(ऋतेश पाण्डेय चर्चित संस्कृतिकर्मी हैं और नीलाम्बर के सचिव हैं। आमतौर पर स्त्रियों की समस्याओं पर इस कदर की गम्भीर बात को सहज अन्दाज में कह जाना आसान नहीं होता। ऋतेश जी बहुत कम लिखते हैं मगर जो भी लिखते हैं, आप उसे पढ़कर सोचेंगे जरूर। मासिक धर्म यानी पीरियड्स को लेकर लिखी गयी यह पोस्ट हमारे समाज और परिवारों में व्याप्त भ्रान्तियों के साथ उस सोच को भी सामने रखती है जिस पर बात करना समय की माँग है। इस बार सोशल मीडिया से यह जरूरी बात….)
बात उन दिनों की है जब whisper napkins बाज़ार में नए – नए आए थे या शायद मुझे पहली बार दिखे थे। तब तक दूरदर्शन पर “धोना, सुखाना, गया वो ज़माना” वाला प्रचार नहीं आया था, और हम मासिक धर्म जैसे शब्द से बिल्कुल अनजान थे।
कोई तीस-पैंतीस वर्ष पहले की बात है। जी. टी. रोड, पिलखाना के पास नए-नए अपार्टमेंट उभरने लगे थे। उनमें नई-नई सुंदर सजी चकमक दुकानें खुलने लगीं थी। जहाँ WELL PACKAGED वस्तुएँ हमें ललचाया करतीं। यह उन दिनों की बात है जब हमारे लिए ब्रेड मतलब कि पाव रोटी रिहायशी चीज़ हुआ करती थी।
तो हुआ ये कि WHISPER के पैकेट पर मेरी नज़र बार-बार अटक जा रही थी। नीले रंग का बड़ा ही सुंदर पैकेट । बार-बार मेरा ध्यान उधर ही चला जाता। सुंदर पैकेट मतलब बढ़िया ब्रेड। क्योंकि मँहगे और स्वादिष्ट मिल्की पाव रोटी के पैकेट भी बड़े सुंदर हुआ करते थे। (बता देना चाहता हूँ कि WHISPER के पैकेट मैंने पहली बार किसी MEDICAL STORE में नहीं General Store में देखा था
तो साहब एकदिन जब नहीं रहा गया, मैंने जाकर दुकानदार से उस नए नीले पैकेट वाले ब्रेड के बारे में पूछ दिया और उसकी कीमत जाननी चाही। पहले तो वह मुझे आश्चर्य से देखता रहा। फिर मुस्कराने लगा। अंत में हँसते हुए बोला.. बाबू ये खाने की चीज नहीं है। ये औरतों की चीज है और मैं झेंपता हुआ मन में कई सवालों से जूझता चला आया।
टॉयलेट में झूलते कपड़े
हमारे बचपन का बड़ा हिस्सा ऐसे मकान में गुज़रा जहाँ सार्वजनिक टॉयलेट ही इस्तेमाल होते थे। जहाँ घटित और पकड़ी गईं कई “टॉयलेट-एक प्रेम कथा” हमारे कानों में अब तक गूँज रहीं हैं। इन टॉयलेट्स में अक्सर झूलते कपड़ों के टुकड़ों ने मेंरे मन में जिज्ञासा पैदा की। वे वहाँ क्यों हैं? किस काम आती हैं? एक वाकया मुझे याद आता है जब पिता जी रूई का बड़ा-सा बंडल लेकर आए थे। अगले दिन दुकान पर ले जानी वाली चीजों की तैयारी में वे लगे थे। हमेशा की तरह हम सहयोग कर रहे थे। हमारे एक दूर के फुफेरे चाचा जिनका नाम मकरध्वज मिश्रा था, और लोगों ने बिगाड़कर जिसे मुकुरधुज कर दिया था। वह वहीं आए हुए थे। वे लगातार पिता जी से उस रूई के बंडल के बारे में पूछे जा रहे थे। उनकी मुस्कराहट बता रही थी कि वे समझ रहे थे कि वह बंडल क्योंकर आया होगा। वे नर्लज्ज से प्रश्न किए जा रहे थे। पिता जी बात को टालते रहे थे। मैं जब भी उस घटना के बारे में सोचता हूँ तो मन करता है कि सारी मर्यादाओं को भूलकर उन्हें दो टुक सुनाऊँ और एक चमाट जड़ दूँ।
आज भी जब Medical Store Sanitary Napkins काले पैकेट में दिया करते हैं। तब सोचता हूँ कि हम कितने आधुनिक और समझवाले बन पाए हैं? साथ ही उन दिनों सार्वजनिक संडास,टॉयलेट्स का उपयोग करती अपनी माँ, चाची और मौसी और उनके जैसी महिलाओं की समस्याओं और झेंपों को महसूस कर परेशान और लज्जित होता हूँ, यह जानते हुए कि लोखों, करोड़ों महिलाएँ आज भी वैसी ही समस्यायों का सामना कर रही हैं।
