दक्षिण भारत& जिसकी संस्कृति उत्तर भारत से अलग है जहाँ इस देश की राजभाषा को राजनीति ने अवांछनीय बना दिया है। दक्षिण भारत जिसका उसी अवांछनीय हिन्दी से एक रिश्ता है दिल का रिश्ता साहित्य का रिश्ता…और वह रिश्ता अपनापन खोज रहा है। आजतक क्या हमने सुना है कि राजनीति ने कभी एक किया हो? उसने तो हमेशा बाँटा है….एक तो हमेशा संस्कृति ने किया है…भाषा कभी अलग नहीं करती…वह तो जोड़ती है। जरूरत बस हृदय से अपनाने की है। हम कहते हैं कि दक्षिण भारतीय भाषाएँ या यूँ कहें कि समस्त भारतीय भाषाएँ इस देश की भाषाएँ हैं…दक्षिण वाले हिन्दी को अपना नहीं समझते….जरा सोचिए तो क्या आपने कभी उनको अपनाया है या सीखने की कोशिश की है। अगर की भी है तो उसमें भी जरूरत है या फिर मजबूरी…यही समस्या दक्षिण भारत की भी है और इसी को लेकर राजनीति भी हो रही है।
पिछले कई दिनों से कर्नाटक में हिंदी-विरोधी आंदोलन चल रहा है। रेल्वे स्टेशनों पर लगे हिंदी नामपटों को पोता जा रहा है। कर्नाटक के लिए एक अलग झंडे की मांग की जा रही है। अभी अलग झंडे की मांग को तो दरी के नीचे सरका दिया गया है, क्योंकि कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार इसका खुला समर्थन नहीं कर सकती। यदि मुख्यमंत्री सिद्धरमैया किसी क्षेत्रीय पार्टी में होते तो इस मांग को वे हाथोंहाथ उठा लेते लेकिन हिंदी-विरोध का कर्नाटक में कोई विरोध नहीं कर रहा है। न तो सत्तारुढ़ कांग्रेस, न सत्ताकांक्षी भाजपा और न ही पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का जनता दल ! कोई आश्चर्य नहीं कि यह हिंदी-विरोधी आंदोलन दक्षिण के अन्य राज्यों में भी जोर पकड़ ले। एक तरह से यह केंद्र के विरुद्ध दक्षिण के सभी विघ्नसंतोषी राज्यों को एक कर दे सकता है।
जरा सोचिए कि क्या वजह है कि जिस भाषा ने, जिस देश ने हमें 200 साल तक गुलाम बनाए रखा, वह भाषा आज भी राज कर रही है, वह इन राज्यों के लोगों के हृदय में विराजमान है…क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत एक दूसरे की भाषाओं को अपना ले। अँग्रेजी हो…जरूर हो…हमें सारी दुनिया से जुड़ना है मगर कोई पड़ोसी जिस तरह माँ और मौसी का विकल्प नहीं हो सकता, उसी तरह अँग्रेजी कभी भी हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का विकल्प नहीं हो सकती। हम अँग्रेजी किसी भी अन्य विषय की तरह ही पढ़ेंगे….जरूर पढ़ेंगे….मगर प्राथमिकता अपनी भाषा ही होगी। अगर हम चाहते हैं कि लोग हिन्दी को अपनाएँ तो हमें स्थानीय भाषाओं को अपनाना चाहिए। इन भाषाओं का साहित्य हिन्दी में अधिक से अधिक उपलब्ध हो और हिन्दी के तुलसीदास, सूरदास….अनुदित होकर तमिल या तेलगू में पहुँचें…..पाठ्यक्रम तक ले जाइए। हम रवीन्द्रनाथ को हिन्दी में पढ़ते हैं तो प्रेमचन्द, बिहार, आचार्य शुक्ल और अज्ञेय तमिल, तेलगू और कन्नड़ में पढ़ाएँ जाएँ। हम दोनों एक दूसरे के पूरक बने तो कोई अँग्रेजी हमें नहीं तोड़ सकती। अगर किसी राज्य में उसकी भाषा प्रथम स्थान पर है तो हिन्दी को दूसरी भाषा बनाइए मगर मामला अगर देश का हो तो हिन्दी को स्वीकार कीजिए….। आपसी समझ और समन्वय ही समस्या का समाधान है।
