समय के पन्ने उड़ते गये और सन्मार्ग की धमक बढ़ती गई। उसके कुछ कालम तो इतने मशहूर हो गये कि लोग अखबार खोलकर पहले उसे ही पढ़ते यथा -लस्टम पस्टम, चकल्लस, भोजपुरी लस्टम पस्टम, लाल बुझक्कड़, और सारे साप्ताहिक पृष्ठ। रविवारीय परिशिष्ट का तो कोई जवाब ही नहीं था। रुक्म जी ने बैताल कथा और तेनालीराम की कथा, बाल मंडल में खुद लिखते थे जो बच्चों के साथ हर उम्र के लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। सन्मार्ग की बेबाक संपादकीय जिसे उस समय आदरणीय रमाकांत उपाध्याय लिखते थे, काफी चर्चित थी।
उस समय सन्मार्ग में कर्मचारियों के बीच जो एका भाव था वह काबिले तारीफ था। सभी एक दूसरे के सुख-दुख के सहभागी थे। रात में ड्यूटी करने वाले संपादकीय विभाग के सारे सदस्य मिल बांटकर खाना खाते थे। इस मामले में भाई हरिराम पांडेय बेजोड़ थे। एक वाकया याद आ रहा है। पांडेय जी चार डब्बों वाला अपना टिफिन बॉक्स लाते थे और आधा किलो दूध यादव टी स्टॉल से मंगाते थे। एक दिन जब उन्होंने अपना सारा टिफिन खाली कर दिया और दूध भी लिए तो रमाकांत उपाध्याय जी ने कहा-आज मैं तुम्हारे लिए 2 किलो दूध मंगवाता हूं, उसे पीकर और बिना लैट्रिन गये, पचाकर दिखाओ तो जानूं कि तुम खाने और पचाने में अव्वल हो। पांडेय जी ने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली और 2 किलो दूध गटक कर सो गए। रमाकांत जी रात भर निगरानी करते रहे मगर पांडेय जी उठे तो सुबह 6 बजे ही। उसके बाद किसी ने भी उनसे खाने पीने की कोई शर्त नहीं लगाई।
रमाकांत जी और पांडेय जी में अक्सर हंसी मजाक होता था। कभी कभी तो यह उग्र भी हो जाता और बोलचाल भी कुछ लमहों के लिए बंद हो जाती मगर यह उपाध्याय जी को बहुत देर तक नहीं रोक पाती। वह कुछ ऐसा व्यंग्य तीर चलाते कि पांडेय जी के साथ हम सभी हंस पड़ते और फिर माहौल खुशनुमा हो जाता।
पांडेय जी सिर्फ खाते ही नहीं थे, उनके हाथों में काफी ताकत भी थी। नवरात्र की अष्टमी तिथि को मैंने कुछ फलों के साथ एक समूचा नारियल प्रसाद के रूप में घर से आफिस ले गया था। फल तो यारों में बंट गया मगर नारियल टूटे कैसे? सभी उधेड़बुन में थे। कोई कहता छत पर रखकर हथौड़े से तोड़ दिया जाये तो कोई कहता जमीन पर पटक कर फोड़ दिया जाये। इसी दौरान पांडेय जी आए और सबकी बातें सुनकर उन्होंने एकबारगी नारियल को अपने हाथ में लिया, टेबल पर रखे और दाहिने हाथ से उस पर ऐसा मारा कि वह तीन टुकड़े हो गया। हम सभी हतप्रभ रह यह देखते रह गए। ऐसा विंदास जीवन जीने वाले थे हरिराम पाण्डेय जी। आज हमारे बीच वे नहीं हैं। काल ने उन्हें छीन लिया हमसे मगर उनकी बहुत सारी स्मृतियां आज भी हमारे मन-मस्तिष्क में यों ही दबी पड़ी हैं। रुक्म जी के बाद पांडेय जी ही रविवार के परिशिष्ट का संपादन करते थे। मैं तो बस इतना ही कहूंगा-
आप तो चले गए दुनिया को छोड़कर
पर आपकी यादें तसव्वुर में बसी हैं।