किसी भी उपन्यास की समीक्षा करना तभी संभव है, जब पता हो कि वह उपन्यास किस घटना पर लिखा गया है और वह कौन से समय का उपन्यास है? कोई भी साहित्यकार अपने युग की घटनाओं और समस्याओं से अछूता नहीं रह सकता। वह अपने युग की समस्याएं और घटनाओं से प्रभावित होकर ही उपन्यास की रचना करता है। दूसरी बात यह है कि कोई भी उपन्यास पाठक के मानस पर क्या प्रभाव डालता है और कितना प्रभाव डालता है? यह उसकी सकारात्मकता का स्तर तय करता है। किसी भी उपन्यास का प्रभाव पाठक पर कितनी अवधि तक रहता है, यह उपन्यास की कला की सुंदरता को दर्शाता है। पात्रों को पाठक के साथ एकाकार हो जाना उपन्यासकार की यह मूर्तिकला होती है। कोई भी उपन्यासकार कागज के पात्रों को अपनी शिल्प की कला से जिंदा इंसान बना देता है। देश की महान उपन्यासकार अलका सरावगी ने भी अपने उपन्यासों में अपनी मूर्तिकला के माध्यम से कागज के पात्रों को जिंदा इंसान बनाया है और पाठक के हृदय तक पहुंचाया है।
एक सशक्त उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो चुकीं अलका सरावगी का पहला उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ 1996 प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के पात्रों को अपने शिल्प की कला से जिंदा इंसान बना देती है। इन्हें इस उपन्यास पर साहित्य अकादमी सम्मान (2001) भी मिला है। उसके बाद इनके और तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं- ‘शेष कादम्बरी’, ‘कोई बात नहीं’ , ‘एक ब्रेक के बाद’। 2008 के बाद अलका सरावगी का नया उपन्यास अब आया है, जिसका नाम है “जानकी दास तेजपाल मैनशन”। इसका प्रकाशन वर्ष 2015 है।
उपन्यास को कथानक और कथावस्तु के ढांचे में देखें तो यह घटनाओं, चरित्रों तथा वर्णनो को आपस में बांधता है।
उपन्यास का कथानक पूरी तरह कलकाता में विकसित हुआ है। कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू के पास ‘जानकी दास तेजपाल मैनशन’ नाम की एक बड़ी कोठी है। इसमें अस्सी परिवार रहते हैं। यह प्राचीन कोठी इस देश की तरह है, जिसे तोड़े जाने की कोशिश पैदा होते देखकर दर्द होता है। यही भावनाओं की कहानी है यह ‘जानकी दास तेजपाल मेनशन’।
एक अच्छे कथानक की पहचान उसके ‘अनुपात’ और ‘गति’ से मानी जाती है। इस उपन्यास में घटनाओं या वर्णनों और चरित्रों का अनुपात भरकर देखने को नहीं मिलता। वह घटनाएं चाहे कलकत्ता में घटी हों, चाहे बम्बई में घटी हों या अमेरिका में घटी हों। पाठक सभी चरित्रों और घटनाओं के साथ संगति बैठा पाता है और उपन्यास का आस्वादन करने में उसे समस्या नहीं आती।
बहुदा पाठक को उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि घटनाएं बहुत तेज गति के साथ आगे बढ़ता है। लेकिन जानकी दास तेजपाल मेनशन का कथानक किसी भी साहित्यप्रेमी पाठक को बोरियत महसूस करा ही नहीं सकता, क्योंकि उपन्यास का हर एक अध्याय दूसरे अध्याय से जुड़ा हुआ है।
अलका सरावगी ने स्वयं कहा है कि “ इस उपन्यास को लिखने में मुझे सात साल लगे। पहला अध्याय लिखने के बाद उसी को पढ़कर आगे का लिखती थी।“
इस उपन्यास में लेखिका ने संबंध निर्वाह को जिस तरह से जोड़ा है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। दूसरे शब्दों में कहें तो जानकीदास तेजपाल मेंशन एक उपन्यास नहीं बल्कि दो उपन्यास है। इसको हम पहले अध्याय और दूसरे अध्याय को आधारित बनाकर समझ सकते हैं। पहला अध्ययन में अलकाजी ने हिंदी उपन्यास के कथ्य में बिल्कुल नया अंदाज और अत्यंत प्रभावशाली प्रयोग किया है। दूसरा अध्ययन शुरू होने के साथ ही पाठक खुद को नई दुनिया में पाता है। दूसरा अध्याय पढ़ते समय पता चलता है कि पहला अध्याय आत्मकथा है-
