तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये लड़ा जाएगा, इस बात के आसार अब नज़र आने लगे हैं। बांग्लादेश, पाकिस्तान से नदी जल बंटवारे को लेकर जब-तब गर्मा–गर्मी होती रहती है। इसी तरह तिब्बत में चीन एक बहुत बड़ा बांध बना रहा है। उसके उत्तर-पूर्व में बहने वाली नदियाँ तो सुख ही जाएंगी, साथ ही अधिकतर देशों में भयंकर सुखा पड़ेगा। चीन की विस्तारवादी नीति को देखते हुए चीन इस बाँध के पानी का प्रयोग भारत में ‘पानी बम’ के रूप में कर सकता है। एकदम पानी छोड़ देने से उत्तर-पूर्व के जलमग्न होकर डूबने का खतरा है। देश के भीतर के हालात भी पानी को लेकर कम खतरनाक नहीं हैं। स्वार्थी राजनेता कुर्सी के चक्कर में क्षेत्रवाद की राजनीति करते हैं। पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, आंध्र, कर्नाटक, आदि प्रांत पानी के बंटवारे से संतुष्ट नहीं हैं । नदी जल-वितरण का कोई ऐसा सर्वमान्य ‘फॉर्मूला’ भी नहीं बनाया गया। नहर के जल से सिंचाई को लेकर किसान जब आपस में लड़ते हैं तो खून-खराबा आम बात है। वे जब आपस में लड़ते हैं तो पानी खून से महंगा हो जाता है। गर्मियों के मौसम में पीने के पानी को लेकर जैसी त्राहि-त्राहि मचती है, वह भी कोई छुपी हुई बात नहीं है। अभी भी अगर नहीं जागे तो इसका कितना मूल्य चुकाना पड़ सकता है, इसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कहावत है कि दिवाला निकाला हुआ व्यापारी (बनिया) पुराने बही-खाते संभालने लगता है। यह बात यहाँ भी लागू होती है। पुराने जमाने में न तो इस भाँति नहरों के जाल थे, और न ही इतने ट्यूबवेल और न ही वाटर वर्क्स आदि। फिर आज की तरह पानी की किल्लत नहीं थी। इसका क्या कारण था ? इस बात का दुबारा चिंतन-मनन करने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि उन लोगों ने ‘रहिमन पानी राखिए’ के मंत्र को पूरी तरह आत्मसात कर रखा था। पानी के मामले में वे किसी सरकार पर आश्रित नहीं थे, बल्कि उनके खुद के साधन थे। वे वर्ष के पानी की एक-एक बूँद का उपयोग करना जानते थे। वर्षा की ऋतु में वे अपने लिये इतना पानी सहेज लेते थे कि आने वाले समय में इस बात की चिंता उन्हें नहीं सताती थी। घर-घर या मुहल्ले-मुहल्ले में चाहे नलें नहीं लागि हुई थी, पर जैसे कुएं, बावड़ी, जोहड़ आदि थे, वे सार्वजनिक थे और उनका ध्यान भी सब लोग रखा करते थे। कुएं, जोहड़, बावड़ी आदि के पास गंदगी फैलाना पाप और दंडनीय अपराध था। आजादी के बाद जब सरकार ने लोगों को पानी की सुविधा देनी शुरु की तो लोग पारंपरिक जलस्रोतों को उपेक्षित छोड़ भूल गए। आज वे अपनी बदतर हालत में नष्ट होने की कगार पर खड़े हैं। पानी को व्यवहार में लाने के लिये पुराने जमाने में कुछ नियम हुआ करते थे। सबसे पहली बात तो यह कि पानी को लेकर वे लापरवाह नहीं थे। एक कहावत प्रचलित थी कि आग कभी नहीं बुझनी चाहिए और पलींडे (पानी रखने का स्थान) में कभी पानी खत्म नहीं होना चाहिए। आज घरों में पलींडे रहे ही नहीं। शहरों के घरों में तो एक घड़ा भी मिल जाए तो गनीमत समझिए। पानी के मामले में लोग कितने किफायती थे- मेरे दादाजी ने बताया कि एक बार वे नोहर के किसी गाँव में बारात में गए। बारात के डेरे पर दो कुंड थे। एक बाराती पानी की दो बाल्टियाँ भर कर नहाने लगा तो घर का मालिक हाथ जोड़कर बोले- “ सगा जी ! (समधीजी) यह मीठा पानी पीने के लिये है। मैं दूसरा पानी मँगवा दूंगा। आप चाहे तो दूसरे कुंड में घी है, आप उससे नहा लें, पर पानी मत बर्बाद कीजिए।” आज, पानी के लिये क्या ऐसी चेतना लोगों में है?
