मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सर्वोत्तम सेवक, सखा, सचिव और भक्त श्री हनुमान थे। प्रभु राम की भारतीय जनमानस में जिस प्रकार पूजा की जाती है, ठीक उसी प्रकार उनके प्रिय सेवक हनुमान जी की भी पूजा की जाती है। राम परिवार में ऐसा कोई नहीं है जिसका स्वयं का मंदिर हो। श्री हनुमान जी को रुद्रावतार भी मन जाता है। इनकी पूजा पूरे भारत और दुनिया के अनेक देशों में इतने अलग-अलग तरीकों से की जाती है कि इन्हें ‘जन देवता’ की संज्ञा दी जा सकती है।
गोस्वामी तुलसीदास जी तो श्री हनुमान के लिए कहते हैं :
“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, अनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।”
अर्थात अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत के समान कांतियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
श्री हनुमान अतुल बल के स्वामी थे। उनके अंग वज्र के समान शक्तिशाली थे। अत: उन्हें ‘वज्रांग’ नाम दिया गया, जो बोलचाल में बजरंग बन गया। यह बजरंग केवल गदाधारी महाबली ही नहीं हैं, बल्कि विलक्षण और बहुआयामी मानसिक और प्रखर बौद्धिक गुणों के अद्भुत धनी भी हैं। यदि कोई उनसे विश्राम की बात करता तो उनका उत्तर होता था- मैंने श्रम ही कहाँ किया, जो मैं विश्राम करूं? उनके चित्र व्यायामशालाओं में जिस भक्तिभाव के साथ लगाए जाते हैं, उतनी ही श्रद्धा के साथ प्रत्येक शिक्षा और सेवा संस्थान में भी लगाए जाने चाहिए।
छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य निर्माण की विस्तृत लेकिन गहरी नींव रखने के लिए उनके गुरु समर्थ श्री रामदास द्वारा गाँव–गाँव में अनगढ़े पत्थरों को सिन्दूर लगाकर श्री हनुमान के रूप में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की गई। आज से 300 से ज्यादा वर्षों पहले यह महान राष्ट्रीय उपक्रम हुआ।
केवल भारत ही नहीं, सारे संसार के लिए किसी आदर्श व्यक्तित्व के चयन की समस्या आ जाए तो श्री हनुमान का जीवन निश्चित रूप से सर्वाधिक प्रेरक सिद्ध हो सकता है। वे राम-सेवा अर्थात सात्विक सेवा के शिखर पुरुष ही नहीं थे बल्कि अनंतआयामी व्यक्तित्व विकास के महाआकाश थे।
अखंड ब्रह्मचर्य और संयम की साधना से जो तेजस् और ओजस् उन्होंने अर्जित किया था, वह अवर्णनीय है। बालपन से ही वे सूर्य साधक बन गए थे। सूर्य को उन्होंने अपना गुरु स्वीकार किया था। उनकी दिनचर्या सूर्य की गति के साथ संचालित होती थी। आगे जाकर सौर-अध्ययन के कारण वे एक अच्छे खगोलविद् और ज्योतिषी भी बने।
एक शिशु के रूप में वे ज्यादा ही चंचल तथा उधमी थे। किसी शिलाखंड पर गिरने से उनकी ठुड्डी (हनु) कट गई गई थी, जिससे उनका हनुमान नाम पड़ गया। एक जैन मान्यता के अनुसार वे एक ऐसी जाति और वंश में पैदा हुए थे जिसके ध्वज में वानर की आकृति बनी रहती थी। धर्मशास्त्रों में आत्मज्ञान की साधना के लिए तीन गुणों की अनिवार्यता बताई गई है- बल, बुद्धि और विद्या। यदि इनमें से किसी एक गुण की भी कमी हो, तो साधना का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। सबसे पहले तो साधना के लिए बल जरूरी है। निर्बल व कायर व्यक्ति साधना का अधिकारी नहीं हो सकता है। दूसरा, साधक में बुद्धि और विचार शक्ति होनी चाहिए। इसके बिना साधक पात्रता विकसित नहीं कर पाता है। तीसरा अनिवार्य गुण विद्या है। विद्यावान व्यक्ति ही आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
हनुमान जी के जीवन में इन तीनों गुणों का अद्भुत समन्वय मिलता है। इन्हीं गुणों के बल पर वे जीवन की प्रत्येक कसौटी पर खरे उतरते हैं । रामकथा में हनुमानजी का चरित्र अत्यंत प्रभावशाली है। प्रभु श्रीराम के आदर्शो को मूर्त रूप देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
रामायण में सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामायण कथा श्रीराम के गुणों और उनके पुरुषार्थ को दर्शाती है किन्तु सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है, जो सिर्फ हनुमानजी की शक्ति और विजय का कांड है। यह अतिसुंदर है इसलिए सुंदरकांड नाम पड़ा। इस कांड में श्रीहनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन और लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं। इस सोपान के मुख्य घटनाक्रम है –
श्री हनुमान का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से भेंट करके उन्हें श्री राम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसी।
