विषाद का साम्राज्य और कोरोना

डॉ. वसुन्धरा मिश्र

भारत की संस्कृति “वसुधैव कुटुम्बकम् ”  और “सर्वे भवंतु सुखिनम् ” की रही है। पारंपरिक और देशीय पद्धति से जीवन यापन करने वाले भारतीयों में जब आधुनिकीकरण की प्रक्रिया बढ़ी उसके साथ – साथ अर्थ – धर्म- काम- मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की चिंतन पद्धतियों में भी परिवर्तन आता गया। प्रकृति से जुड़ा मनुष्य प्रकृति से दूरी बनाने में अपनी शान समझने लगा। मनुष्य की नैसर्गिक प्रकृति में विरोधी प्रदर्शन की होड़ को बढ़ावा मिलने लगा। मनुष्य ने अपनी एक अलग दुनिया बनाई जिसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय जैसे बड़े- बड़े मुद्दे हैं जिनको अपनी मर्जी से बनाने लगा। विज्ञान, प्रौद्योगिकी तकनीक और संचार क्रांति ने उसे अंतरिक्ष पर भी सत्तासीन करा दिया है। प्रकृति के साथ मनुष्य जाति का सामंजस्य नहीं रहा। 130 करोड़ भारतीयों को अचानक कोरोना वायरस के कारण घर बंद कर सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया।पूरा देश एकाएक घर में बंद होने पर मजबूर हो गया। बिना किसी पूर्व व्यवस्था के अचानक से आई हुई लॉकडाउन की स्थिति भी कोरोना की तरह ही भयावह है लेकिन इसके साथ ही जीवन बचने की उम्मीद भी है।

सामाजिक स्तर पर सभी समाज कोरोना वायरस से ग्रसित हैं। विदेशों से आने वाले भारतीय मूल या फिर वहाँ से आए पर्यटक, विद्यार्थी या व्यापारिक आदान-प्रदान द्वारा कोरोना वायरस का संक्रमण किसी को भी हो सकता है। चीन के बुहान से इसका आगमन माना गया जहाँ से ईरान, इटली, स्पेन, अमेरिका, भारत आदि देशों में इस महामारी का फैलना हुआ । समाज कोई भी हो सभी वर्गों के लोगों को इस वायरस ने अपनी चपेट में  ले लिया है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हों या फिल्म सितारे, बच्चे बूढ़े जवान स्त्री पुरुष सभी। परिवार और देश को बचाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस पहल ने कि “जान है तो जहान है” महामारी की भयंकर आशंकाओं को भापते हुए यह मुश्किल कदम उठाए हैं। हमें सवाल करने की स्वतंत्रता है। हम घरबंद हो गए। जब बहुत संख्या में लोगों की मौत होती तब यदि ऐसा कदम उठाया जाता तो सरकार को अधिक कोसते लेकिन हर व्यक्ति को अपने प्राण प्यारे होते हैं।
भारत सदैव से विभिन्न विपदाओं से कम संसाधनों में भी अपने को बचाने में आगे रहा है। ऋषि – मुनियों और तप – उपवास का देश रहा है। अदृश्य कोरोना वायरस से लड़ना 130 करोड़ लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण है।
सरकारें बदलती रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण को ठीक करने में ही वर्षों गुजर गए। हम जैसा सोचेंगे वैसे ही जीवनशैली को अपनाएंगे। धर्म में हमारी अगाध आस्था है। भारत अपनी शक्ति और बुद्धि को आदिकाल से पहचानता है लेकिन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोशिश करता रहता है।
धर्म के नाम पर गरीबों और भिखारियों को भोजन करवाना पुण्य का कार्य है। धार्मिक अनुष्ठानों में करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं लेकिन सड़कों पर सोए हुए मजदूरों को बड़ी गाड़ियां आराम से कुचल कर निकल जाती हैं।
आर्थिक असमानता के कारण अचानक आई दैवीय आपदाओं से निपटने के लिए रुपये पैसे के लिए मृत्यु को दांव पर लगाना हमने सीखा है। हम महत्वाकांक्षी देश में जी रहे हैं। सुविधाओं की कमी है और सुविधाभोगी हो गए हैं। आजीविका और नौकरी की तलाश में राजस्थान, गुजरात, बिहार से लोगों का पलायन  बंगाल और महाराष्ट्र में हुआ था। वे अपने ही देश की मिट्टी के हैं। विभिन्न जातियों भाषाओं और संस्कृति का देश है लेकिन हमने अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश न के बराबर की। चिकित्सा में हम बहुत आगे हैं लेकिन संसाधन और सुविधाओं की कमी है। डॉक्टर और नर्सों की कमी है। वर्तमान समय में आई आर्थिक मंदी से उबरना हर वर्ग के व्यक्ति के लिए चुनौतियों से भरा हुआ समय है। आज सरकार सजगता और सतर्कता से काम कर रही है जो सराहनीय प्रयास है। श्रमिक वर्ग की भावनाओं को ठेस न लगे नहीं तो देश में काम करने वालों की संख्या और भी घट जाएगी। चोर उचक्कों की संख्या बढ़ जाएगी।
पर्यावरण के अनुकूल हम भारतीयों ने अपनी जीवनी शक्ति को मजबूत बनाया था। दूसरों की नकल करने में हम अपनी संस्कृति भूल गए। अभी भी वक्त है।  घरबंद रह कर बिना रुपया पैसा खर्च करके कोरोना वायरस का समापन किया जा सकता है। “हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा होय” भारतवासियों को आदत है और सरकार भी अच्छी तरह से प्रजा की देखभाल कर रही है तो फिर हमें किस कोरोना से डर है। बाद में फिर वही पटरी और वही सवारी। दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ “बाढ़ की संभावनाएं हैं
नदियों के किनारे घर बसे हैं”। आठ करोड़ किसानों को उनकी रबी की फसल बचानी है।मंदी में भी सबकुछ मिलता है। सुख दुख बंट जाता है। ईश्वर की कृपा है भारत में कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोता है।

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