मैं न दहलूँगा भयानक रूप लखकर
भले उसको देख सबका मन दहल ले।
दृष्टि दी गुरु ने तुझे पहचानने की,
प्रभु – कृपा तू रूप चाहे जो बदल ले।।
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साँस साँस में रटूँ राम मैं नाम तुम्हारा
साँस साँस में बुनूँ रूप मैं राम तुम्हारा
साँस साँस में झलकाओ तुम अपनी लीला
साँस साँस में रमो बने यह धाम तुम्हारा
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औरों के हैं जगत् में स्वजन, बन्धु, धन, धाम।
मेरे तो हैं एक ही सीतापति श्रीराम।।
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जीवन का पथ कितना दुर्गम, रह रह कर सिहरूँ,
हर ऊँची – नीची घाटी में, तुमको याद करूँ!
चूर – चूर तन, साँस धौंकनी, बढ़ता हूँ फिर भी
तुम मेरे रक्षक हो स्वामी, तब क्यों कहीं डरूँ!!
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राम प्राण की गहराई से तुम्हें नमन है
कृपा पा सकूँ नाथ तुम्हारी, इतना मन है
यह जग -ज्वाला क्या बिगाड़ सकती है मेरा
नाम तुम्हारा, सब तापों का सहज शमन है।।
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छोड़ दो, सब राम पर ही छोड़ दो
जिन्दगी का रुख उधर ही मोड़ दो।
तुम जगत् के साथ भटके हो बहुत
अब स्वयं को जगत्पति से जोड़ दो।।
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राम राम में रमो, रटो तुम राम – राम ही
राम राम ही जपो एक अवलम्ब नाम ही।
रूप चरित, गुण धाम उसी में सभी समाये
निहित बीज में ज्यों तरु, पत्ते फल ललाम भी।।
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मैं निस्साधन, दीन -हीन प्रभु, और न कोई मेरा
एक गाँठ सौ फेरे वैसे मुझे भरोसा तेरा।
काल – ब्याल मुँह बाये, जाने अगले पल क्या होगा,
अतः इसी पल अपने चरणों में दे मुझे बसेरा।।
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तरी अहल्या जिनके पावन मृदुल स्पर्श से
प्रेम – हठीले केवट से जो गये पखारे!
जो जग का दुःख हरने काँटों से क्षत -विक्षत
राम! तुम्हारे चरण प्रेरणा स्त्रोत हमारे!!
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मुझे शक्ति दो नाथ! कर सकूँ निज पर संयम,
काम, क्रोध को जीत सकूँ धारण कर शम-दम।
जनजीवन के मायामय आकर्षण से बच,
तुम्हें समर्पित हो पाऊँ बन निरहं, निर्मम।।
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थोड़े सुख से सुखी, दुःख से दुखी हुआ करता है यह मन,
कैसी खोटी आदत इसकी विषयातुर रहता यह प्रतिक्षण
ठगा जा चुका बार अनेकों फिर भी सम्हल न पाता है यह
केवल कृपा तुम्हारी राघव! कर सकती है इसका शोधन।।
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अब तक का जीवन तो बीता स्वार्थपूर्ण व्यवहार में
जिनका मुख देखे दुख उपजे उनकी ही मनुहार में
कहता कुछ था, करता कुछ था, रखना अपने मन कुछ और
राम तुम्हें अब याद कर रहा पड़ा हुआ मँझधार में।।
(सौजन्य – डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी)