महिलाओं के आत्म-सम्मान की फिल्म है थप्पड़। पूरी फिल्म थप्पड़ के इर्द-गिर्द ही है। शुरू से ही यह थप्पड़ घरेलू सहायिका के माध्यम से दिखाया गया है। कभी-कभी वह इससे परेशान है, तो कभी-कभी हल्के से लेती है लेकिन उसके जिंदगी में थप्पड़ को लेकर दर्द बहुत है। कभी इसके विरोध में कदम उठाना चाहती है, लेकिन फिर अपने भविष्य, अपने परिवार के लिए चुप हो जाती है। हमारे समाज के पुरुष अपनी धुन में इतने रमे रहते हैं कि उसके साथ रहने वाली महिला को वह इंसान या बराबरी का दर्जा नहीं दे पाता है। इस फिल्म में अलग-अलग क्षेत्र की महिलाओं को एक साथ समेटकर दिखाया गया है। चाहें दूसरों के घर बर्तन-कपड़े धोकर जिंदगी जीने वाली हो, या अच्छी खासी वकील हो या बहुत अच्छी गृहिणी ही हो। सबको एक ही दौर से गुजरना पड़ता है। इस फिल्म में तापसी ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। न ही ज्यादा भावुक दिखी है, न ही ज्यादा गुस्सा करती दिखी है। बड़े ही प्रेम से, प्यार से घर को ही अपनी दुनिया समझती है, और उसमें बहुत खुश रहती है। पर उसका पति बहुत महत्वाकांक्षी है। उसे लंदन जाना है। कामयाब होना है। उसमें कोई रुकावट आने से वह अपना आपा खो बैठता है और पत्नी को थप्पड़ लगा देता है। इसे वह गलती भी नहीं समझता, बल्कि दूसरे दिन सुबह उठने पर अपनी परेशानियों में ही उलझा रहता है। उसे यह एहसास ही नहीं होता कि वह पत्नी को तकलीफ पहुँचा चुका है। अमृता का किरदार निभा रही तापसी भी बिना शिकायत किये, चुपचाप अपना काम करती है और आखिर में निर्णय लेती है , ‘वह मुझे मार नहीं सकता इसलिए मैं उसके साथ नहीं रहूँगी।’ कोर्ट-कचहरी कर आखिरकार वह अपने निर्णय पर अटल रहती है। सबसे बड़ी बात है कि एक गृहिणी महिला के इस कदम पर कई महिलाओं के अंदर भी हिम्मत आ गयी और वह भी अपने स्वाभिमान, आत्मसम्मान के लिए कदम बढ़ाई। तापसी का केस लड़ रही महिला वकील जहाँ एक तरफ अपने पेशेवर सफलता से खुश है, वहीं दूसरी ओर घर में पति के सामने वह केवल एक औरत है। अपने जज्बात, अपनी इच्छा की बलि चढ़ते देखकर उसका दम घुटता है। इसी तरफ तापसी की माँ, सास, ननद को भी कहीं न कहीं अपनी इच्छाओं को दबाते दिखाया गया है। इस फिल्म के माध्यम से हर वर्ग, हर उम्र की महिलाओं की समस्या को दिखाया गया है। काबिले तारिफ है निर्देशक अनुभव सिन्हा जिन्होंने इस फिल्म को बनायाय़ अभिनय के मामले में तापसी पन्नू और उसके पति पवैल गुलाटी ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। नाटकीयता बिल्कुल नहीं दिखी। तापसी के पिता का रोल निभा रहे कुमुद मिश्रा दर्शकों को बहुत पसंद आये। दीया मिर्जा, माया सराओ, रत्ना पाठक, तानवी आजमी, गीतिका विद्या, रामकपूर, मानव कौल मुख्य रूप से दिखे। सभी ने दर्शकों को पूरी तरह बांधे रखा। कहीं भी कोई भटकाव या बिखराव नहीं दिखा। घुटने टेक कर सारी जिम्मेदारियों को निभाने वाली महिलाओं के अंदर भी स्वाभिमान जागा है। इस फिल्म को देखने के बाद निश्चित रूप से महिलाएँ और सशक्त होंगी। 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके से पहले महिलाओं के लिए यह फिल्म एक अच्छा उपहार है। सबसे बड़ी बात है कि हमारे पुरुष समाज को इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए और महिलाओं की ओर से भी सोचना चाहिए।