अगर हिन्दी को देश के हर कोने में जाना है तो उसे साबित करना होगा कि वह जोड़ने की क्षमता रखती है। अगर कोई मराठी मराठी लहजे में हिन्दी बोलता है तो उसका स्वागत कीजिए, अगर कोई बांग्ला के लहजे में बोलता है तो उसका उत्साह बढ़ाइए…अगर कोई मणिपुरी तरीके से बोलता है तो उसका सम्मान कीजिए, अगर कोई हिन्दी में डोगरी मिलाता है तो मिलने दीजिए, अगर किसी की हिन्दी में तमिल, तेलगू या कन्नड़ है तो गले लगाइए। इसी प्रकार सभी भारतीय भाषाएँ भी हिन्दी को खुद में समाहित होने दें। अपनी सहोदर और सहचर भाषाओं के साथ मिलकर हिन्दी समृद्ध ही होगी….कम से ये बहनें हैं….पड़ोसी नहीं है। मुझे अँग्रेजी और हिन्दी के हिंग्लिश से ये बेहतर यह जुगलबन्दी लगती है जिसका सुर मेरे देश का सुर बनाता है। अगर अँग्रेजी से लोहा लेना है तो हमें हिन्दी और भारतीय भाषाओं को एक साथ लाना होगा। आपको हिन्दी का प्रसार करना है तो बताइए कि स्थानीय भाषाएँ किसी एक राज्य में चल सकती हैं, कोई अँग्रेजी सीखे भी तो गाँवों तक नहीं पहुँच सकता मगर हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो संसद से सड़क तक, होटलों से गाँव की चौपाल तक आपका साथ देगी…और अपनेपन से देगी। यह सही है कि आज हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है मगर हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। नेताओं से मुद्दा छीनिए….वह भाषा के नाम पर आन्दोलन खड़ा करें, उसके पहले ही उनके हाथ से भाषा छीनिए। वैसे भी कोई भी भाषा राजनीति के भरोसे आगे कभी नहीं बढ़ती, उसे जनता आगे बढ़ाती है, सरकार तो बस संरक्षण दे सकती है….तो यह संरक्षण भी बराबरी का हो। हिन्दी के साथ 50 प्रतिशत राशि स्थानीय भाषाओं के विकास पर खर्च हो….उनके विस्तार और प्रसार को भी प्राथमिकता मिले। अगर आप हाथ बढ़ाएँगे तभी कोई आपका हाथ थाम सकता है। दक्षिण में हमें तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम का डटकर समर्थन करना चाहिए। वहां रहने वाले हिंदीभाषियों को भी ये भाषाएं सीखनी चाहिए। उत्तर भारत के नेता जब दक्षिण में जाएं तो उन्हें उन्हीं भाषाओं के अपने भाषण देवनागरी में लिखवाकर बोलना चाहिए। दक्षिण के नेता हिंदी सीखते हैं या नहीं ? देवेगौड़ाजी हिंदी में लिखे भाषणों को बड़े चाव से पढ़ा करते थे। दिल्ली में रहते हुए अब वे थोड़ी-बहुत हिंदी बोल लेते हैं। दक्षिण भारत में जाकर आप अँग्रेजी नहीं बल्कि तमिल, कन्नड़, तेलगू और मलयालम बोलिए..और उसके बीच में हिन्दी भी डालिए। .उसी तरह उत्तर भारत आने वाले हिन्दी के साथ पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और भोजपुरी बोलें। ऐसा ही प्रयोग प्रशासनिक और विधानसभा या लोकसभा में हो।
राजनीतिक स्तर पर यदि कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्त्ता दक्षिण की भाषाओं का डटकर समर्थन करें और अंग्रेजी के नामपट पोतने लगें तो क्या होगा ? हिंदी को लाने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। वह अपने आप आ जाएगी। त्रिभाषा-सूत्र तत्काल खत्म करें और प्रांतीय भाषाओं को प्रथम स्थान दें तो अखिल भारतीय संपर्क हिंदी के बिना कैसे संभव होगा ? यदि हम प्रांतीय भाषाओं को सिर पर बिठाएं तो वे हिंदी को गोद में जरुर बिठाएंगी।
