प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक में, कुछ अधिकारियों ने कई राज्यों की तरफ से घोषित लोकलुभावन योजनाओं पर चिंता जताई और दावा किया कि वे आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं हैं और वे उन्हें श्रीलंका के रास्ते पर ले जा सकती हैं। इधर, महंगाई एक बार फिर बढ़ गयी और यह कोई नयी बात नहीं है। जीएसटी के रिकॉर्डतोड़ संग्रह के बीच महंगाई बढ़ी है और आम जनता के लिए, खासकर मध्यम वर्ग के लिए कहीं कोई राहत नहीं है। विपक्ष के लिए यह आन्दोलन का मुद्दा है और सरकार के लिए परिस्थिति। रूस और यूक्रेन के युद्ध का हवाला दिया जा रहा है। हर बार की तरह विलाप जारी है मगर कोई ठोस समाधान न तो खोजा जा रहा है और न ही किसी की दिलचस्पी है।
अब एक सवाल हम खुद से पूछें कि क्या हम इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए वाकई गम्भीर हैं? हकीकत है नहीं और इसका कारण है कि हमारा दोहरापन..हमें मुफ्त में चीजें चाहिए, सब्सिडी चाहिए..नेताओं ने वोट बैंक की राजनीति के लिए कर्जमाफी, सब्सिडी, फ्री की राजनीति तो की ही..आम जनता में मुफ्तखोरी की आदत डाल दी है… और इसका सीधा असर मूल्यवृद्धि का कारण बनता है। गरीब को गरीब रहने देना और उसे सक्षम न बनने देना, यही सरकारों की नीति है क्योंकि गरीब जब सक्षम होंगे तो उनको वोट कौन देगा।? किसी भी सरकारी योजना में प्रशिक्षण और उन्नत होने का स्पष्ट रास्ता कम ही दिखता है। कभी चावल बाँटेंगे, कभी चश्मा बाँट देंगे, कभी कम्बल बाँट देंगे मगर उपभोक्ता की क्रय शक्ति को मजबूत करने पर किसी का ध्यान ही नहीं है। जाहिर है कि इसका बोझ भी आम आदमी पर ही पड़ता है। आम जनता को भी समझने की जरूरत है कि संरचना के लिए खर्च करना पड़ता है और कहाँ खर्च करना है, यह भी समझदारी से तय करने की जरूरत है।
सीधी सी बात यह है कि इसका सीधा रिश्ता अर्थव्यवस्था से है। सरकारें सब कुछ फ्री करती जाती हैं और नतीजा यह है कि इस फ्री का बोझ आम आदमी पर ही पड़ता है। उत्पादन, उपयोग, विक्रय और लाभ एक चक्र है और जब यह चक्र काम ही नहीं करेगा यानी व्यवसाय करने वाले की लागत ही नहीं निकलेगी और पैसा अपने ही घर से जाएगा तो वह फिर से उत्पादन और व्यवसाय करने की हिम्मत कहाँ से लायेगा। इससे उत्पादक एक – एक करके कम होंगे…माँग बढ़ेगी और पर्याप्त आपूर्ति नहीं होगी तो कीमतें बढ़ेंगी और महंगाई डायन खाती ही रहेगी।