“जयगोविन्द ने हाथ के लिखे हुए चालीस में चार कम यानी छत्तीस पन्नों के पहले अध्याय को एक साँस में पढ़कर वापस उसी पीले फोल्डर में डाल दिया। दो साल पहले उसने ‘जयदीप‘नाम से एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखना शुरू किया था।“
उपन्यास के अंदर उपन्यास कथानक में इस तरह का प्रयोग 21वीं सदी में ही किया जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि अलका सरावगी 21वीं सदी की लेखिका हैं। पाठक को हमेशा इस तरह का कथ्य पढ़ना अच्छा लगता है जिसमें उपन्यासकार ने अपने परिवेश तथा घटनाओं को शामिल करता है और ऐसी उपन्यास जिसमें पाठक संपूर्णता में जुड़ाव महसूस करे। जानकीदास तेजपाल मेंशन 184 पन्नों में एक लंबी कलावरी को समेटे हुए हैं। इसका पता पृष्ठभूमि के परिवर्तन से ही चलता है।
अलका सरावगी का कथन है-
“मुझे ऐसी कथा लिखना बहुत उबाऊ लगता है जो जान बूझकर यौवन अवस्था, यौवन से प्रौढ़ावस्था और प्रौढ़ा से मरने तक का हो।”
इस प्रकार उपन्यास की कथावस्तु विश्वसनीय और प्रमाणिक लगती है।
भारत के उपन्याससम्राट प्रेमचंद का कथन है“बिना उद्देश्य की रचना हो ही नहीं सकता”। 1950 ई. के बाद के साहित्य में उद्देश्य का महत्व कम हुआ है। जब यथार्थवाद इतना सघन हो गया है कि अधिकांश लेखक सिर्फ यथार्थ का वर्णन करना चाहते हैं। अलका सरावगी ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए जानकीदास तेजपाल मेंशन को यथार्थ के ढांचे में ही रचा है। लेखिका ने यथार्थ से जुड़े अनेक मुद्दों को इस उपन्यास में उठाया।
कहा जाता है कि कोई भी नया निर्माण देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाता है। भारत में मेट्रो रेल की सेवा पहली बार कलकत्ता में शुरू हुई थी। पहली बार यह नया निर्णय हो रहा था और यह फैसला किया गया था कि अंडरग्राउंड लाइन बिछाई जाएगी। लेखिका लिखती है –
“देश की पहली भूगर्भ मेट्रो रेल के जब कलकत्ता में बनने की शुरुआत हुई , तो सबसे खुश हुए थे बड़ाबाजार के लोग। कहावत थी कि बिना पाँव वाला आदमी रेंगकर भी जल्दी पहुँच जाता है, पर बड़ाबाजार के ट्रैफिक में गाड़ी में आदमी बैठा का बैठा रह जाता है। तब लगा था कि अब कलकत्ता के और खासकर सेंट्रल एवेन्यू के पुराने दिन लौट आएँगे।“
लेकिन जिन्होंने उसे शुरू होने का वक्त देखा है, कोलकाता के मेट्रो रेल के सुरंगो को बनने के दौरान क्या हुआ होगा? अलका सरावगी ने इसका बड़ा ही सटीक चित्रण अपने इस उपन्यास में किया है। यह निर्माण बड़ा ही घातक साबित हुआ क्योंकि कलकत्ता जैसे पुराने देश में पहली बार मकान के नीचे सुरंग बनाकर मेट्रो लाइन बिछाना आसान काम नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेट्रो लाइन बिछाने के कारण ऊपर की कोठरियाँ और मकान हिलने लगे। कई लोगों को अपने घर से बेघर होना पड़ा। लेखिका ने इस उपन्यास में सबसे पुरानी बिल्डिंग सेंट्रल एवेन्यू के जानकीदास तेजपाल मेनशन को केंद्र बनाया है। इस मेनशन के पास वाले सड़क पर जब बस गुजरती है तो जानकीदास तेजपाल मेनशन हिलता हुआ नज़र आता है। लेखिका कहती हैं-