सच तो यह है कि वर्तमान में जिस प्रकार दक्षिण में हिंदी को रोजगारमूलक भाषा मानकर इसके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। यदि उनकें राज्यों की जनता हिंदी सीख कर या मात्र बोलनें सुननें भर की क्षमता विकसित करके यदि अपनी व्यावसायिक निपुणता या पेशेवर दक्षता बढ़ा पाती है तो इसमें दोष क्या है? वोटों की खातिर क्षुद्र राजनीति करनें वाले इन हिंदी विरोधी नेताओं को समझना चाहिए कि दक्षिण भारत का शेष भारत की संस्कृति और भाषा के प्रति अपना आदरभाव का और विनम्र अनुगामी भाव का अपना गरिमामय और आदरणीय इतिहास रहा है। उत्तर भारत के तीर्थों के प्रति अपनें पूज्य भाव के कारण यहाँ का सनातनी और हिन्दू समाज हिंदी भाषा सीखनें और माता पिता के गंगा स्नान करा लेनें को सदा उत्सुक रहा है!! हिंदी सीख लेनें की रूचि के आधार पर ही1918 में मद्रास में ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ को प्रारम्भ हुआ था और इसी वर्ष में स्थापित हिंदी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ। बाद में तमिल और अन्य दक्षिणी राज्यों की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए ही इस संस्था को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया गया।
वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान है, और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय इस संस्थान से हिंदी में दक्षता प्राप्त कर हिंदी की प्राणपण से सेवा कर रहें हैं। इसी क्रम में केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति, 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की स्थापना हुई। इन संस्थानों में लाखों छात्र हिंदी की परीक्षाओं में सम्मिलित व् उत्तीर्ण होतें हैं. तमिलनाडु में तथाकथित और पूर्वाग्रही विरोध के कारण भले ही शासकीय शिक्षण संस्थानों में हिंदी की उपेक्षा हो रही हो, किन्तु कई निजी संस्थानों में हिंदी की पढ़ाई जारी है, और इनकी परीक्षाओं में छात्रों की संख्या लाखों में रहती है। जनसामान्य में असंतोष है कि निजी विद्यालयों में पढ़नें वाले बच्चे तो हिंदी पढ़कर अपनी रोजगार की संभावनाएं प्रबल कर लेतें हैं किन्तु शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थी हिंदी पीछे रह जातें हैं। दक्षिणी राज्यों में हिंदी को आजीविका का साधन विकसित करनें का एक प्रबल माध्यम माननें का ही परिणाम है कि यहाँ कई सेवाभावी संस्थाएं निःशुल्क हिंदी कक्षाओं का संचालन, लेखन, प्रकाशन, पत्रकारिता, गोष्ठियों का आयोजन निरंतर कराती रहतीं हैं। मुम्बईया हिंदी फिल्मों और हिंदी गीतों की लोकप्रियता के कारण भी हिंदी अब दक्षिणी राज्यों में एक सहज सामान्य रूप से बोली सुनी जानें लगी है। आज हैदराबाद, बैंगलूर तथा चेन्नई नगरों से दसियों बड़े और कई छोटे हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित हो रहें हैं। यहाँ यह कतई न समझा जाए कि दक्षिण भारत में हिंदी का चलन कुछ दशकों की देन है! दक्षिण के सभी राज्यों में हिंदी का अपना दीर्घ और समृद्ध इतिहास रहा है, दो सौ वर्ष पूर्व भी केरल में ‘स्वाति तिरुनाल’ के नाम से