सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, कई बार इतिहास में ऐसे रचनाकार भी मिल जाते हैं जिन्हे अपने समय में अपने देश में वह पहचान या लोकप्रियता नहीं मिलती जिसके वह हकदार होते हैं लेकिन कुछ देर से ही सही उनकी कद्र अवश्य होती है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री हैं, महाराष्ट्र की संत बहिणाबाई। वह महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय के जनप्रिय संत तुकाराम की शिष्या थीं। हालांकि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाली बहिणाबाई की संत तुकाराम के प्रति भक्ति और श्रद्धा का लोगों ने आरंभिक दौर में बहुत विरोध किया लेकिन कवयित्री पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। स्वयं बहिणाबाई के पति को यह भक्ति स्वीकार्य नहीं थी लेकिन वह अपनी साधना से जौ भर न हिलीं। माना जाता है कि तुकाराम के अभंग सुनकर वह उनकी भक्त हो गईं और उन्हें गुरु रूप में स्वीकार करना चाहती थीं लेकिन उनकी मुलाकात के पहले ही संत तुकाराम की मृत्यु हो गई। फिर भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी और उनकी कठिन साधना से प्रसन्न होकर तुकाराम ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर ज्ञान दिया था। कुछ लोगों का कहना यह भी है कि संत तुकाराम ने बहिणाबाई से अश्वघोष द्वारा संस्कृत में रचित ग्रंथ “वज्रशुचि” का अनुवाद मराठी में करवाया था जिसमें जातिवाद की कड़ी आलोचना की गई है। तथाकथित शूद्र गुरु और ब्राह्मण शिष्या का यह संबंध दुर्लभ और प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है।
बहिणाबाई का जन्म कन्नड़ तालुका के वेलगंगा नदी के तट पर बसे देवगाँव में सन 1628 के आसपास हुआ था। उनकी माता का नाम जानकी और पिता का नाम औजी कुलकर्णी था। तकरीबन तीन वर्ष की उम्र में उनका विवाह 30 वर्षीय दुहाजू रत्नाकर पाठक से कर दिया गया जिसके पहले से ही दो बच्चे थे। बचपन से ही उनके मन में भक्ति का बीजारोपण हो गया था और वह खेल –खेल में भी भजन गया करती थीं। बाद में वह घर –गृहस्थी या खेतों का काम करते हुए भी अभंग गाती रहती थीं। हालांकि उनका घर अभावों और असुविधाओं से भरा था लेकिन संत के मन में सांसारिक विषय –वासनाओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी। यह भी सुना जाता है कि पति उनसे दुर्व्यवहार करते थे लेकिन उन्होंने प्रेमपूर्वक अपनी घर –गृहस्थी संभाली और पति को पर्याप्त आदर दिया। नौ वर्ष की उम्र में पारिवारिक समस्याओं के चलते बहिणाबाई के परिवार को देवगाँव छोड़ना पड़ा। वह अपने पति और माता– पिता के साथ गोदावरी नदी के तट पर स्थित तीर्थ स्थानों की यात्रा करती रहीं और भिक्षाटन के द्वारा अपना और अपने परिवार का निर्वाह किया। पंढरपुर की यात्रा के दौरान उन्होंने वहाँ स्थित विठोबा के मंदिर में प्रभु के दर्शन किये और अपना जीवन विठोबा को अर्पित कर दिया। अंततः ग्यारह वर्ष की उम्र में वह परिवार सहित कोल्हापुर में बस गयीं। पारिवारिक जीवन के उतार –चढ़ाव के बावजूद वह भक्तिभाव में डूबती गईं और विठोबा अर्थात कृष्ण की भक्ति में उन्होंने अभंगों की रचना की। उनकी रचनाओं में गुरु की महिमा, ईश्वरीय भक्ति, वेदांत के सिद्धांतों आदि का सम्यक वर्णन हुआ है। स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणवाद की रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है। सहज, सरल भाषा में लिखित उनकी कविताएं ह्रदय पर स्थायी