महिला आरक्षण कानून……..पथरीली राह, अड़चनें हजार, लक्ष्य अब भी बाकी है

शुभजिता फीचर्स डेस्क
संसद के विशेष सत्र के दौरान पास हुए महिला आरक्षण बिल को राष्‍ट्रपति की मंजूरी मिल गई है । राष्‍ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने इस बिल पर अपने हस्‍ताक्षर कर दिया है, जिसके बाद इसने कानून की रूप ले लिया है । राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की सहमति मिलते ही भारत सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक के लिए एक गजट अधिसूचना जारी कर दी है । इसके साथ ही पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार ने देश की आधी आबादी से किए अपने वादे को पूरा कर दिया है । बता दें कि संसद में इस बिल को ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ के नाम से पेश किया गया था, जो अब कानून बन गया है । महिला आरक्षण कानून बनने के बाद अब देश की संसद के दोनों सदन – लोकसभा और राज्‍यसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो गई हैं. साथ ही देश के तमाम राज्‍यों की विधानसभाओं में भी महिलाओं को 33 प्रतिशत रिजर्वेशन का हक मिल गया है । अब देश की संसद सहित सभी विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी गई हैं । इससे पहले सर्वदलीय बैठक में राजनीतिक दलों के कई नेताओं ने महिलाओं के लिए आरक्षण पर जोरदार वकालत की थी । पर रास्ता इतना भी आसान नहीं था…रास्ता अब भी आसान नहीं है….फिर भी चलिए पलटते हैं पन्नों को और देखते हैं बिल के कानून बनने तक की यात्रा –
मार्च 2010 की दोपहर। राज्यसभा में अफरा-तफरी मची थी । समाजवादी पार्टी के सांसद नंद किशोर यादव और कमाल अख्तर चेयरमैन हामिद अंसारी की टेबल पर चढ़ गए और माइक उखाड़ने की कोशिश की । राष्ट्रीय जनता दल के राजनीति प्रसाद ने बिल की कॉपी फाड़कर चेयरमैन की तरफ उछाल दी। लोकजनशक्ति पार्टी के साबिर अली और निर्दलीय सांसद एजाज अली ने भी डिस्कशन रोकने की कोशिश की । 8 मार्च 2010 को राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी की टेबल से महिला आरक्षण विधेयक की कॉपी खींचने और माइक तोड़ने की कोशिश करते सांसद। ये तस्वीर राज्यसभा टीवी के प्रसारण के दौरान लिया गया स्क्रीनशॉट है।
8 मार्च 2010 को राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी की टेबल से महिला आरक्षण विधेयक की कॉपी खींचने और माइक तोड़ने की कोशिश करते सांसद। ये तस्वीर राज्यसभा टीवी के प्रसारण के दौरान लिया गया स्क्रीनशॉट है।
ये लोग महिला आरक्षण विधेयक का विरोध कर रहे थे। अगले दिन यानी 9 मार्च 2010 को हंगामा करने वाले सभी 7 सदस्यों को सस्पेंड कर दिया गया और मार्शल उन्हें पकड़कर बाहर ले गए। इसके बाद विधेयक पर वोटिंग हुई। इसके पक्ष में 186 मत पड़े और विरोध में सिर्फ 1 वोट। BSP वॉकआउट कर गई थी और TMC ने वोटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया। पहली बार प्रस्तावित होने के 14 साल बाद महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया। उसके बाद से 13 साल हो गए, ये बिल लोकसभा में पास नहीं हो सका। अब 2023 में मोदी सरकार ने भी इसे लोकसभा में पेश कर दिया है। अब ये पारित हो गया, राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब यह कानून बन चुका है । लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित होने जा रही है ।

यूनाइटेड फ्रंट सरकारः पहली कोशिश की, लेकिन सुझावों में अटकी
1996 में 13 दलों की गठबंधन वाली यूनाइडेट फ्रंट सरकार ने इस दिशा में पहली कोशिश की थी। उस समय के कानून मंत्री रमाकांत डी खलप ने संविधान में 81वें संशोधन के लिए संसद में एक बिल पेश किया। इसके तहत संविधान में दो नए कानून अनुच्छेद 330A और 332A जोड़ा जाना था ।
जनता दल समेत सरकार को समर्थन देने वाली कई पार्टियों ने इस बिल का विरोध कर दिया। इस विरोध से सरकार घबरा गई। आखिरकार बिल को 31 सांसदों वाले एक संयुक्त समिति के पास विचार करने के लिए भेज दिया गया । भाकपा नेता गीता मुखर्जी इस कमेटी की अध्यक्ष थीं। नीतीश कुमार, मीरा कुमार, ममता बनर्जी, सुमित्रा महाजन, शरद पवार, उमा भारती, राम गोपाल यादव, सुशील कुमार शिंदे जैसे सांसद इस कमेटी के सदस्य थे। इस कमेटी ने कई सुझाव दिए…
इस बिल में ज्यादा आपत्ति महिला आरक्षण को लेकर लिखे गए एक शब्द ‘एक तिहाई से कम नहीं’ को लेकर थी। उनका कहना था कि ये शब्द अस्पष्ट है। इस शब्द की व्याख्या अलग-अलग तरह से हो सकती है । इस शब्द को ‘एक तिहाई के जितना करीब संभव हो सके’ लिखा जाना चाहिए।

राज्यसभा और विधान परिषदों में महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए। इसके साथ ही अन्य पिछड़ा वर्ग यानी OBC को भी आरक्षण का उचित लाभ मिलना चाहिए। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण लागू होने से लेकर सिर्फ 15 साल के लिए होने चाहिए। उसके बाद यह समीक्षा की जाए कि आगे महिलाओं को इस आरक्षण की जरूरत है या नहीं है।
जिन राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए तीन से कम सीटों पर आरक्षण लागू है, वहां इसे रोटेशन के आधार पर लागू किया जाए। मान लीजिए ए, बी, सी तीन आरक्षित सीट हैं तो पहली बार ए फिर बी और फिर अगली बार सी सीट को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाए।
संसद के तर्ज पर ही दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित करने की बात की। बिल में एस सी, एस टी के साथ ओबीसी महिलाओं को भी उचित सम्मान मिलना चाहिए। साथ ही उन्होंने आबादी के अनुपात में महिलाओं को आरक्षण देने की बात कही थी।
इस बिल के विरोध में सांसद शरद यादव ने कहा था- ‘कौन महिला है, कौन नहीं है। केवल छोटे बाल रखने वाली महिलाओं को इसका लाभ नहीं मिलने देंगे।’ यूनाइटेड फ्रंट सरकार अपने ही समर्थक दलों के इस विरोध की वजह से इस बिल को पास नहीं करा पाई।
वाजपेयी सरकार: कई बार कोशिशें की, लेकिन सफल नहीं हुए
1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने सदन से इस बिल को पास कराने की कोशिश कई बार की थी। पहली बार 13 जुलाई 1998 में कानून मंत्री एम थंबी दुरई ने लोकसभा में इस बिल को पेश किया था। जिसका राजद, सपा समेत कई दलों ने विरोध किया। राजद सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने स्पीकर जीएमसी बालयोगी के हाथ से बिल की कॉपी को छीनकर फाड़ दिया था । बिहार सरकार में अभी के मंत्री सुरेंद्र प्रसाद यादव ने इस बिल के फाड़ने पर कहा था कि बीआर अंबेडकर ने उनके सपने में आकर ऐसा करने के लिए कहा था। इस बिल को 14 जुलाई को एक बार फिर से लोकसभा में पेश करने की कोशिश हुई। हालांकि राजनीतिक दलों के हंगामे और सहमति नहीं बन पाने की वजह से ऐसा संभव नहीं हो सका।
11 दिसंबर 1998 को फिर लोकसभा में इस बिल को पेश करने की कोशिश हुई। तब सपा सांसद दरोगा प्रसाद स्पीकर के पोडियम तक पहुंच गए। इस वक्त धक्का-मुक्की की स्थिति बन गई । आखिरकार सरकार ने एक बार फिर अपना हाथ पीछे खींच लिया। 23 दिसंबर 1998 को आखिरकार सदन में इस बिल को पेश करने में सरकार कामयाब रही। इस समय भी सपा, बसपा समेत कई दलों ने जोरदार विरोध दर्ज कराया। एनडीए सरकार को समर्थन देने वाली नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने एक बार फिर विरोध किया। एक बार फिर पहले की तरह ये बिल सदन में पास नहीं हो सका।
अटल बिहारी सरकार में उस समय के कानून मंत्री राम जेठमलानी ने 23 दिसंबर 1999 को एक बार फिर से सदन में इस बिल को पेश किया। एक बार फिर सपा, बसपा और राजद के सांसदों ने इस बिल का जोरदार विरोध किया । वाजपेयी सरकार ने इसके बाद तीन बार – 2000, 2002 और 2003 में इस विधेयक को आगे कानून बनाने की कोशिश की। हालांकि हर बार की तरह इन सभी मौकों पर अटल सरकार को कामयाबी नहीं मिली। जुलाई 2003 में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, लेकिन असफल रहे। इस वजह से विधेयक पास नहीं हो पाया ।
मनमोहन सरकारः राज्यसभा में पारित करा लिया, लेकिन लोकसभा में नहीं
2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। उस वक्त के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2004 में दिए अपने संयुक्त संसदीय भाषण में महिलाओं के आरक्षण को लेकर सरकार की प्रतिबद्धिता को दोहराया।
यूपीए सरकार ने 6 मई 2008 को इस बिल को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश किया। उस दौरान सपा सांसद अबू आजमी ने कानून मंत्री एचआर भारद्वाज की तरफ दौड़कर बिल फाड़ने की कोशिश की थी।
बिल पेश होने के बाद पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी को भेज दिया गया। कमेटी ने दिसंबर 2009 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। सुझाव दिया गया कि इस बिल को मौजूदा स्वरूप में ही पारित किया जाना चाहिए। 9 मार्च 2010 को राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक भारी बहुमत से पारित हुआ। बीजेपी, वाम पार्टियों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था। इसका विरोध करने वालों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल शामिल थीं। हालांकि यूपीए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया। कांग्रेस को डर था कि अगर उसने बिल को लोकसभा में पेश किया तो उसकी सरकार खतरे में पड़ सकती है। राज्यसभा स्थायी सदन है। ये कभी भंग नहीं होता। इसलिए ये विधेयक अभी भी जिंदा है। अब ये बिल विधानसभाओं में भेजा जाएगा। इसे लागू होने के लिए देश की 50% विधानसभाओं में पास होना जरूरी है। लोकसभा में फिलहाल 82 महिला सांसद हैं, नारी शक्ति वंदन कानून के तहत लोकसभा में 181 महिला सांसद रहेंगी।


सरकार ने 5 दिन का विशेष सत्र बुलाया था, इसी में बिल पेश किया
सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया था। इसका एजेंडा नहीं बताया गया था, इसको लेकर विपक्ष ने आलोचना भी की थी। 18 सितंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट की मीटिंग बुलाई। मीटिंग के बाद कोई प्रेस ब्रीफिंग नहीं की गई। अंदर से खबर आई कि सरकार 19 सितंबर को लोकसभा में महिला आरक्षण बिल ला सकती है। बात सही निकली। 19 सितंबर को सरकार ने लोकसभा में नारी शक्ति वंदन बिल पेश कर दिया।
20 सितंबर को लोकसभा में बिल पर 7 घंटे चर्चा हुई। इसमें 60 सांसदों ने भाग लिया। शाम को पर्ची से हुई वोटिंग में बिल पास हो गया। समर्थन में 454 और विरोध में 2 वोट पड़े । 21 सितंबर को बिल पर राज्यसभा में चर्चा हुई। यहां बिल सर्वसम्मति से पास हो गया और किसी ने बिल के खिलाफ वोट नहीं दिया। हाउस में मौजूद सभी 214 सांसदों ने बिल का समर्थन किया था। नयी संसद में कामकाज के पहले दिन यानी 19 सितंबर को लोकसभा में महिला आरक्षण बिल (नारी शक्ति वंदन विधेयक) पेश किया गया। इस बिल के मुताबिक, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% रिजर्वेशन लागू किया जाएगा। लोकसभा की 543 सीटों में से 181 महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। ये रिजर्वेशन 15 साल तक रहेगा। इसके बाद संसद चाहे तो इसकी अवधि बढ़ा सकती है। यह आरक्षण सीधे चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए लागू होगा। यानी यह राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों पर लागू नहीं होगा। लोकसभा में बिल पर चर्चा में 60 सांसदों ने अपने विचार रखे ।
परिसीमन के बाद ही लागू होगा बिल
नए विधेयक में सबसे बड़ा पेंच यह है कि यह डीलिमिटेशन यानी परिसीमन के बाद ही लागू होगा। परिसीमन इस विधेयक के पास होने के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर होगा। 2024 में होने वाले आम चुनावों से पहले जनगणना और परिसीमन करीब-करीब असंभव है। इस फॉर्मूले के मुताबिक विधानसभा और लोकसभा चुनाव समय पर हुए तो इस बार महिला आरक्षण लागू नहीं होगा। यह 2029 के लोकसभा चुनाव या इससे पहले के कुछ विधानसभा चुनावों से लागू हो सकता है।
शताब्दी पुरानी है महिला आरक्षण की माँग
महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण की मांग आजादी से पहले से उठ रही है। 1931 में बेगम शाह नवाज और सरोजिनी नायडू ने इस संबंध में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था। इसमें महिलाओं के लिए राजनीति में समानता की मांग की गई थी । संविधान सभा की बहसों में भी महिलाओं के आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा हुई थी। तब इसे यह कहकर खारिज कर दिया गया था कि लोकतंत्र में खुद-ब-खुद सभी समूहों को प्रतिनिधित्व मिलेगा।
1971 में नेशनल एक्शन कमेटी ने भारत में महिलाओं के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर चर्चा की। कमेटी के कई सदस्य विधायी निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ थे। हालांकि उन्होंने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का समर्थन किया। इसके बाद देशभर के कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण की घोषणा की।
1988 में महिलाओं के लिए नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान ने पंचायत स्तर से संसद तक महिलाओं को आरक्षण देने की सिफारिश की। इसने पंचायती राज संस्थानों और सभी राज्यों में शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण अनिवार्य करने वाले 73वें और 74वें संविधान संशोधनों की नींव रखी। इन सीटों में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति यानी SC और अनुसूचित जनजाति यानी ST की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों में पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गईं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल सहित कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण लागू किया है।

गीता मुखर्जी… जिन्होंने संसद में 27 साल पहले बोया था महिला आरक्षण का बीज
संसद में महिला आरक्षण विधेयक के पेश होने पर देश भर में खुशी मनाई जा रही है। ऐसे में बंगाल की एक मृदुभाषी महिला की कहानी फिर से चर्चा में है। बंगाल के तत्कालीन अविभाजित मेदिनीपुर जिले के पांशकूड़ा निर्वाचन क्षेत्र (अब परिसीमन के कारण अस्तित्वहीन) से सात बार भाकपा की लोकसभा सदस्य रहीं स्वर्गीय गीता मुखर्जी पहली सांसद थीं, जिन्होंने सितंबर 1996 में संसदीय और विधायी सीटों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग करते हुए संसद के पटल पर एक निजी सदस्य का विधेयक पेश किया था।
महिला आरक्षण बिल की पहली योद्धा – गीता मुखर्जी ने 12 सितंबर 1996 को सदन के पटल पर निजी सदस्य विधेयक पेश किया। यह शुरुआत थी और उस ऐतिहासिक दिन के 27 साल बाद 19 सितंबर 2023 को नारी शक्ति वंदना अधिनियम के नाम और शैली में विधेयक पेश किया गया था। गीता मुखर्जी को करीब से जानने वाले दिग्गजों को याद है कि वह महिला सशक्तीकरण के बारे में कितनी ईमानदार थीं और उनका दृढ़ विश्वास था कि जब तक संसद और विधानमंडल में महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं होगा तब तक सशक्तीकरण हासिल नहीं किया जा सकेगा।
बेहद लोकप्रिय थीं गीता मुखर्जी – मुखर्जी अक्सर अपनी पार्टी के साथियों और मीडियाकर्मियों के बीच गीता-दी के नाम से बेहद लोकप्रिय थीं। उन्होंने कहा था कि अब समय आ गया है कि महिलाओं को समाज निर्माण में उनकी उचित पहचान मिले और वे पर्याप्त संख्या बल के साथ संसदीय और विधायी मंचों पर अपने अधिकारों की आवाज उठाएं।
सादगी भरा था जीवन – प्रसिद्ध भारतीय सांसद और पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री स्वर्गीय इंद्रजीत गुप्ता की छोटी बहन और प्रतिष्ठित भारतीय कम्युनिस्ट स्वर्गीय बिश्वनाथ मुखर्जी की पत्नी गीता मुखर्जी बिना किसी सुनियोजित प्रचार के अपनी बेहद विनम्र जीवनशैली के लिए जानी जाती थीं। वह 4 मार्च 2000 को अपने देहावसान तक नई दिल्ली और हावड़ा के बीच यात्रा करते समय साधारण थ्री-टीयर स्लीपर क्लास में यात्रा करना पसंद करती थीं।
सात बार लोकसभा सदस्य थीं गीता मुखर्जी – अत्यंत मृदुभाषी और लो प्रोफाइल वाली गीता मुखर्जी 1980 से 2000 तक तत्कालीन अविभाजित मेदिनीपुर जिले के पांशकूड़ा निर्वाचन क्षेत्र से सात बार लोकसभा सदस्य थीं। अंतिम बार वह 1999 में चुनी गई थीं। एक सांसद के रूप में, सार्वजनिक उपक्रमों पर संसदीय समिति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण पर समिति और आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 1980 पर संयुक्त समिति के सदस्य के रूप में उनके गठन को श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।

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