महागुरु ज्ञान और कौआ छूना
11वीं में जब पहुँचे तो राय जी हिंदी टीचर मिले। अपने को काफ़ी ‘बोल्ड’ टाइप ज़ाहिर करते थे। उदाहरण के लिए पढाते -पढाते एक दिन जाने कौन-से प्रसंग पर कहने लगे कि विदेशी कुत्तों का क्या कहना! वे इतने मँहगे साबुन और शैंपू से नहाते हैं जितने हमारे बीच बैछे कुछ विद्यार्थियों के घर के महीने का खर्च होगा… और कि वे मँहगी गाड़ियों में घूमते हैं… और कि वे सुंदर धनी ललनाओं की गोद में बैठते है… और.. और वे बताते कि वे कुत्ते उन ललनाओं के किन -किन अंगों को छूते हैं… साहब! वर्णन कुछ ऐसा होता कि कुछ विद्यार्थी, कुछ क्या लगभग सभी के मन में गुदगुदी होने लगती… और तभी वे अचानक किसी एक विद्यार्थी से पूछ बैठते –“क्यों ठाकुर, क्या सोचने लगे…” फिर मुस्करा कर कहते। “देखो ये सपने में कुत्ता बन गया था। अरे नालायक तुम कुत्ता तो बनोगे… लेकिन सड़क वाला… ” और फिर पूरे क्लास में ठहाका गूँज उठता। बाद में पता चला कि वे अपने हर बैच को यह सुनाया करते थे और खुद को बच्चों का प्रिय बनाया करते थे।
बहरहाल एक दिन जाने क्या प्रसंग आया कि गुरू जी मासिक धर्म पर कुछ बताने लगे और कहा कि मासिक धर्म में जो रक्त बहता है, उसकी एक बूँद भी जहाँ गिर जाए वह स्थान अपवित्र और बंजर हो जाए… और कि उसका स्पर्श करने वाले भयंकर नर्क का अधिकारी बनता है। और जाने क्या-क्या भयानक बता गए वे जो हम ठीक से समझ भी न पाए। इस विषय़ में तब भी हम अज्ञानी से ही थे। पर डर तो हम गए ही।
बहुत जल्द ही हमें उनके इस विचार और वैसे विचार वालों का व्यावहारिक दुष्परिणाम दिख गया। बारहवीं पास करने के बाद ज़ेब खर्च के लिए हम ट्यूशन करने लगे। एक ट्यूशन में भाई-बहन दो विद्यार्थी पढते थे। राजस्थानी ब्राह्मण थे। दधीची कुलनाम वाले। तो हुआ यों कि एक दिन ट्यूशन के दौरान पानी-वानी, चाय-वाय सब शिष्या ने ही दिया। और दूसरे दिन भी दुहराया। मैंने गौर किया कि उसकी माँ फ्लैट के हॉल में ही एक कोने में पड़ी रहती हैं। मैं शिष्या से पूछ दिया। माँ की तबीयत खराब है क्या? शिष्या ने बताया कि उन्हें कौआ छू गया है। कौआ छू गया है..! मतलब? माने कैसे कौआ छू गया, और छूगया तो छू गया इसमें ऐसा क्या हो गया? मैंने पूछना चाहा पर जाने क्यों पूछा नहीं। अनुभव ने बता दिया कि यह कोई सचमुच के कौआ छूने वाला टोटका नहीं हो सकता। फिर यह कौआ छूने वाली घटना हर महीने रीपीट होने लगी। फिर दूसरे ट्यूशन में भी ऐसा देखने को मिला। तो बिना पूछे भी बातें स्पष्ट होने लगीं। बाद में तो दोस्तों से इसपर बात भी हुई। बहरहाल तब मुझे गुरू जी का कक्षा में दिया गया वक्तव्य बेहतर समझ आने लगा।
पिछड़ापन तो है फिर भी मुझे इस बात की खुशी है, कि मेरे घर-परिवार में, मेरे गाँव में शयाद मेरे अंचल में भी, कहीं किसी महिला को उसके इस जैविक क्रिया के कारण “कौआ छुने”, अपनो के बीच ही पृथक जीने की सज़ा जैसी व्यवस्था को नहीं झेलना पड़ता। ऐसा ना मेरी पत्नी के साथ है। न माँ को ऐसे देखा न दादी को। इस बात पर अपने पूर्वजों को बड़ा वाला थैंक्यू।