पानी को लेकर जैसी भावना या संस्कार पुरानी पीढ़ी में थी, वह नई पीढ़ी में नहीं है। पुरानी पीढ़ी का आप यह अंधविश्वास मान सकते हैं कि वे जल को देवता मानते थे। आज पानी उपभोक्ता-वस्तु है, इसलिए दुरुपयोग भी बढ़ गया है। पश्चिमी देशों की जीवनशैली को अपनाने के कारण भी पानी का दुरुपयोग बढ़ा है। पहले लोग बाल्टी लेकर खुले में बैठकर नहा लिया करते थे। अब बाथ टब या फव्वारे से नहाने के कारण पानी तो ज्यादा लगेगा ही। इसी कारण वाशिंग मशीन में कपड़ा धोने के कारण सुख तो मिलने लगा, पर पानी का खर्च बढ़ गया। ‘फ्लश टॉयलेट’ में जितना पानी बर्बाद होता है वह पीने का पानी होता है। पहले हमारे यहाँ बर्तन राख से माँजे जाते थे। एक शब्द हुआ करता था राखुंड़ा अर्थात जहाँ राख से बर्तन माँजे जाते थे। अब तो गाँव तक में रसोई गैस पँहुच गई है। राख होगी तो राखुंड़ा होगा। आने वाले समय में राखुंड़ा शब्द किसी किसी शब्दकोश में ही मिलेगा। बर्तन धोने का रिवाज भी नहीं था। बर्तन माँज दिए और सूखे कपड़े से पोंछ दिए। आँगन भी कच्चे और गोबर से लीपे हुए होते थे। झाड़ू दिया और सफाई हो गई। चूल्हे-चौके की शुद्धता के लिये स्त्रियाँ रोज सुबह उठकर चौका लीपती थीं। अब फर्श पर धोने के लिये जितना पानी लगता है, उतने से एक छोटे परिवार के पीने के पानी का काम चल जाता है। इस तरह पानी का खर्च तो बढ़ गया, पर उसकी एक हद है। कहाँ से आएगा इतना पानी ?
प्राचीन भारतीय जीवन शैली प्रकृति से तालमेल बनाकर चलती थी। प्रकृति से अनुचित फायदा लेना या दोहन करना वे (पुराने लोग) पाप समझते थे। प्रकृति से जितना कुछ भी लेते उतना वापस लौटाने की कोशिश भी करते थे। अनाज हो या पानी, हर एक चीज में किफ़ायत करते थे। जीवन जीने में प्रदर्शन का भाव नहीं था। जरूरत के अनुसार ही किसी चीज का उपयोग करते थे। घर फालतू चीजों का कबाड़खाना नहीं था। आज पानी की बचत को लेकर या भंडारण के लिये जो तरीके सुझाए जाते हैं, वे पहले भी थे, पर लोग उन पर अमल नहीं करते थे।
आज इतने प्रचार-तंत्र के बावजूद लोग लापरवाह हैं क्योंकि उन्हें पानी आसानी से मिल जाता है। पहले कुएं से पानी लेकर घर पहुंचना युद्ध जीतने जैसा था। इस संदर्भ में एक कविता प्रस्तुत है –
सात-सात कोस
जाते थे चल के
करते थे सारी-सारी रात काली
कुएं की डोर खींचते-खींचते
ज़िंदगी को
साँसे छोटी पड़ गईं
भागते-भागते
पीछे के पीछे।
प्राकृतिक संसाधनों की भी एक हद होती है। प्रकृति मनुष्य की जरूरत तो पूरी कर सकती है, पर उसके लालच को पूरा नहीं कर सकती। जिस तरह आज मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उसकी कोख सूनी करता जा रहा है, आप सोचिए, क्या प्रकृति कभी बदल नहीं लेगी ? राजस्थान के बत्तीस जिलों में धरती के भीतर के पानी को लेकर तीन चौथाई से ज्यादा ‘डार्क ज़ोन’ में है। सबसे ज्यादा पानी की जरूरत खेती-बाड़ी और कारखानों में होती है। अपने देश की फसलें ज्यादातर मानसून पर आश्रित हैं। मानसून कब और कितना बरसेगा, यह किसी के वश में नहीं है। मानसून के काम बरसने पर बांध पानी से नहीं भर पाएंगे तो नहरें कैसे चलेंगी ? नहरें नहीं चलेंगी तो फसलों की सिंचाई खटाई में। अब बच गया धरती से पानी लेना। खींच लाओ। दिनोंदिन ‘वाटर लेवल’ गिरता जा रहा है। वैसे भी पानी नहीं होगा तो बिजली कैसे बनेगी ? सब कुछ ठप्प। पेट्रोलियम पदार्थों की एक हद है तो पानी की भी है।
पानी को लेकर बड़े देश और बड़े आदमी दोनों ही लापरवाह हैं क्योंकि जिनके पाँव में बिवाई नहीं फटी, वे क्या ही जाने पीर पराई ? बागवानी, गाड़ी धोना, छिड़काव, फ्लश टॉयलेट, स्नान घर, रसोई, आदि में बड़े लोगों के पचास घरों में जितना पानी लगता है, उतने पानी से गाँव के दो सौ घरों का काम चल सकता है। हालांकि पानी को लेकर गाँव के लोगों में भी पहले जैसी चेतना नहीं है, इसके बावजूद खेती के अलावा यहाँ पानी की लागत कम है। पानी के संदर्भ में लोगों की लापरवाही इस बात में देखी जा सकती है कि खुली नलें चलती रहती हैं और अमृत सरीखा पानी गंदी नालियों मेन बहता राहत है। आज बाजार मेंपीनेका साफ पानी दूध से भी ज्यादा महंगा पड़ता है।
