180 साल पहले फिर से बनवाया गया था मंदिर
हिमाचल प्रदेश की कालीधार पहाड़ी पर ज्वाला देवी मंदिर में देवी को ज्योता वाली माँ भी कहा जाता है, क्योंकि मां के नौ रूप यहाँ अग्नि के रूप में हैं। बगैर तेल और बाती के यह ज्योत वर्षों से जल रही है। इस बार प्रबन्धन ने स्वच्छता के लिए यहां प्लास्टिक की थैली, थाली और ग्लास पर प्रतिबंध लगा दिया है। नवरात्र के आरंभिक दिनों में 50 से 60 हजार भक्त रोज आएंगे तो अंतिम दिनों में संख्या एक लाख के पार कर जाएगी।
मंदिर के पुजारी संदीप शर्मा बताते हैं कि यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस बार नवरात्र में 8 से 10 लाख लोगों के आने का अनुमान है। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला जी चांदी के दीये के बीच स्थित हैं। उन्हें महाकाली कहा जाता है। अन्य आठ ज्वालाओं में मां अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका और अंजी देवी हैं। मान्यता है कि इसी जगह पर मां सती की जिह्वा गिरी थी।
दिन में 5 बार होती है आरती
आरती के समय सुन्दर नजारा होता है। दिन में 5 बार आरती होती है। सुबह पांच बजे पहली आरती में मालपुआ, खोआ, मिस्री का प्रसाद चढ़ाया जाता है। एक घंटे बाद दूसरी आरती में पीले चावल और दही का भोग लगता है। तीसरी आरती दोपहर में होती है। इसमें चावल, छह दालों व मिठाई का भोग होता है। शाम को चौथी आरती में पूरी-चना और हल्वे का भोग। रात नौ बजे शयन आरती, सौंदर्यलहरी का गान और सोलह शृंगार होता है। इसके बाद मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। नवरात्र पर यहाँ विशेष मेला लगता है, जो 8 अक्टूबर तक चलेगा। वर्तमान मंदिर का पूरा निर्माण महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में करवाया था। मुख्य मंदिर के पास गोरखनाथ का मंदिर भी है। पास ही गोरख डिब्बी है, जो एक कुंड है। कुंड का पानी खौलता हुआ दिखता है, लेकिन छूने पर ठंडा होता है।