सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, गर्मी कहर बरपा रही है और करोना की दूसरी लहर भी अपना सितम ढा रही है। तकरीबन साल भर से यह महामारी हमारे साथ लुकाछिपी खेल रही है। जैसे ही हम थोड़ा सा आश्वस्त होकर मुक्ति की साँस भरने की सोचते हैं वह बहुरूपिए की तरह हर बार नये रंग- रूप में हमारे सामने आकर अपनी भयंकरता से हमें चौंका देती है। करोना काल में लोगों ने और बहुत सारी बंदिशों के साथ घर में रहने की आदत भी डाल ली। हमारे घूमने फिरने या स्वतंत्रता पूर्वक विचरने पर पूरी तरह से पाबंदी लग गई थी। बाद में हालात थोड़े से सामान्य होने लगे तो लोगों ने सैर की अपनी योजनाओं पर अमल करना आरंभ कर दिया। विभिन्न कारणों से सफर करने की जरूरत के मद्देनजर भी लोग घर से बाहर निकलने लगे। बात जब सफर की चलती है तो महिलाओं के अकेले सफर करने के मुद्दे पर भी अनायास नजर चली जाती है। सोचकर देखा तो समझ में आया कि न जाने किस काल से जाने किस अलिखित नियम के तहत महिलाओं के अकेले सफर करने की मनाही सी रही है। जब लड़कियाँ छोटी होती हैं तब तो यह समझ में आता है कि वह माता- पिता या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ घर से बाहर निकलती हैं या सफर करती हैं लेकिन हमारा समाज लड़कियों को कभी भी, कुछ क्षेत्रों में बड़ा होने का अहसास करने का मौका नहीं देता। सुरक्षा के बहाना हो अथवा कोई और कारण, लड़की हो या स्त्री वह कभी इस लायक नहीं समझी जाती कि अकेले सफर पर निकल सके। समय बदला और उसके साथ ही बहुत कुछ बदला। डोली- पालकी के सुरक्षा घेरे या बैलगाड़ी के पर्दों के बीच यात्रा करनेवाली स्त्रियाँ भी अन्य मनुष्यों की भांति ट्राम, बस, रिक्शे, टैक्सी आदि में यात्रा करने लगीं। अपने- अपने स्कूल या महाविद्यालय जहाँ कभी वह पैदल, तांगे, रिक्शे या गाड़ी में, घर के किसी सदस्य या दाई की निगहबानी में जाती थीं, वहाँ अकेली भी जाने लगी। हालांकि वह अकेले जाना भी बिल्कुल अकेला होना नहीं था क्योंकि बहुधा वे समूह में बाहर निकलती थीं। ठीक जंगल के नियम के अनुसार जिसमें शारीरिक दृष्टि से कमजोर जानवर जैसे हिरण आदि झुंड में ही रहते या विचरते हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि जंगल का नियम अभी भी स्त्रियों पर लागू है। चूंकि वह शारीरिक दृष्टि से कमजोर मानी जाती हैं इसीलिए झुंड में रहना उनकी आदत बन जाती है या दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा समाज ठोंक -पीटकर उन्हें उस जीवन शैली में ढाल देता है जहाँ अकेले कहीं भी जाने, विचरने या घूमने आदि में उन्हें असुरक्षा बोध का अहसास होता है। और इसी असुरक्षा बोध के कारण आज की आधुनिक जीवन शैली में भी स्त्रियाँ, जो अपने दफ्तर आदि का काम बड़ी कुशलता से अपने दम पर संभाल लेती हैं, भी अकेली सफर पर निकलने से परहेज़ करती हैं। अगर कुछ स्त्रियाँ इस रवायत को बदलने या तोड़ने की कोशिश करती भी हैं तो हमारा तथाकथित सभ्य या आधुनिक समाज उन्हें कोंच -कोंच कर यह अहसास करा देता है कि उन्हें अकेले सफर पर निकलने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए अन्यथा उनके साथ कोई भी दुर्घटना घट सकती है। वैसे दुर्घटनाएँ तो कभी भी किसी के साथ घट सकती हैं। हालांकि आज के समय में छात्राएँ हों या नौकरीपेशा महिलाएँ, अकेले सफर पर निकल ही