“सड़क पर गुजरती हर बस के साथ हिलता जानकीदास तेजपाल मैनशन ‘एक नया अर्थ – संकेत है- पूरे देश का,जिसका ढहाया जाना तय है। राजनीति, प्रशासन , पुलिस और पूँजी के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में लगा हुआ है। “
किस तरह से प्रशासन, पुलिस, राजनीति के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को दबाता है उसका सटीक चित्रण लेखिका ने किया है। जयगोविंद 1970 के दशक में अमेरिका से पढ़कर कोलकाता लौट आया है और वह एक कंप्यूटर इंजीनियर है जो इधर का रहता है और ना ही उधर का रह पाता है। वह जहां भी नौकरी मांगने जाता है उसको नीचा दिखाकर दबाने की कोशिश की जाती है। इसका एक प्रसंग देख सकते हैं-
“अमेरिका से पढ़कर लौटे हो। यहाँ काम कर सकोगे?“–‘घुरघुर‘ बोला था। कम्पनी नम्बर दो या नम्बर तीन आदमी और ऐसी आवाज? ………. उसने जवाब दिया था- काम करने के पहले कैसे बताया जा सकता है !“ अनजाने ही उसकी आवाज जवाब देते समय कुछ फटी हुई – सी निकली थी। ……जयदीप जानता था कि उसे आदरपूर्वक कहना चाहिए था— “ सर , एक मौका मिले तो करके ही बता सकता हूँ। “ पर घुरघुर के शब्दों में ही सिर्फ अविश्वास नहीं था , उसकी पूरी ‘ बॉडी लैंग्वेज ‘ यानी हाव – भाव से यह साफ था कि वह यकीनन जानता है कि जयदीप वहाँ काम नहीं कर सकेगा”
जिस तरह से जयदीप यह सारा कुछ सह जाता है। लेकिन एक वाक्य आता है-
अनजाने में ही उसकी आवाज जवाब देती हुई फटी हुई सी निकली थी। यह सब कुछ कह देता है– यहां पर लेखिका का वह दर्द देखने को मिलता है।
लेखिका ने बहुत ही कुशलता के साथ आज़ादी के बाद का यह चित्रण प्रस्तुत किया है। किस तरह बंगाल में नक्सलवाद पैदा हुआ, बड़ा और अंत में कैसे खत्म हुआ। यह आगे चलकर समझ आता है कि नक्सलवादियों के परिवारों पर क्या गुजरी होगी। भारत से अमेरिका पढ़ने जाने वाले लोग और जो उनमें से ज़्यादातर वही बस गये। उसके साथ वियतनाम के अमेरिकी आक्रमण का उन पर क्या प्रभाव पड़ा होगा जो लोग वहां पढ़ने गए थे। इसका बड़ा ही सटीक चित्रण अलका सरावगी ने इस उपन्यास में किया है।
लेखिका लिखतीहैं-
“अमेरिका से एडवोकेट बाबू ने बुला लिया , तो क्या ? उसे खुद मालूम है कि अमेरिका उसके लिए ठौर नहीं बन सकता था। वह तो मन ही मन तरस खाता है उन लोगों पर जो वहीं रह गए और अब चाहकर भी वापस नहीं आ सकते। उनके बीवी – बच्चे ही तैयार नहीं होंगे – ‘ हीट एंड डस्ट ‘ और ‘ इनफेक्शन ‘ भरी इस धरती पर लौटने के लिए।“
जिस जयदीप को अमेरिका इतना पसंद था अब वह खुश है। सोचता है कि अच्छा हुआ मैं अमेरिका से वापस आ गया। क्योंकि उसके जितने एन.आर. आई. दोस्त हैं वह इंडिया आने के लिए तड़पते हैं पर इनफेक्शन के डर से नहीं आ पाते। कहा जाता है कि अपना घर अपना ही होता है हम दुनिया के जिस भी कोने में चले जाएं पर वह सुकून अपने ही घर में वापिस आकर मिलता है। लेखिका ने इस मुहावरे का बड़ा ही सटीक उदाहरण जयदीप और उसके दोस्तों के माध्यम से दिया है। जयदीप का दोस्त विजय को देख सकते हैं कि कैसे वह अपने देश में लौटने के लिए बेचैन है। वह कहता है- “ विजय के चेहरे की बेचारगी और भी गहरी हो गई थी— “ मैं अपने देश में मरना चाहता हूँ।
लेखिका ने इस उपन्यास में कुछ और संदेश को भी दिखाती है। जैसे उपन्यास में प्रेम से उपजा भरोसा भी है और उस भरोसे का टूटना भी “जाने यह प्रेम क्या चीज है कि बाकी सारी बातें बेमानी हो जाती हैं। पर ऐसा प्रेम भी कितनों के नसीब में होता है!”
