, हम उसे पसन्द नहीं करते। आप सोचिए कि यह दृष्टि कितनी घातक है और कितनी संकुचित है…आप यह संकुचित दृष्टि आपको आगे नहीं बढ़ने दे रही और वह नहीं देखने दे रही जो आने वाली पीढ़ी हमें दिखाना चाहती है, चाहे वह हमारे बच्चे हों या विद्यार्थी…यही वजह है कि मतभेद….मनभेद बन रहा है। आज गुरु और शिष्य के बीच आ रही दूरी का कारण भी हमारी यही जिद है कि हम जो हैं…सही हैं…हमें न देखने की जरूरत है…न सीखने की जरूरत है…मगर यही दृष्टि आपका अहं कब बन जाती है…कब आपको एकाकी करती है और कब आपको पतन की ओर ले जाती है…खुद आपको भी पता नहीं चलता….। व्यक्ति हो या विचारधारा, किसी को देखना और समझना है तो उसकी समग्रता से देखिए….चीजें आसान हो जायेंगी…। आप सभी को जन्माष्टमी..शिक्षक दिवस और हिन्दी दिवस की स्नेहिल शुभकामनायें…हमारे साथ बने रहिए और सुझाव देते रहिए..सदैव स्वागत है।