महिलाओं के खिलाफ हिंसा हमेशा से होती रही है और इसे महिमामंडित भी किया जाता रहा है। आज भी 70 प्रतिशत महिलाएं हिंसा और उत्पीड़न को भाग्य और नियति का खेल मानकर स्वीकार करती हैं या वह यहां तक कहती हैं कि मारपीट पुरुषोचित स्वभाव है मगर मारपीट सिर्फ पुरुष ही नहीं करते। महिलाओं के खिलाफ जब उत्पीड़न होता है तो उसकी जिम्मेदार असुरक्षा बोध से पीड़ित औरतें होती हैं और वह घर से लेकर कार्यस्थल तक हर जगह विराजमान हैं। उनका लक्ष्य किसी भी बेहतर महिला को पीछे धकेलना ही होता है। यह सच है कि पितृसत्तात्मक समाज इसकी जड़ में है मगर पितृसत्तात्मक समाज की तह में जाकर देखिए तो पता चलता है कि इसे संचालित करने वाली महिलाएं ही हैं। पुरुष कई बार संचालित करता है तो कई बार महिलाओं के हाथ की कठपुतली भी वही होता है जिसे भावनात्मक स्तर पर किसी महिला की ब्लैकमेलिंग का शिकार होना पड़ता है। वस्तुतः मेरी नजर में हिंसा एक जेंडर न्यूट्रल मामला है और इसकी शुरुआत परिवार से होती है। कई परिवार में पुरुष दबाते हैं तो कई जगहों पर उनको जुबान खोलने की अनुमति नहीं होती। हिंसा का यह बड़ा कारण है तो इसकी तह में जाकर देखिए तो इसकी शुरुआत तो बचपन से ही हो जाती है मगर आपका सामाजिक दायरा ऐसा है कि पारिवारिक उत्पीड़न (विशेषकर वह माता – पिता, भाई – भाभी का हो) को उत्पीड़न मानने को तैयार ही नहीं होता। अगर कोई लड़की या लड़का शिकायत करे तो उसे गम्भीरता से लिया ही नहीं जाता । सब कुछ देखते हुए भी परिवार और समाज की प्रतिष्ठा का हवाला देकर पीड़ित सदस्य को ही चुप करवा दिया जाता है और प्रताड़क हर जगह पूजा जाता है। आपको यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हर बार माता – पिता – भाई – बहनें या रिश्तेदार नायक नहीं होते, वह प्रताड़क होते हैं मगर सामाजिक सहानुभूति उनको ही मिलती है। यहां तक कि लड़की की हत्या भी हो जाए तो तर्क यह दिया जाता है कि बाप की इज्जत उछाल रही थी। सबसे पहला सवाल क्या इज्जत सिर्फ माता – पिता…मायके या ससुराल की होती है…क्या किसी स्त्री या पुरुष का कोई सम्मान नहीं होता ? पारिवारिक प्रतिष्ठा का सारा ठेका आपने लड़कियों को या लड़कों को ही क्यों सौंप रखा है? क्या बाप शराब पीकर घर पर क्लेश करे, अवैध सम्बन्ध रखे. घर में मारपीट करे तो क्या संतान की इज्जत नहीं जाती? आपने हिंसा को खासकर परिवार में होने वाली हिंसा को इतना सामान्य मान लिया है कि आप उसे समस्या मानते ही नहीं जबकि स्त्री का संघर्ष बचपन से ही छोटी – छोटी बातों से ही आरम्भ हो जाता है। पहले उसका आहार, उसकी शिक्षा, उसकी नौकरी, उसके जीवनसाथी चुनने का मामला, हर चीज परिवार की इच्छा और रिश्तेदारों एवं समाज पर छोड़ दिया जाना और उनके हिसाब से लड़की के लिए नियम -कायदे एवं कानून बनाना ही हिंसा का रूप है। इसकी आड़ में बड़ी से बड़ी साजिशों को अंजाम दिया जाता है। बहुत सी स्त्रियां 498 ए का दुरुपयोग कर रही हैं और अपने से बेहतर हर स्त्री को पीछे रखने के लिए वह किचन पॉलिटिक्स का सहारा ले रही हैं। मैं निजी अनुभवों से ऐसे कई मामले जानती हूँ जहाँ जेठानी के कारण देवरानी को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता बंद कर दी गयी। घर के राशन से लेकर बच्चों की फीस के लिए स्त्री निर्भर होती है, खासकर जब उसका पति कम कमाता हो या फिर वह न हो। घर की बेटियों की