सभी सखियों को नमस्कार। सखियों विस्मृत कवयित्रियों की शृंखला में आज मैं आपको एक और कवयित्री के बारे में बताऊंगी। उनका नाम है, प्रताप कुंवरि बाई, जिन्हें समयकाल की दृष्टि से उत्तर मध्यकालीन कवयित्री कहा जा सकता है। इनका संबंध राजस्थान के जोधपुर से माना जाता है और जन्मकाल 1817 ई.। कहीं -कहीं यह भी उल्लेख मिलता है कि इनका जन्म देवरिया के रावलोत वंश में हुआ था और इनके पिता का नाम गोचंददास था। इसी संदर्भ के अनुसार इनका विवाह मारवाड़ के महाराजा मानसिंह के साथ हुआ था। कहीं इनका निधन वर्ष 1886 बताया जाता है तो कहीं संवत् 1900 । एक तथ्य का उल्लेख हर स्थान पर मिलता है कि इन्होंने तकरीबन 15 ग्रंथों की रचना की थी लेकिन आश्चर्य की बात है कि इतने गंर्थों की रचयिता प्रताप कुंवरि बाई के जीवन और उनकी रचनाओं का विस्तृत परिचय नहीं मिलता। इनका उल्लेख सर्वप्रथम नागरी प्रचारिणी सभा के शोध पत्रों में मिलता है, उसके बाद अन्य आलोचकों ने इस काम को आगे बढ़ाया और अपनी पुस्तकों में उन्हें शामिल किया। इन पुस्तकों में श्री रमाशंकर शुक्ल “रसाल” कृत “हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ” एवं डॉ सावित्री सिन्हा का ग्रंथ “मध्ययुगीन कवयित्रियाँ” उल्लेखनीय है जिनमें प्रताप कु़ंवरि बाई के कुछ पद और सवैये संकलित हैं।
हालांकि कालक्रम की दृष्टि से प्रताप कुंवरि बाई रीतिकाल की कवयित्री ठहरती हैं लेकिन इनकी रचनाओं का स्वर भक्तिमय है जिनमें से वैराग्य की सुरभि से मंडित प्रशांत तरंगें प्रसारित होती है। मध्ययुग की अधिकांश कवयित्रियों ने कृष्ण की भक्ति में डूबकर पदों की रचना की है लेकिन इनकी भक्ति और निष्ठा राम के प्रति है। हालांकि राम और कृष्ण भले ही एक ही देवता के दो नाम और स्वरूप हैं लेकिन भक्त कवि कृष्ण के साथ माधुर्य भाव भी भक्ति का संबंध सहजतापूर्वक जोड़ते हैं और राम के साथ साधारणतः दास्य भाव की भक्ति का, जिसमें शरणागति का भाव सहजता से लक्षित किया जा सकता है। यही भाव प्रताप कुंवरि के पदों में भी दिखाई देता है। राम के चरणों में स्वयं को न्योछावर करते हुए उन्होंने बहुत से पदों की रचना की है। प्रस्तुत पद में भी वह राम का ध्यान करने एवं उनका नाम जपने का उपदेश देती हैं-
“धर ध्यान रटो रघुवीर सदा,
धनुधारी को ध्यान हिये धर रे।
पर पीर में जाय कै वेग परौ,
कर ते सुभ सुकृत को कर रे॥
तर रे भवसागर को भजि कै,
लजि कै अघ-औगुण ते डर रे।
परताप कुंवारि कहै पद पंकज,
पाँव घरी मत बीसर रे॥”
कवयित्री सिर्फ राम की भक्ति में लीन नहीं होतीं, वह रसखान की तरह उस स्थान विशेष अर्थात अयोध्या नगरी को भी स्मरण करती हैं जो राम की जन्मभूमि ही नहीं, उनकी लीला भूमि भी रही है और भक्ति और प्रताप का केन्द्र भी-
“अवधपुरी घुमड़ि घटा रही छाय।
चलत सुमंद पवन पुरवाई नभ घन घोर मचाय॥
दादुर मोर पपीहा बोलत दामिनि दमकि दुराय।
भूमि निकुंज सघन तरुवर में लता रही लिपटाय॥
सरजू उमगत लेत हिलोरै, निरखत सिय रघुराय।
कहत प्रतापकुंवरि हरि ऊपर बार-बार बलि जाव॥”
प्रस्तुत पद में सिर्फ आराध्य के प्रति भक्ति का संस्पर्श ही नहीं है लोकगीतों का पुट और माधुर्य भी है। इसे पढ़ते हुए मन भक्ति की मंदाकिनी में अवगाहन ही नहीं करता, लोक रस के माधुर्य से भी सिक्त हो जाता है। अलंकारों की छटा भी प्रताप कुंवरि के पदों में अपना सौंदर्य बिखेरती हुई दिखाई पड़ती है। प्रस्तुत पद में रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है जिसमें होली खेलने का रूपक बांधते हुए कवयित्री जगत के प्राणियों को भक्ति के रंग -रस में डूबने की सीख देती हैं-
“होरी खेलन की सत भारी।
नर-तन पाय अरे भज हरि को मास एक दिन चारी।
अरे अब चेत अनारी॥
ज्ञान-गुलाल अबीर प्रेम करि, प्रीत तणा पिचकारी।
लास उसास राम रंग भर-भर, सुरत सरीरी नारी।
खेल इन संग रचा री॥
उलटो खेल सकल जग खेलै, उलटो खेलै खिलारी।
सत गुर सीख धार सिर ऊपर सत संगत चल जा री।
भरम सब दूर गुमा री॥
ध्रुव प्रहलाद विभीषण खेले, मीरा करमा नारी।
कहै प्रताप कुंवरि इमि खेले सो नहिं आवै हारी।
सीख सुन लीजै अनारी॥”
पदों के अतिरिक्त इन्होंने सवैया छंद में भी रचना की है। प्रस्तुत सवैये में उन्होंने सांसारिक विषय वासनाओं से मुक्त होकर राम के नाम की भक्ति में डूबने का संदेश दिया है क्योंकि उसे ही वह मुक्ति का मार्ग मानती हैं-
आस तो काहू की नाहिं मिटी, जग में भये रावण से बड़ जोधा।
साँवत सूर-सुयोधन से, बल से नल से रत वादि विरोधा।
केते भये नहिं जाय बखानत, जूझ मुये सब ही करि क्रोधा।
आस मिटै परताप कहै, हरिनाम जपेरु बिचारत बोधा॥
सखियों, आप से आग्रह है कि आप भी प्रताप कुंवरि बाई जैसी विस्मृत लेकिन सशक्त भक्त कवयित्री के पदों को पढ़ें और स्वयं इनका साहित्यिक मूल्यांकन करें। अगर इनकी कविता आपको प्रभावित करे तो इन्हें औरों तक भी पहुँचाने का प्रयास करें। आज के लिए विदा, सखियों।