मेघे ढाका तारा -‘सेपरेशन इज इसेंशियल’

डॉ. विजया सिंह

काफी मुश्किलों के बाद और माँ की अतिशय (और कई बार अचम्भित कर देने वाली) साहसिकता के कारण ‘मेघे ढाका तारा‘(मेघाच्छादित नक्षत्र) देख ही आई. यह फिल्म बंगाल के प्रसिद्ध फिल्मकार और पटकथा लेखक रित्विक घटक के जीवन और कार्यों के साथ तत्कालीन परिस्थितियों (बंगाल के अकाल, प्रमुख आंदोलनों, स्वतंत्रता प्राप्ति( हस्तांतरण), असंतोष, कम्युनिष्ट पार्टी के दलीय मतभेद, फूट) को लेकर कलाकार के चेतन और अवचेतन के स्तर पर क्रिया प्रतिक्रिया और अंतःक्रिया की मोटी-महीन बुनाई करती चलती है. गौरतलब है कि रित्विक घटक ने स्वयं भी इस नाम से फिल्म बनाई है. कमलेश्वर मुखर्जी द्वारा निर्देशित यह फिल्म मुझे बेहतरीन लगी. शाश्वत चटर्जी और अनन्या चटर्जी ने नीलकंठ बागची और दुर्गा बागची के रूप में दो प्रेम करने वाले संवेदनशील लोगों की कहानी कही हैं जिनके बीच का अलगाव ही सत्य है, जरूरी है. तंगहाल दुर्गा कहती भी है -‘सेपरेशन इज इसेंशियल’.

क्या कलाकार, रचनाकार होना ही लगभग आत्महंता होना है? बार-बार लगता है कि ईमानदार रचनाकार ‘जो है’ और ‘होना चाहिए’ के द्वंद्व में सारे दाँव हारता जाता है. कहने की अपार कोशिशों के बाद उसे पता चलता है कि कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता. हाथों से फिसलते जाते सारे तंतु दिमाग और दिल का संतुलन बिगाड़ने लगते हैं. इलेक्ट्रिक शॉक में बेदम होता नीलकंठ डॉक्टर से कहता है कि हजारों बोल्ट के विचार हमेशा उसके दिमाग में चहलकदमी करते हैं. इतने इलेक्ट्रिक शॉक से तो उसे केवल सुरसुरी होती है. ऐसी दुर्दांत चेतना के साथ क्या अकेले हो जाना संभव है…नहीं..बिल्कुल नहीं. लेकिन संयम और संतुलन के बिना तो स्व-विनाश को खुला आमंत्रण भी देना है. गरीबी जनित अभावों, महत्वाकांक्षा तथा मोहभंग के कारण स्वयं से ही उसका संबंध टूट जाता है. वह इतना अकेला हो गया है कि वह खुद भी अपने साथ नहीं और दुर्गा बच्चों के साथ बिल्कुल अकेली..

सामान्य से इतर गहन अनुभूति, पक्षधरता, सिद्धांत तथा मानव सत्य की बात करने वाला क्यों एक पल में समझौताहीन महामानव लगता है जो पागलखाने में पागलों के साथ ही एक नाटक का मंचन कर डालता है और दूसरे ही पल में एक ऐसा इंसान जिसे अपने काम की धुन में पत्नी, तीन बच्चों का कोई ख्याल नहीं रहता. चेतन-अवचेतन में दौड़ लगाते नीलकंठ के लिए असफलता का अवसाद ही सच है. वह जानता है कि पैसा नहीं काम ही बचा रह जाएगा अनवरत (तुम देखना), कि उसका विश्वास सभी में एक मनुष्य होने में है जो धोखेबाज नहीं, कायर नहीं. वहीं बहुत-बहुत प्यार करने वाली पत्नी जो उसकी बीमारी, बढ़ते अतिवाद, न छूटने वाले नशे और परिवार की जद्दोजहद में नौकरी करती है, पढ़ाई करती है. नौकरी व बच्चों के साथ दूर चली जाना चाहती है. वह समझ चुकी है कि नीलकंठ उससे अनजानी दूरियों तक छिटक गया है. उसकी परेशानियाँ वह जानता भले हो पर कर कुछ भी नहीं सकता. वह जब भी उसकी ओर देखती है या उसे सुनते हुए जबरन दूसरी ओर देखने लगती है तो लगता है मानो हताशा में उसके गालों के गड्ढे कहीं ज्यादा गहरे हो गए हैं. जिम्मेदारियों ने साड़ी को गंदला कर दिया है.

उसका सच, उसका जीवन, उसकी चेतना नीलकंठ से इतनी भिन्न हो गई है कि शायद एक-दूसरे को समझना-समझाना-चाहना-बने रहना मुश्किल हो गया है. नीलकंठ को धैर्यहीन सृजन करना है, दुर्गा को बचे हुए को प्राणपण से बचाना है. मनुष्य व उसके सत्य का अर्थ उसके लिए जीवन के उलझे तारों को फिर से करीने से पिरोना है. बाकी शेष बचाना लेना है, संभालना है, संवारना है. वह स्त्री है, तीन बच्चों की माँ है. नीलकंठ को सामाजिक-बौद्धिक दुनिया के लिए प्रतिबद्ध होना है जबकि दुर्गा के लिए दुनिया तो उसके निज के संसार में आसन्न उपस्थित है. उसकी दुनिया में उसके भूखे बच्चे हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिंता है, अदद नौकरी की जरूरत शामिल है. उसे भी अपनी सृष्टि की रक्षा करनी है, संजोना है. निश्चित रूप से उसकी और नीलकंठ की जद्दोजहद दो महत्वपूर्ण रचना संसारों के निर्माण से संबंद्ध है. भिन्न किंतु आवश्यक. साथ चलकर एक दूसरे की बची-खुची शक्ति को छीन लेना प्यार का, जीवन का अपमान ही तो है. ऐसे में अलगाव ही उसका एकमात्र बचाव है. निर्णय दुर्गा का है. वही यह फैसला कर सकती है, उसमें ही यह ताकत है और उसके लिए यह जरूरी भी है. नीलकंठ अपने ही तीव्र वेग में खोया निर्णय लेने की ताकत को खो चुका है. अतएव दुर्गा चुनती है और नीलकंठ स्वीकार करता है. सर्जक होने की कीमत दोनों चुकाते हैं.

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