लेखिका लिखतीहै-
जयगोविंद को अफसोस है कि वह दीपा को वह प्रेम नहीं दे पाया जो दीपा ने उसे दिया था। उसको दीपा के प्रेम से उपजा भरोसा तो मिला। उसे लगता है कि वह दीपा के उस प्रेम के भरोसे को तोड़ दिया।
लेखिका इसके पीछे के कारण को बताते हुए लिखती हैं कि- “दरअसल जयगोविन्द जैसे बड़ा हुआ , जैसी जिन्दगी उसने आस – पास देखी , जिस तरह के रिश्तों को जाना , उसमें कोई प्रेम जैसी चीज कभी . नजर नहीं आई।”
लेखिका ने अपने इस उपन्यास में कलकत्ता के मारवाड़ी समाज को भी चित्रित किया है। कलकत्ता में रहते हुए मारवाड़ी समाज को बहुत करीब से देखा है। मारवाड़ी समाज के साथ-साथ अन्य सभी समाजों के बीच के संबंधों को दिखाया हैं। इन संबंधों को पूरी तरह से जगह नहीं दे पाई है पर फिर भीइ इतने कम पन्नों में उन्हें लिखा भी नहीं जा सकता।
अंत में कहा जा सकता है कि मुख्यतः लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन को वह रूपक बनाया है, जो दिखाता है कि कैसे आधुनिकता और विकास इतिहास को नष्ट करता है। कैसे एक ईमानदार इंसान व्यवस्था के कारण बेईमान बन जाता है।
कोई भी रचनाकार यदि कथा के माध्यम से अपनी बात कहना चाहता है तो उसे कुछ पात्र या चरित्र गढ़ने पड़ते हैं ताकि उसकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अपने भाव का संप्रेषण कर सके। अलका जी ने भी अनेक चरित्र गढ़े हैं। जयगोविंद या जयदीप, एडवोकेट बाबू, दीपा, रोहित और जयदीप की मां। यह सब सहभागी चरित्र के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरी तरफ जयदीप के अमेरिका के एन. आर. आई. दोस्त और भारत के सारे दोस्त और उसके दफ्तर के लोग हैं। यह सब प्रेक्षक चरित्र के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। जो मुख्यकथा को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग देते हैं।
लेखिका ने अपने इस उपन्यास में चरित्र के माध्यम से एक नया प्रयोग किया है। लेखिका कहती हैं“ कलकत्ता मेरे उपन्यासों में पात्र के रूप में मौजूद रहता है । ”
इसका उदाहरण लेखिका के ही उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ में देख सकते है। इस उपन्यास में लेखिका ने दिखाया है कि किस तरह शहर का इतिहास आदमी के इतिहास से जुड़ा हुआ है। उसे अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। उन्होंने जानकीदास तेजपाल मेनशन में भी इसका प्रयोग किया है। जयदीप को उन्होंने इस उपन्यास का नायक बनाया है। जयदीप के चरित्र से कोलकाता और अमेरिका के प्रसंग को इस तरह से लेखिका ने जोड़ा है कि उसको अलग करके नहीं देखा जा सकता। जयदीप जो अमेरिका से पढ़कर आया है, एक ऐसे हिलते हुए मकान में जीवन जी रहा है और उसकी लड़ाई लड़ रहा है। उसके पीछे उसकी कौन सी प्रेरणा है? कौन सी मानसिकता है? यह कौन सी दुनिया है? और यह कौन सी व्यवस्था है? यह सब भूलकर वह लड़ने में दम लगाए हुए हैं। यह सारा परिदृश्य उपन्यास में उभरता है। यह सारा उपन्यास में पिरोया हुआ है।
इतना ही नहीं यह सारा एक खास समय में कैसे उभरता है। वियतनाम मे आंदोलन चल रहा था और उस समय में यह अमेरिका जाता है। यहां नक्सलवाद शुरू हो गया है। इसमें भी इसकी भागीदारी है, पर यह उसका हिस्सा नहीं बनता है। वह लौटकर आता है और फिर मकान को बचाने के लिए जान लगाए रहता है। यह एक ऐसा पात्र है जो अपने आप में अपने पूरे समय को समेटे हुआ है।