दरअसल पानी के प्रबंधन के सिलसिले में देशों और राज्य की सरकारों को जिस दिशा में ध्यान देना चाहिए था, नहीं दिया गया। अपने देश में तो हालात यह है कि एक तरफ तो अकाल में लोग प्यासे मर रहे हैं और दूसरी तरफ बाढ़ में डूब रहे हैं। यदि बाढ़ के उस पानी का प्रबंधन ठीक से किया जाए तो बाढ़ और सूखा दोनों समस्याओं से निजात मिल सकती है। कौन करे ? राहत के काम दामों तरफ चलते हैं। कहावत है कि लड्डू टूटेगा तो दाने तो बिखरेंगे ही। अगर देश की सारी नदियां आपस में जुड़ जाए तो काफी हद तक सूखे और बाढ़ की समस्या हल हो जाएगी।
मनुष्य की नादानी और लालच के कारण ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याएं आज लगातार डरावनी होती जा रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण शिखरों की बर्फ पिघल कर समुद्र में जा रही है। पर्यावरणविदों के अनुसार आने वाले पचास-साठ वर्षों में गंगा नदी सूख सकती है। इसी तरह बारह महीने बहने वाली नदियाँ जो ग्लेशियरों से जुड़ी हुई हैं, उन पर भी खतरा मंडरा रहा है। समुद्र में पानी बढ़ने के कारण बांग्लादेश, मालदीवजैसे देश और समुद्र किनारे बसे मुंबई जैसे महानगरों पर भी खतरे मंडरा रहे हैं। पानी का यह डरावना रूप धरती पर प्रलय ला सकता है। पर्यावरण प्रदुषण के कारण और धरती पर अल्ट्रा वायलेट किरणों के पड़ने के कारण जो खतरनाक बीमारियाँ और खतरे मंडरा रहे हैं, उन सबका मुकाबला करने में मनुष्य अभी तक पूर्ण रूप से सक्षम नहीं है। उसकी भलाई ‘बचाव और सिर्फ बचाव’ में ही है।
इतने बड़े ब्रह्माण्ड में प्रकृति अपनी लीला में व्यस्त है। निर्माण और विनाश की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। पता नहीं सूरज, धरती, चाँद, तारे इस ब्रह्माण्ड में बने हैं, ख़त्म हुए हैं और बनते रहेंगे। इस बात से प्रकृति को तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘हिम युग’ है या ‘गर्म युग’; पर मनुष्य को ज़रूर पड़ेगा। अपने साथ-साथ मनुष्य जिव-सृष्टिकी कब्र भी खोदता जा रहा है। धरती, आकाश, पानी, समीर और आग सबका आपस में एक खास संतुलन है, इसलिए यह जिंदगी है, हरियाली है। संतुलन बिगड़ने पर क्या होगा, यह तो भविष्य ही बता सकता है। इसधरती पर जीवों के रहने लायक वातावरण बनने में करोड़ोंवर्ष लग गए, पर ख़त्म होने के लिए एक पल काफी है। इसलिएसावधानरहनाज़रूरी है।
धरती के दो तिहाई हस्सेमें समुद्र है। परपीने वाले पानी और सिंचाई के सन्दर्भ में कह सकते है- ‘पानी बिच मीन पियासी’। इस हालातों को देखते हुए ख़बरदार हो जाना चाहिए। सबसे पहले पुराने परम्परागत जलस्रोतोंकी खैर-खबर ली जानी चाहिए। उनमेंसुधार कर उनको पानी के भण्डारण योग्य बनाना चाहिए। सिंचाई के चालू तरीकों को छोड़कर नए तरीके ईजाद किये जाएं जिनमें कम से कम पानी का ज्यादा से ज्यादा उपयोगकिया जा सके। ऐसेबीजोंकी खोज कीजाये जो कम पानी में तैयार हो जाएं। हर एक शहर, कस्बे या गाँव में पानी को पुनर्चक्रित (Recycle)करबारी-बारी से उपयोग में लाया जाये। सबकी सहमति से राष्ट्रीय जल नीति बनाई जाये। और भी बहुत उपाय है जिनको अपनाकर भविष्य में जल-संकट का समना किया जा सकता है। वरना, ‘बिन पानी सब सून। ’ रहीम तो पहले ही कह चुके हैं। इसलिए सिर पर मंडराते खतरे को देखते हुए आज समाज को अपना रहन-सहन और जीवनशैली बदल लेनी चाहिए।
मूल : डॉ. मंगत बादल,‘बातरी बात’
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