Monday, April 21, 2025
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भक्ति और नीति को अपनी कविता में साधने वाली ब्रजदासी रानी बंकावती

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, जब हम हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों की चर्चा करते हैं तो प्रमुख और चर्चित इतिहास ग्रंथों में शायद ही किसी कवयित्री की कविताओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि स्त्रियाँ उस युग में सृजनरत नहीं थीं। बहुत सी घटनाएँ कई बार इतिहास ग्रंथों में शामिल नहीं होतीं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे घटनाएँ घटित ही नहीं हुई हैं। इतिहासकार की दृष्टि अक्सर चमकते हुए सितारों के इर्द -गिर्द घूमती है। संभवतः इसी कारण उनके प्रकाश की चकाचौंध में कई प्रतिभाओं पर उनकी नजर नहीं पड़ती और वे‌ अलक्षित ही रह जाती हैं। रीतिकाल में ऐसी बहुत सी कवयित्रियों ने रचना की है जिनका संपूर्ण परिचय और साहित्य पाठकों की दृष्टि से प्राय: ओझल ही रहा है। कुछ की चर्चा मैं इसके पहले कर चुकी हूँ और कुछ पर आगे भी बात करूंगी। आज मैं बात करूंगी रीतिकालीन कवयित्री ब्रजदासी रानी बंकावती जी की। उनके बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है। इतना भर पता चलता है कि वह कछवाह वंश के राजा आनंदराम की पुत्री थीं और इनका जन्म संवत् 1760 में हुआ था। उनके किसी स्वतंत्र ग्रंथ का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन कुछ स्फुट दोहे और कवित्त जरूर मिलते हैं।  

ब्रजदासी ने भक्तिभाव से पूर्ण दोहों और कवित्त की रचना की थी। भक्तिकाव्य की अनन्य विशेषता है, गुरु की वंदना। ब्रजदासी के कवित्त में भी पहले गुरु तदुपरांत ईश्वर की वंदना मिलती है। साथ ही वेद व्यासजी की वंदना भी करती हैं जिन्होंने श्रीमद्भागवत की रचना की। इस भाव का एक कवित्त प्रस्तुत है-

“श्री गुरु-पद बन्दन करूँ, प्रथमहिं करूँ उछाह । 

 

दम्पति गुरु तिहुँ की कृपा, करो सकल मो चाह ।। 

 

बारबार वन्दन करौं, श्रीवृषभानु कुँवारि । 

 

जय जय श्री गोपाल जू, कीजै कृपा मुरारि ।। 

 

वन्दौं नारद, व्यास, शुक, स्वामी श्रीधर संग । 

 

भक्ति कृपा वन्दौ सुखद, फलै मनोरथ रंग ।। 

 

कियो प्रगट श्रीभागवत, व्यास-रूप भगवान । 

 

यह कलिमल निरवार-हित, जगमगात ज्यों भान ।। 

 

करयो चहत श्रीभागवत, भाषा बुद्धि प्रयान । 

कर गहि मोहिं समर्थ हरि, देहैं कृपा-निधान ।।”

ऐसा लगता है कि ब्रजदासी की भक्तिधारा किसी शाखा प्रशाखा के बंधन में आबद्ध हुए बिना निर्बाध गति से प्रवाहित होती थी। उन्होंने सभी देवाताओं को नमन करते हुए समान रूप से उन्हें स्मरण किया है। यहाँ तक कि द्वापर के अंतिम राजा परीक्षित के प्रति भी अपनी श्रद्धा निवेदित की है। उदाहरण देखिए-

“नमो नमा श्री हस नमो सनकादि रूप हरि । 

 

नमो नमो श्री नार्द ऋषि जग को सम सरि ।। 

 

नमो नमो श्री व्यास नमो शुक्रदेव सुस्वामी । 

 

नमो परीक्षित राज ऋषिन में ज्ञानी नामी ।। 

 

नमो नमो श्री सूत जू, नमो नमो सोनक सकल । 

 

नमो नमो श्री भागवत, कृष्ण-रूप छिति मे अटल ।।”

ब्रजदासी जी द्वारा रचित एक दोहा देखिए जिसमें वह वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत के हवाले से निष्काम कर्म करने का संदेश देती हुई दिखाई देती हैं। 

“अबै व्यास जू कहत है, यहै भागवत माँहि 

 

कर्म सबै निहकाम अब, वर्णन करि सुख पाँहि।”

वेदव्यास और श्रीमद्भागवत के संदेश के आधार पर अन्य कवित्त भी मिलते हैं। एक उदाहरण देखिए जिसमें वह संसार की निस्सारता का वर्णन करती हुई प्रभु से लौ लगाने की बात करती हैं क्योंकि प्रभु अन्तर्यामी और सर्व्यापी हैं और उनकी शरण में जाकर ही संसार के छल प्रपंच तथा माया मोह से मुक्ति मिल सकती है।

“व्यास भागवत आरँभ माँही, प्रभु को आन हृदय सरसाहीं ।। 

 

ऐसो बचन कहत सुनि आन, प्रभु सों परम प्रेम उर ठान ।। 

 

परम प्रेम परमेश्वर स्वामी, हम तिहिं ध्यान धरत हिय मानी । 

 

यहै त्रिविध झूठो संसारा, भांति भांति बहु बिधि निरधारा ।। 

 

अरु साँचो सो देत दिखाई, सो सत्यता प्रभुहिं की छाई । 

 

जैसे रेत चमक मृग देखै, जल के भम्र मन माहिं सपेखै ।। 

 

जल-भर्म झूठ रेत ही सत्य, भम्र सो दीख परत जल छत्य । 

 

जल भ्रम कांच मांहि ज्यों होत, सो झूठो सति कांच उदोत ।। 

 

यों झूठो सबही संसारा, साँचो हौ स्वामी करतारा । 

 

प्रभु में नहिं माया सम्बन्ध, न्यारो हरि ते माया बंध । 

 

उपजन, पालन, प्रलय सँसारा, होत सबै प्रभु से विस्तारा ।। 

 

व्यापत ह्वै रह्यो प्रभु सब ठौर, जगमगात जग में जग-मौर । 

 

सबहिं वस्तु को प्रभु ही ज्ञाता, आप प्रकाश रूप सुखदाता ।। 

 

हृदय बीच बिधि के जिन आय, दीने चारों वेद पढाय । 

 

जिन वेदन में बड्डे पंडित, मोहित होइ रहे गुन मंडित।।”

ब्रजभाषा में रचित इन कविताओं में ब्रजदासी के ह्रदय की भक्ति भावना सहज भाव से प्रस्फुटित हुई है। रीतिकालीन कवियों ने भक्तिभाव और नीति की कविताओं की रचना भी की है। ब्रजदासी की कविताओं में भक्ति और नीति का सुंदर संयोग मिलता है। मनुष्य को संसार की भौतिकता और नश्वरता के प्रति सचेत करती हुई वह उन्हें भक्ति के‌ पथ पर चलने का संदेश देती हैं। भले ही इन कविताओं में कोई विलक्षणता नहीं है लेकिन इनकी सहज संप्रेषणीयता ही इनका विशिष्ट गुण है। साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि मध्यकाल की स्त्री अगर तत्कालीन सामाजिक परिवेश की जड़ता का अतिक्रमण कर, अपने ह्दय की भावनाओं को कविता के माध्यम से जितना और जिस रूप में ही सही अभिव्यक्ति  प्रदान कर रही थी तो उसे पढ़ा भी जाना चाहिए और सहेजा भी। 

 

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