सुविख्यात तिरुवितांकूर राजवंश के राजा राम वर्मा (1813-1846) ने हिंदी की कालजयी कृतियाँ रचीं थी जो वहां के जनजीवन में अब भी परम्परागत रूप से आदर पूर्वक बोली सुनी जाती हैं. दशकों पूर्व से कोचीन से मलयालम मनोरमा की ओर से ‘युग प्रभात’ नाम के अत्यंत लोकप्रिय साप्ताहिक हिंदी पत्र और हिंदी विद्यापीठ (केरल) से ‘संग्रथन’ मासिक पत्रिका और कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की ओर से “हिंदी प्रचार वाणी” का प्रकाशन हो रहा है। हिंदी समर्थक पहल को वापिस लेनें के स्थान पर आज अधिक आवश्यक हो गया है कि दक्षिण के जनसामान्य की भावनाओं को न समझनें वालें और अनावश्यक हिंदी विरोध की राजनीति करनें वालों के प्रति कठोर रूख रखा जाए और ऐसे असंतोष उपजा रहे दक्षिणी नेताओं पर कठोरता से अंकुश भी लगाया जाए।
कहीं भी कोई क्षेत्र महानगर का स्वरूप ले पाता है, जब उनमें सह-अस्तित्व की भावना हो। बेंगलुरु ने हमेशा इस सिद्धांत का पालन किया। आप याद कर सकते हैं,बरसों पहले शिवसेना ने किस तरह दक्षिण भारतीयों और हिंदी भाषियों को जलील करने की कोशिश की थी, पर वह सिरे से नाकाम रही। कोलकाता और चेन्नई में भी कभी हिंदी विरोध का दावानल फूटा करता था, पर अब वह अतीत का किस्सा है। राजनेता बंबई को मुंबई, बंगलोर को बेंगलुरु, मद्रास को चेन्नई, कलकत्ता को कोलकाता या गुड़गांव को गुरुग्राम बना सकते हैं, मगर सिर्फ बोर्ड पर नया नाम पोत देने से शहरों की आत्मा नहीं बदला करती।
1991 के आर्थिक उदारीकरण की बड़ी देन है। इससे हिन्दुस्तान में कॉरपोरेटीकरण को बढ़ावा मिला और नई तकनीक के आगमन से बेंगलुरु, हैदराबाद और गुरुग्राम, नोएडा जैसे ‘हब’ विकसित हुए। इन उभरते महानगरों का विकास यह भी जताता है कि हमें अपने मानसिक अवरोधों से मुक्ति पाने की कितनी जरूरत है? हर नया आगंतुक अपने साथ अपनी संस्कृति के मूल तत्व लेकर आता है और जहां जा बसता है, वहां उसके पौधे रोपता चलता है।
आप गौर करें, तो पाएंगे कि इधर हिंदी ने अन्य भाषाओं के शब्द बड़ी तेजी से ग्रहण किए हैं। यही हाल अन्य भारतीय भाषाओं का है। जरूरत है, तो बस इसमें तेजी लाने की, क्योंकि भाषा अलगाव के अवरोधों को सबसे पहले खत्म करने की क्षमता रखती है। कहने का तात्पर्य यह है कि अँग्रेजी अपने प्रसार का एक माध्यम भर होना चाहिए…मगर इसके साथ जरूरी है कि हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएँ साथ आएँ, एक दूसरे के साथ चलें, एक दूसरे की शाब्दिक, साहित्यिक, सामाजिक विरासत को खुले दिल से अपनाएँ तो हिंग्लिश खुद ही खत्म हो जाएगी। हिन्दीवालों को समझना होगा कि हिन्दी सिर्फ हिन्दी प्रदेश की भाषा नहीं है और उसका अस्तित्व और विकास भी अन्य भारतीय भाषाओं और उसकी तमाम बोलियों के साथ जुड़ा है। जाहिर सी बात है कि अगर आप राष्ट्रभाषा बनने की बात करते हैं तो वह संकुचित हृदय, शुद्धिवादिता की जिद के साथ नहीं होगा। भारतीय भाषाओं और हिन्दी को एक दूसरे के साहित्य को अपने पाठ्यक्रमों में जगह देनी होगी। मुझे विश्वास है कि अपने भाषायी क्षेत्र में तमाम बोलियों और अन्य भारतीय भाषाओं को जगह देकर हिन्दी जन – जन की भाषा बन सकती है और वह बनेगी, जरूर बनेगी।