प्रभाव डालती हैं। उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए आचार्य अत्रे ने लिखा है– “बहिणाबाई की कविता करें सोने की तरह है जो पुराने में चमकती है और नये में चमकती है।” उनकी मृत्यु 2 अक्टूबर 1700 में हुई। उनकी समाधि शिउर में स्थित है। हालांकि उन्होंने अपनी मातृभाषा मराठी में ही पदों की रचना की है लेकिन उनका हिंदी रूप भी उपलब्ध है। काका कालेलकर ने सत्रहवीं शताब्दी की इस महत्वपूर्ण संत कवि की रचनाओं को सहेजकर बीसवीं शताब्दी मेः उन्हें हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया और इनकी रचनाओं को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली । ” हिंदी के जनपद संत” (1963) में उनके अभंग संकलित हैं। भले ही अपने समय में उन्हें अपनी भक्ति के लिए गाँव,, समाज और परिवार की अवहेलना मिली लेकिन बाद में उनके अवदान को समाज ने श्रद्धा के साथ स्वीकार किया। वैराग्य का भाव उनके पदों में प्रमुखता से व्यक्त हुआ है। संसार की नश्वरता को अपने पदों में वर्णित करती हुई वह अल्ला या कृष्ण के नाम को ही पतवार मानती हैं। यही है मानवतावादी भक्ति का स्वरूप जिसमें कवयित्री धर्म और जाति की खाई को पाटकर समस्त मानव जाति को भक्ति और प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं। पद देखिए–
“दो दिन की दुनिया रे बाबा
दो दिन की है दुनिया॥
ले अल्ला का नाम कूल धरो ध्यान।
बंदे न होना गुंमान।
गाव रतन से ही सार।
नई आवेगा दूज बार।
वेगी करो है फिकीर।
करो अल्ला की जिकीर॥
करो अल्ला की फिकीर।
तब मिलेगा गामील पीर।
बहिणी कहे तुजे पुकार।
कृष्ण नाम तमे हुसियार॥“
ईश्वर की बंदगी में बहिणाबाई ने स्वयं को इस तरह न्योछावर कर दिया है कि उन्हें दीन -दुनिया की कोई फ़िक्र नहीं है। अपने सच्चे साहब अर्थात गोविंद की चाकरी में ही वह जीवन की सार्थकता मानती हैं–
“सच्चा साहब तूं येक मेरा,
काहे मुजे फिकीर।
महाल मुलुख परवा नही,
क्या करूं पील पथीर॥
गोविंद चाकरी पकरी,
पकरी पकरी तेरी॥
साहेब तेरी जिकीर करते,
माया परदा हुवा दूर।
चारो दील भाई पीछे रहते हैं,
बंदा हुज़ूर॥
मेरा भी पन सट कर,
साहेब पकरे तेरे पाय।
बहिनी कहे तुमसे गोंविंद,
तेरे पर बलि जाय॥“
बहिणाबई मृत्यु को शाश्वत मानती हैं और उससे जरा भी डरती या घबराती नहीं। जिसने ज्ञान का प्रकाश पा लिया है, गुरु की कृपा प्राप्त कर ली है, उसने मृत्यु भय को जीत लिया है–
“मरन सो हक रे है बाबा
मरन सो हक है॥
काहे डरावत मोहे बाबा,
उपजे सो मर जाये भाई।
मरन धरन सा कोई बाबा,
जनन-मरन ये दोनों भाई।
मोकले तन के साथ
मोती पुरे सो आपही मरेंगे,
बदनामी झुठी बात॥
जैसा करना वैसा भरना,
संचित ये ही प्रमान।
तारन हार तो न्यारा है रे,
हकीम वो रहिमान॥
बहिनी कहे वो अपनी बात,
काहे करे डौर (गौर)।
ग्यानी होवे तो समज लेवे,
मरन करे आपे दूर॥“
बहिणाबाई एक ऐसी संत थीं जिन्होंने वैवाहिक बंधनों में बंधने के बावजूद सांसारिकता की परवाह नहीं की। सामाजिक बंधनों को नकार कर भक्ति की सरिता में स्वयं को प्रवाहित कर दिया। यह कथा भी सुनने में आती है कि उनकी अल्पायु में उनके पति का देहांत हो गया था और उन्होंने संसार से वैराग्य ले लिया था। बहिणाबाई की कविताओं में भक्ति और विरक्ति का सहज स्वर गुंजरित होता है। उनके जीवन के साथ कई चमात्कारिक कहानियों को भी जोड़ा जाता है लेकिन उनका लेखन इन सब से ऊपर है जिसे पढ़ते हुए उनकी निर्भीकता और उदारता के साथ ही उनकी मानवतावादी दृष्टि का सहज परिचय मिलता है।