हनुमान जी का संवाद कौशल विलक्षण है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अशोक वाटिका में जब वे पहली बार माता सीता से मिलते हैं तब दिखाई देता है। वे अपनी बातचीत से न सिर्फ उन्हें भयमुक्त करते हैं, बल्कि उन्हें यह भी भरोसा दिलाते हैं कि वे श्रीराम के ही दूत हैं- “कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास ।।” यह कौशल आज के युवा उनसे सीख सकते हैं।
इसी तरह समुद्र लांघते वक्त देवताओं के कहने पर जब सुरसा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही, तो उन्होंने अतिशय विनम्रता का परिचय देते हुए उस राक्षसी का भी दिल जीत लिया। वह श्री हनुमान का बुद्धि कौशल व विनम्रता देख दंग रह गई और उसने उन्हें कार्य में सफल होने का आशीर्वाद देकर विदा कर दिया। यह प्रसंग सीख देता है कि केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है, विनम्रता से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।
महावीर हनुमान ने अपने जीवन में आदर्शों से कोई समझौता नहीं किया। लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वे उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया।
श्री हनुमान के जीवन से हम शक्ति व सामर्थ्य के अवसर के अनुकूल उचित प्रदर्शन का गुण सीख सकते हैं। तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैं- ‘सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा, विकट रूप धरि लंक जरावा।’
सीता माता के सामने उन्होंने स्वयं को लघु रूप में रखा, क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे, लेकिन संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए। अवसर के अनुसार स्वयं को ढाल लेने की हनुमानजी की प्रवृत्ति अद्भुत है। जिस वक्त लक्ष्मण रणभूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरा पर्वत ही उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। अपने इस गुण के माध्यम से वे हमें तात्कालिक विषम स्थिति में विवेकानुसार निर्णय लेने की प्रेरणा देते हैं।
हनुमान जी हमें भावनाओं का संतुलन भी सिखाते हैं। उनका व्यक्तित्व आत्ममुग्धता से कोसों दूर है। सीता माँ का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की हर तरफ प्रशंसा हुई, लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। जब श्रीराम ने उनसे पूछा- ‘हनुमान ! त्रिभुवनविजयी रावण की लंका को तुमने कैसे जला दिया? तब प्रत्युत्तर में हनुमानजी ने जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमानजी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए– “सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ।।”
भारतीय-दर्शन में सेवाभाव को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यह सेवाभाव ही हमें निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करता है। अष्ट चिरंजीवियों में से एक महाबली हनुमान अपने इन्हीं सद्गुणों के कारण देवरूप में पूजे जाते हैं और उनके ऊपर ‘राम से अधिक राम के दास’ की उक्ति चरितार्थ होती है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं- जब लोक पर कोई विपत्ति आती है तब वह त्राण पाने के लिए मेरी अभ्यर्थना करता है, लेकिन जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके निवारण के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूं। हनुमान जी के जीवन का एक ही मंत्र था – ‘राम काज किन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम…’
जिस प्रकार हनुमान जी श्रीराम के भक्त हैं उसी प्रकार हम सभी को भारत माता का सेवक बनना होगा। आज हमारा देश ही नहीं अपितु यह सारा संसार ही महामारी से ग्रसित है, पीड़ित है। ऐसे में भारत जैसे युवा देश में युवाओं की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। संकट की इस घड़ी में समाज की रक्षा हेतु श्री हनुमान जी की भांति ही हमें भी अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना चाहिए। युवा शक्ति को हनुमान जी की पूजा से अधिक उनके चरित्र को आत्मसात करने की आवश्यकता है, जिससे भारत को उच्चतम नैतिक मूल्यों वाले देश के साथ-साथ ‘कौशल युक्त’ भी बनाया जा सके।
(शुभांगी उपाध्याय कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और विवेकानंद केंद्र के पश्चिम बंग प्रान्त में विभाग युवा प्रमुख भी।)