एक अच्छे पात्र की पहचान होती है कि वह लेखक के हाथों कठपुतली ना बना रहे, बल्कि वह स्वतंत्र रूप में चले। अच्छाई और बुराई दोनों को धारण करता हो। लेखिका ने पात्र को स्वतंत्र बनाया है वह अपने अनुसार चलता है और निर्णय लेता है। इस कहानी का पात्र अपनी कहानी को लिखने के साथ-साथ अगर उसको सही ना लगे, तो उससे असहमत भी होता है। उसमें अपनी अनकही कथाएं जोड़ते चलता है। हमारा जीवन भी ऐसे ही चलता है – विचारों को छोड़ते हैं और नए विचारों को अपनाते हैं। यह एक स्वतंत्र पात्र की पहचान है। लेखिका लिखती है-
“मेरे लिए शिल्प इसलिए अलग है क्योंकि मैं खुद ऊब ना जाऊं। मुझे कथारस ना मिले तो मैं अभी से हजार झमेलों में लिखूं क्यों।”
इस तरह के पात्रों का चयन करना तभी संभव है जब लेखक की सोच में ऊंचाई के साथ-साथ उतनी गहराई भी हो। तभी ऐसी कृति लिखी जा सकती है। इस तरह का पात्र रचा जा सकता है।
लेखक चरित्र के सिर्फ बाहरी पक्षों का वर्णन नहीं करता बल्कि लेखक उसके मन के भीतर प्रविष्ट होकर मनोवैज्ञानिक स्थितियों का भी सूक्ष्म अंकन करता है। लेखिका ने जयदीप के माध्यम से इसका बड़ा ही सुंदर चित्रण किया है। वह उन सभी अस्थापनाओं से असहमत होता है जो उसने पहले अपने जीवन में अपनाएं थे। इसके साथ वह अपनी कही हुई बातों को भी खारिज करता रहता है। समय की परिवर्तनशीलता के साथ-साथ वह खुद में भी परिवर्तन लाता है ताकि वह समय के सा ताल से ताल मिलाकर चल सके। लेखिका ने उसके बाहरी पक्षों के साथ उसके मन के भीतर प्रविष्ट होकर मनोवैज्ञानिक स्थितियों का सूक्ष्म आकलन किया है।
अलका सरावगी ने चरित्र योजना में साधारण जीवन के पात्रों को लिया। जो हमारे आसपास होते हैं । लेखिका ने अपनी शिल्पकला के माध्यम से कागज के पात्रों को जिंदा इंसान बनाया है और पाठक के हृदय तक पहुंचाया है।
कहा जाता है कि भाषा का गद्य रूप उपन्यास में व्यक्त होता है। हर रचना अपने काल के अनुसार भाषा ग्रहण करती है। जानकीदास तेजपाल मेनशन उत्तर आधुनिकता की रचना होने के कारण इसमें बहुत से अंग्रेजी और हिंदी शब्द आए हैं। जैसे – जादवपुर यूनिवर्सिटी, अटैच्ट बाथरूम, सेंट्रल एवेन्यूआदि।
मुहावरे और लोकोक्ति के प्रयोग से उपन्यास की रचना और आकृष्ट बनती है ।जानकीदास तेजपाल मेनशन में कहावतें और मुहावरे का प्रयोग देखने को मिलता है जो निम्नलिखित है-
- कहावत थी कि बिना पाँव वाला आदमी रेंगकर भी जल्दी पहुँच जाता है , पर बड़ाबाजार के ट्रैफिक में गाड़ी में आदमी बैठा का बैठा रह जाता है।
- कहा कि सेठजी , अगर आदमी को ईमान से पेट भरना हो , तो उतने ही पाँव फैलाने चाहिए , जितनी उसकी चादर हो।
3.जयदीप मन की बात मन में रखने की उक्ति – ‘ पेट में रखो तो लाख की मुँह से निकले तो खाक की ‘ – का इरमिज कायल नहीं था।
4“बूँद – बूँद से घड़ा भरता है, “वह अपने हजारों मुहावरों से एक जब – तब निकाल लेता- “ घोड़ा घास से यारी करेगा , तो खाएगा क्या ? है कि नहीं ? “ – कहकर वह जोर का .. ठहाका लगाता।