पढ़ाई छुड़वाने में घर की किसी मां, भाभी या बहन का हाथ हो सकता है। यह मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न सारा आत्मविश्वास ही छीन लेता है और उत्पीड़न का यह ऐसा स्वरूप है जिस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता। माएं अपने बेटों को खुली छूट देती हैं कि वह अपनी बहनों के साथ मारपीट करे, उसकी चीजें छीनें…यहां तक कि घर की छोटी से छोटी कील लगाने के लिए उसे जबरन भाइयों पर निर्भर बनाया जाता है कि वह छोटी है तो क्या यह हिंसा नहीं है। बहनों के दुप्पटे से लेकर उसकी शिक्षा तक, हर फैसले में जब ऐसी दखलन्दाजी रहेगी तो स्त्री के व्यक्तित्व का विकास कैसे हो सकेगा और कैसे वह अपने लिए खड़ी हो सकेगी? हर साल 25 नवम्बर को महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकने के लिए अंतराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाते हैं। कार्यक्रम होते हैं, भाषणबाजी होती है, पोस्टर लगते हैं मगर जब तक बुनियाद सही नहीं होगी तब तक समाधान की उम्मीद बेमानी है। बहरहाल बात आज महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर ही करते हैं –
अंतराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस का इतिहास – पैट्रिया मर्सिडीज मिराबैल, मारिया अर्जेंटीना मिनेर्वा मिराबैल और एंटोनिया मारिया टेरेसा मिराबैल द्वारा डोमिनिक शासक रैफेल टुजिलो की तानाशाही का कड़ा विरोध किए जाने पर उस क्रूर शासक के आदेश पर 25 नवंबर 1960 को उन तीनों बहनों की हत्या कर दी गई थी। साल 1981 से उस दिन को महिला अधिकारों के समर्थक और कार्यकर्ता उन्हीं तीनों बहनों की मृत्यु की पुण्यतिथि के रूप में मनाते आए हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 17 दिसंबर 1999 को एकमत से हर साल 25 नवंबर का दिन ही महिलाओं के खिलाफ अंतराष्ट्रीय हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने के लिए निर्धारित किया गया।
महिलाओं के खिलाफ अपराधों में एक-तिहाई पति और रिश्तेदारों की क्रूरता से जुड़े – सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) की तरफ से किए गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच महिलाओं के खिलाफ लगभग हर तीन में से एक अपराध उसके पति और/या उसके रिश्तेदार की ‘क्रूरता’ से जुड़ा था । इस माह के शुरू में एमओएसपीआई की ‘वीमेन एंड मेन इन इंडिया 2022’ रिपोर्ट में प्रकाशित निष्कर्ष बताते हैं कि पति और उनके रिश्तेदारों की तरफ से क्रूरता देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का सबसे आम रूप है । 2016 से 2021 के बीच 6 साल की अवधि में देश में भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 22.8 लाख मामले दर्ज हुए. रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें से लगभग 7 लाख यानी करीब 30 प्रतिशत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए के तहत दर्ज किए गए थे। धारा 498ए किसी महिला के खिलाफ पति या उसके रिश्तेदारों की क्रूरता से संबंधित हैं. इसमें ‘क्रूरता’ को किसी ऐसे इरादतन आचरण के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे ‘महिला के आत्महत्या जैसा कदम उठाने या गंभीर चोट पहुंचने अथवा किसी शारीरिक अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) के लिए खतरा उत्पन्न होने की संभावना हो.’
इसके अलावा क्रूरता को ‘महिला के उत्पीड़न….किसी भी संपत्ति या मूल्यवान चीज के लिए किसी भी गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिए उसे या उससे संबंधित किसी भी व्यक्ति को मजबूर किए जाने या उसके या उससे संबंधित किसी व्यक्ति के ऐसी मांग पूरी करने में नाकाम रहने पर प्रताड़ित किए जाने’ से जोड़कर भी देखा जाता है। ध्यान रहे कि दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल तक जेल की सजा हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है । एमओएसपीआई रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि अध्ययन वाले छह वर्षों में से प्रत्येक में 498ए के तहत दर्ज मामले महिलाओं के खिलाफ अन्य सभी अपराधों में सबसे ज्यादा थे यानी बलात्कार और यौन उत्पीड़न से मामलों में भी कहीं ज्यादा।
आगे बात करें तो 2016 से 2021 की इस अवधि के दौरान, देश में आईपीसी की धारा 354 के तहत 5.2 लाख मामले दर्ज किए गए ।‘महिलाओं के शील भंग करने के इरादे से किए गए हमले’ संबंधी इस धारा के तहत दर्ज मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े कुल मामलों में से 23 फीसदी हैं। महिलाओं के खिलाफ अगला सबसे आम अपराध अपहरण और बंधक बनाना है और लड़कियों को उनके ही घर में बंधक बनाया जाता है, यह एक सच है। जिसमें 4.14 लाख घटनाओं के साथ औसतन 18 फीसदी मामले दर्ज किए गए. इन छह साल में भारत में बलात्कार के लगभग 1.96 लाख मामले दर्ज किए गए, जो 2016-2021 में महिलाओं के खिलाफ कुल अपराधों में लगभग 8.6 प्रतिशत थे.
498ए मामलों में अपराध दर की बात करें तो असम चार्ट में सबसे ऊपर है। राज्य में 2021 में 498ए के तहत करीब 13,000 मामले दर्ज किए गए. यह आंकड़ा राज्य में प्रति एक लाख महिला जनसंख्या पर 75 मामले होते हैं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्राइम एंड सिक्योरिटी साइंसेज (आईआईसीएसएस), बेंगलुरु के प्रमुख निदेशक प्रोफेसर के. जयशंकर के अनुसार बड़ी संख्या में अपराधों का पता ही नहीं लग पाता क्योंकि ये जाति, संस्कृति, पितृसत्ता, पुलिस और समाज का डर आदि विभिन्न कारणों से रिपोर्ट नहीं किए जाते. एक स्वतंत्र थिंक टैंक या किसी अकादमिक निकाय की तरफ से अपराध पीड़ितों पर एक समग्र सर्वेक्षण किए जाने की जरूरत है।
लॉकडाउन में और बढ़ा उत्पीड़न – राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने मुताबिक साल 2020 में कोरोना महामारी के कारण राष्ट्रीय तालाबंदी के महीनों के रूप में चिन्हित एक साल में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ पारंपरिक अपराधों में कमी आई लेकिन देश में अपराध के मामले 28 प्रतिशत बढ़ गए। हालांकि लॉकडाउन के बाद महिलाओं और बच्चों के खिलाफ आपराधिक मामलों में तेजी आई है। एनसीआरबी के अनुसार देशभर में 2020 में यौन शोषण के रोजाना औसतन 77 मामले दर्ज किए गए और कुल 28,046 मामले सामने आए। दुनियाभर में पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,71, 503 मामले दर्ज किए गए, जो 2019 में 4,05,326 और 2018 में 3,78,236 थे।
वर्क फ्रॉम होम में भी नहीं थमे अपराध के मामले – एनसीआरबी के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 10,093 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2019 में ऐसे 13,395 मामले सामने आए थे यानी 2019 की तुलना में 2020 में महिलाओं के खिलाफ 24.65 फीसदी अपराध कम हुए। कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के कारण जब देश की अधिकांश आबादी अपने घरों में थी, स्कूल-कॉलेज बंद थे, वर्क फ्रॉम होम चल रहा था, ऐसे में भी 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 10,093 मामले सामने आना कम चिंताजनक नहीं है। 2020 में दिल्ली में महिलाओं के अपहरण के 2,938 यौन शोषण के प्रयास के 9 और यौन शोषण या सामूहिक यौन शोषण के बाद हत्या का एक मामला दर्ज किया गया। इस दौरान देशभर में साइबर अपराध 2019 के मुकाबले 11.8 फीसदी बढ़ा है।