पड़ती हैं लेकिन समाज इस नयी रवायत के प्रति अभी भी सहज नहीं हो पाया है इसीलिए सफर के दौरान उनके इस दुस्साहस पर टीका टिप्पणी करने से बाज नहीं आता। वह बेझिझक कभी उस अकेली लड़की या स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाता है, खुसफुसाहट में ही सही तो कभी उसके माता-पिता की दायित्वबोध को प्रश्नांकित करता है जिन्होंने अपनी बेटी को अकेले सफर की अनुमति दे दी है। सखियों, आप सबके साथ किसी ना किसी समय इस तरह की घटना अवश्य घटी होगी या न भी घटी हो तो आपने सुना अवश्य होगा। सोचकर आश्चर्य होता है कि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है और औरतों ने भी विकास की अनगिनत सीढ़ियों को लांघते हुए आसमान में अपनी विजय पताका फहरा दी है लेकिन हमारा समाज अभी भी उनके प्रति इतना उदार नहीं हो पाया है कि उनके अकेले सफर करने को सहज दृष्टि से देखें। 1907 में प्रकाशित बंगमहिला की कहानी “दुलाईवाली” में नवल किशोर की पत्नी रेल के सफर में अचानक अपने साथ चल रहे पति को गायब देख कर और अपने को अकेली पाकर रोने लगती है तो आस -पास की स्त्रियाँ उसके प्रति सहानुभूति जताती हैं और सहयात्री बंशीधर उन्हें सही ठिकाने पर पहुंचाने का दायित्व ओढ़ लेते हैं। लेकिन आज समय बदल गया है। आज की स्त्री ने बदलती हुई परिस्थितियों के मद्देनजर अपने- आपको नये वातावरण और चुनौतियों के अनुरूप ढाल लिया है और अकेली सफर पर अकुंठ भाव से निकल पड़ती हैं। यह बात और है कि आज भी स्त्रियों की एक बड़ी जमात अकेली सफर पर निकलने का साहस नहीं करती। निदा फ़ाज़ली ने अपनी ग़ज़ल में सफर की मुश्किलों की ओर संकेत करते हुए भी लोगों को सफर के लिए उत्साहित करते हुए लिखा-
“सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।”
लेकिन उन्हें भी कहाँ अहसास था कि यह धूप औरत के लिए और भी तीखी हो जाती है क्योंकि उसमें लोगों की दृष्टि का कौतूहल या अनकही लेकिन अत्यधिक चुभने वाली आलोचना भी शामिल हो जाती है शायद इसीलिए उसका सफर कर निकलना आम लोगों की तुलना में काफी मुश्किल होता है। लेकिन इन मुश्किलों के बावजूद आज बहुत सी स्त्रियाँ अकेली सफर पर निकल रही हैं और जिंदगी को नये सिरे से देखने, समझने की कोशिश कर रही हैं। वह अकेली अपने आप के साथ आनंद से समय बिताना भी सीख ही लेती है, तभी तो अनुराधा अनन्या अपनी कविता “एकांत” का सृजन करती हैं जिसमें एक औरत तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने अकेलेपन का आनंद उठाती दिखाई देती है । सखियों, आप से भी अनुरोध है कि गाहे बगाहे अकेली सफर पर निकल पड़िए और अगर न भी निकल पाएं तो भी इसका सपना जरूर देखिए। साथ ही किसी भी लड़की या औरत को अकेली सफर करती देखकर उसे स्नेह और सराहना की दृष्टि से देखिए, आलोचना और तिरस्कार से नहीं। फिलहाल अनुराधा अनन्या की इस कविता का आनंद लीजिए –
” मैं अपने साथ हूँ—अकेली—
ख़ुद के खोल से उधड़ती हुई
मन की गाँठें खोलती
अपने आपसे सुलझती हुई
अपने अकेले जंगल में
अपनी अकेली धरती पर
चलती
रुकती
दम भरती
अपनी धुन पर थिरकती हुई
इस जहाँ से दूर
किसी और जहाँ में
जो सिर्फ़ मेरा है
मैं जिसमें मैं हूँ
और मैं अपने साथ हूँ—अकेली—
अपने ही मन के आँगन में
बेपरवाह
बेलिबास
बेलिहाज़
अपने पूरे बदन के साथ—अकेली—
ख़ुद अपनी रूह में उतरती हुई
मैं अपने साथ हूँ—अकेली।”