भाषा के अंतर्गत यह भी देखा जाता है कि क्या लेखक ने प्रतीकों, बिम्बों तथा उपमानों की भाषा का प्रयोग किया है? इन तत्वों के प्रयोग से भाषा की प्रभाव – क्षमता काफी बढ़ जाती है। उपन्यास में इनके प्रयोग अनेक जगह देखने को मिलते हैं-
1.उपन्यास का नाम ही प्रतीकात्मक है। लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन नाम एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया है। यह प्रतीक है पूरे देश का जिसका ढ़हाया जाना तय है। राजनीति, प्रशासन और पुलिस के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में लगा हुआ है।
2.लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन को उपमा के रूप में भी प्रयोग किया। इस मेनशन को जिस तरह नष्ट किया जा रहा है, ठीक उसी के समान कैसे आधुनिकता और विकास इतिहास को नष्ट करता है। कैसे एक ईमानदार इंसान इस व्यवस्था के कारण बेईमान बन जाता है।
3.यहां पर देख सकते हैं कि आदमी की उपमा घोड़े के साथ दी गयी है- उच्छल घोड़ा – यानी उछलने वाला घोड़ा। यानी कि वह गया- गुजरा आदमी , जो बेवजह उछलता है और अन्त में गिरकर हाथ – पैर तोड़ लेता है।
4.लेखिका ने बिम्बों का भी बहुत ही सुंदर प्रयोग इस उपन्यास में किया है। पूरा उपन्यास कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। उपन्यास को पढ़ते समय हमें बड़ाबाजार, सेंट्रल एवेन्यू, जादवपुर विश्वविद्यालय का बिम्ब दिखाई देता है।
लेखिका ने व्यंग्य का प्रयोग बड़े ही सटीक तरीके से किया है। इसके प्रयोग से समाज की विकृतियों पर जोरदार तरीके से चोट करना संभव होता है। कोलकाता का बंगाली समाज सोचता है कि वह प्रवासी होकर भी वह दूसरों पर अहसान करता है। लेखिका का कथन है- कलकत्ता के बंगालियों को तो देखकर ऐसा ही लगता है। पर मजे की बात कि बंगाली भले ही दिल्ली में रहे या पेरिस या न्यूयॉर्क में , ऐसे रहता है जैसे वह प्रवासी होकर भी दूसरों पर अहसान कर रहा हो। एकाध रवीन्द्रनाथ या सत्यजीत राय क्या हो गए , हर बंगाली को लगता है कि उसकी संस्कृति का साम्राज्य दुनिया भर में फैला है।
लेखिका ने उपन्यास में फ्लैशबैक शैली का अत्यंत रमणीय और रोचक प्रयोग किया है। जिसमें देखने को मिलता है कि कैसे वह कहानी लिखते-लिखते तुरंत फ्लैशबैक में बार-बार चली जाती है।
उपन्यास की भाषा शैली आकर्षक, रोचक, सहज और सरल है। भाषा में मुहावरे, लोकोक्तियां, कहावतों के साथ-साथ व्यंग्य का बड़ा ही सुंदर प्रयोग किया गया है, जिससे भाषा की प्रभाव क्षमता काफी बड़ी है।
किसी भी रचना की संवाद योजना उतनी ही महत्वपूर्ण होती है, जितनी रचना की भाषा। चरित्रों के मध्य सीधी बातचीत कराई जाए तो प्रभाव क्षमता बढ़ जाती है और पाठक सीधे चरित्रों से रूबरू होता है।
अलका सरावगी ने इसका पूरी तरह ख्याल रखा है। उपन्यास की पहली लाइन से ही वे पाठक को खींच लेती हैं- चलते रहो। चलते रहो। पीछे मुड़कर मत देखो। तेज मत चलो। ऐसे चलो जैसे कुछ हुआ ही न हो तुम हाँफ क्यों रहे हो ? चलते जाओ ‘ – अपने से बात करता जयदीप उसी तरह चलता रहा। उसने रुककर पीछे मुड़कर देखा और न अपनी चाल तेज की।
उपन्यास के प्रारंभ होते ही पाठक को ऐसा महसूस होता है कि वह स्वयं से बात कर रहा हो।
