मुम्बई हमला / 17 जवानों की शहादत पर पुलिस में इतना गुस्सा था कि कसाब को मार डालते: पूर्व आईपीएस

नयी दिल्ली : 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए हमले के आज 10 साल पूरे हो गए। लेकिन 26/11 का दर्द अब भी सालता है। हमले में 166 से ज्यादा लोग मारे गए थे। पाकिस्तान से आए 10 आतंकियों से लोहा लेते हुए 17 सुरक्षाकर्मी भी शहीद हो गए थे। इन्हीं में शामिल थे- मुंबई एटीएस चीफ हेमंत करकरे, एसीपी अशोक कामटे और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर।
यह संयोग ही था कि तीनों के साथ काम कर चुकीं आईपीएस ऑफिसर मीरा बोरवांकर की अगुवाई में एक मात्र जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को हमले के 6 साल बाद फांसी दी गई। हमले के 10 बरस पर साहस और शहादत की कहानी मीरा की ही कलम से…
उस रोज मैं दिल्ली में थी। भतीजी की शादी की भारी थकान के बाद गहरी नींद में सो रही थी। तभी भाई ने झकझोर कर जगाया। पूछा- क्या आप हेमंत करकरे को जानती हैं? मेरा जवाब था- हां…हां। भाई ने कहा- ‘वे नहीं रहे।’ मेरे लिए ये अविश्वसनीय था। एक शाम पहले खबर मिली थी कि मुंबई के कोलाबा में दो गुटों के बीच भिड़ंत हुई है और अब हेमंत की खबर। मैं छुट्टी कैंसल कर पुणे के सीआईडी हेडक्वार्टर पहुंची। पर मेरे वहां पहुंचने तक अंतिम संस्कार ही बाकी रह गया था।

हेमंत को मैं 20 साल से जानती थी। वे पहले कॉर्पोरेट सेक्टर में जॉब करते थे, फिर लोगों की सेवा की खातिर पुलिस जॉइन की। यही वजह थी कि हेमंत काफी व्यवस्थित किस्म के थे। लोगों तक पहुंचने, उनकी मदद करने के अलावा हेमंत की कम्युनिकेशन स्किल भी गजब की थी। जब मैं मुंबई क्राइम ब्रांच की जॉइंट कमिश्नर थी, तो एक रोज हेमंत मेरे चैंबर में आए। बताया कि वे एक बार फिर महाराष्ट्र पुलिस को रिपोर्ट करेंगे, ताकि एटीएस को लीड कर सकें। उनकी बात सुनकर मैं हैरान थी। तब वे बड़े असाइनमेंट के लिए विदेश में तैनात थे। लेकिन अब मैं जान गई थी कि हेमंत को ये अच्छे से पता रहता है कि उन्हें क्या करना है। हेमंत देश के लिए शहीद हुए। अब बात अशोक कामटे की। मेरे चार्ज संभालने से पहले अशोक सतारा पुलिस चीफ थे। मैंने उनके बारे में सुना था कि वे युवा और डायनेमिक ऑफिसर हैं। अवैध शराब और जुए के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर रहे हैं। शोलापुर में तो उनकी हीरो की छवि थी। इसकी वजह थी कि गलत काम पर बड़े से बड़े नेता को भी नहीं बख्शते थे। मुझे याद है कि एक बार अशोक ने मुझे थाणे एसपी के तौर पर डिनर पर बुलाया। करीब एक घंटे तक तो वे मुझे अपने निजी हथियारों का कलेक्शन ही दिखाते रहे। डिनर भी देर से कर पाए। ये उनके जुनून की बानगी थी। विजय सालस्कर; जिनके साथ मैंने 3 साल मुंबई क्राइम ब्रांच में काम किया। विजय की 2 पहचान थीं- हमेशा अच्छे से ड्रेस-अप होना और सबसे प्यार से बात। उन्हें देखकर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था कि वे मुंबई के सबसे जांबाज ऑफिसर हैं। विजय के इन्फॉर्मेशन सोर्स कमाल के थे और वे इन सोर्स को लेकर काफी संवेदनशील भी रहते थे। विजय और उनकी टीम में भी गजब की बॉन्डिंग और आपसी सम्मान था। मुंबई हमले में हमने इन तीनों को खो दिया। हमारे पुलिसकर्मी इतने गुस्से में थे कि वे कसाब को मार डालना चाहते थे। पर सबने समझदारी से काम लिया, क्योंकि कसाब के जरिए हमें पाकिस्तान की कई और साजिशों का पता चलना था। जो चला भी। मेरे लिए कसाब आतंकवाद के खिलाफ हमारी कमतर तैयारियों का प्रतीक था। खैर, जिस अंत का वो हकदार था, वो उसे मिला। जय हिंद।’
‘फांसी की प्रक्रिया पूरी टीम को निचोड़ देती है’
लोग मुझसे पूछते हैं कि कसाब की फांसी के वक्त मेरे दिलो-दिमाग में क्या चल रहा था? लोगों को लगता होगा कि उस वक्त तो मैं बहुत गौरवान्वित रही होंगी। ऐसा कुछ नहीं था। उन्हें कैसे समझाऊं कि किसी को फांसी पर चढ़ाया जाना एक बेहद जटिल कानूनी प्रक्रिया होती है। ये आपको और आपकी टीम को पूरी तरह निचोड़कर रख देती है।

(साभार – दैनिक भास्कर)

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