सेहत के लिए घातक है उत्पीड़न – सबसे पहले समझिए कि उत्पीड़न सिर्फ शारीरिक नहीं होता, मानसिक और वाचिक भी होता है। स्त्री को कुछ न कहना और उसे दरकिनार कर देना….यह सबसे बड़ा उत्पीड़न है। आर्थिक स्तर पर उसे बाध्य करना कि वह मांगती ही रहे, यह आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाना है। भारतीय परिवारों में उत्पीड़न का यह सामान्य तरीका है जिससे पढ़ने वाली लड़कियां जूझती हैं। परीक्षा के दौरान फीस रोक देना और उसे पैसे देकर नाकारा साबित करना यह आम बात है जहां पैसे तो मिल जाते हैं पर उसका ब्याज उसे कमतर साबित कर और तानों से रक्तरंजित कर वसूला जाता है। अगर किसी महिला ने किसी तरह की मारपीट या यौन हिंसा का अनुभव किया हो, तो उनके मन में कई तरह की भावनाएं विकसित हो जाती हैं, जैसे- डर लगना, कन्फ्यूजन महसूस होना, गुस्सा आना या फिर पूरी तरह से सुन्न हो जाना और कुछ भी महसूस न कर पाना. इसके अलावा हमला और हिंसा झेलने वाली महिलाओं को कई बार खुद में शर्मिंदगी और अपराधबोध भी महसूस होने लगता है.
मानसिक बीमारियां होने का खतरा – महिलाओं में कई तरह की मानसिक बीमारियां विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है जैसे: पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी): किसी तरह की यौन हिंसा या शारीरिक दुर्व्यवहार की वजह से व्यक्ति को ट्रॉमा, खौफनाक या डरावना अनुभव महसूस हो सकता है और इसी वजह से पीटीएसडी की समस्या हो सकती है। पीटीएसडी की वजह से पीड़ित महिला, आसानी से चौंक जाती है, चिंता या तनाव महसूस करती हैं, हर वक्त सतर्क रहती हैं, उन्हें सोने में दिक्कत महसूस होती है या फिर बहुत अधिक गुस्से का अनुभव करती हैं। कई बार महिलाओं को मारपीट कर अकेला छोड़ दिया जाता है । जब उसके पास बात करने के लिए कोई न हो और वह लगातार प्रताड़ित होती रहे तो वह अवसाद में चली जाती है और एक समय आता है जब पागल हो जाती है। क्रूरता ऐसी होती है कि तब उसे मानसिक उपचार की जगह ताने मिलते हैं..य़ह एक गम्भीर अपराध है मगर इस तरह के अपराधों के लिए किसी प्रकार का स्पष्ट कानून नहीं है।
अवसाद – महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से जुड़े अध्ययनों की मानें, तो सामान्य महिलाओं की तुलना में शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार महिलाओं में डिप्रेशन का खतरा 3 गुना अधिक होता है. हर वक्त उदासी महसूस होना, जो भी हुआ उसके लिए खुद को दोषी मानना इस तरह की चीजें लगातार सोचने की वजह से उनके मन में आत्महत्या का ख्याल भी बार-बार आने लगता है ।
एंजाइटी – आसपास जो भी हो रहा है उससे जुड़ी सामान्य चिंता भी हो सकती है, या फिर अचानक पीड़ित महिला को बहुत अधिक डर महसूस हो सकता है, जिसे एंजाइटी अटैक कह सकते हैं. कई बार एंजाइटी की यह समस्या धीरे-धीरे समय के साथ बदतर होने लगती है और व्यक्ति के दैनिक जीवन में भी हस्तक्षेप करने लगती है. इस तरह की चीजों का अनुभव करने पर भी उसे खुद तक सीमित रखने की बजाए डॉक्टर से बात करनी चाहिए वरना, इसका मानसिक सेहत पर गंभीर असर देखने को मिल सकता है ।
(स्त्रोत – द प्रिंट में प्रकाशित रिपोर्ट)