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का कथन है- अलका जी 21वीं सदी की लेखिका हैं। इनकी लेखनी का शिल्प आकृष्ट इस तरह से करता है कि अतीत और वर्तमान की आवाजाही होती रहती है। लेखक और मुख्य पात्र के बीच एक मुख्य संवाद चलता रहता है।
लेखिका ने संवाद को छोटे-छोटे, कसा हुआ, चुस्त और गतिशील रखा है। जिससे शैली और बेहतर हो गई है और कथानक को भी गति देने में सहायता मिली है।
एक अच्छी रचना में ‘देश व काल’ संबंधित सूचनाएं मौजूद रहती है। यह सूचनाएं तत्कालीन परिस्थितियों के द्वारा भी दी जाती हैं ताकि रचना उस काल के साथ-साथ वर्तमान काल में भी प्रासंगिक बनी रहे। जानकीदास तेजपाल मेनशन में एक भी तिथि या वर्ष से संबंधित सूचना तो नहीं मिलती लेकिन 1970 के दशक परिस्थितियों की झलक देखने को मिलती है। जब भारत में पहली बार मेट्रो रेल की पटरियां बिछानी शुरू हुई थी। इसके अलावा अमेरिका में जो परिस्थितियां थीं उसका भी बड़ा ही सटीक चित्रण किया गया है। लेकिन देश संबंधित सूचनाओं में कलकत्ता शहर का नाम आता है, बल्कि यह उपन्यास पूरी तरह से कलकत्ता शहर की पृष्ठभूमि पर रचा गया है। इसीलिए जानकीदास तेजपाल मेनशन काल का अतिक्रमण तो कर पाता है लेकिन देश का अतिक्रमण करने में यह उपन्यास सफल नहीं हुआ है क्योंकि इसकी पूरी कथा कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर ही आधारित है।
जहां तक वातावरण को देखें। यह उपन्यास अपने समय के वातावरण का पूरा सटीक चित्रण करता है। 1970 के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण का चित्रण देखने को मिलता है। उस समय की राजनीति के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में कैसे लगा हुआ है। इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण लेखिका ने तेजपाल मेनशन नामक कोठी के ढह जाने के संकेत से दिया है। लेखिका ने परिवेश को इतना जीवंत बना दिया है कि पाठक स्वयं को उसी वातावरण के भीतर महसूस करने लगता है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अलका सरावगी जी ने “जानकीदास तेजपाल मेनशन” की रचना बड़े ही मार्मिक तरीके से की है, जिसमें कलकत्ता शहर केंद्र में रहता है। कलकत्ता की अपनी एक खास रूमानियत है। मारवाड़ी और बंगाली इन दोनों संबंधों का अनोखा संगम इस उपन्यास में देखने को मिलता है। इस उपन्यास पर अशोक सेकसरिया की टिप्पणी बड़ी गहरी है। उन्होंने अपनी छोटी सी टिप्पणी में पूरे उपन्यास को समेट दिया है। कहते हैं- “जो सतह पर दिखता है , वह अवास्तविक है। कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू पर ‘ जानकीदास तेजपाल मैनशन ‘ नाम की अस्सी परिवारों वाली इमारत सतह पर खड़ी दिखती है , पर उसकी वास्तविकता मेट्रो की सुरंग खोदने से ढहने और ढहाए जाने में है। अंग्रेजी में एक शब्द चलता है ‘ अंडरवर्ल्ड ‘ जिसका ठीक प्रतिरूप हिन्दी में नहीं है। अंडरवर्ल्ड गैरकानूनी ढंग से धन कमाने , सौदेबाजी और जुगाड़ की दुनिया है। इस दुनिया के ढ़ेर सारे चरित्र हमारे जाने हुए हैं, पर अक्सर हम नहीं जानते कि वे किस हद तक हमारे जीवन को चलाते हैं और कब हमें अपने में शामिल कर लेते हैं। तब अपने बेदखल किए जाने की पीड़ा दूसरों को बेदखल करने में आड़े नहीं आती।“