बंग महिला ने अपने लेखों में इंडियन पीनल कोड पर किया करारा व्यंग्य
लॉर्ड कर्जन की बांटो और राज करो की नीति पर जड़ा तमाचा
मनपसंद पति चुनने और तलाक की बात कर मचाया तहलका
यह बात 115 साल पहले तब की है, जब अगस्त, 1905 में तत्कालीन कलकत्ता के टाउनहाल में एक सभा आयोजित की गई थी। मुद्दा था ब्रिटिश हुकूमत की बांटो और राज करो की नीति की मुखालफत करना। सभा में अंग्रेजों की बंगाल बंटवारे की योजना के खिलाफ पूरे हिंदुस्तान में स्वदेशी आंदोलन और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का एलान किया गया। तब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किसी भी आंदोलन का केंद्र रहे कलकत्ता की सड़कों और गलियों से महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे निकल पड़े। कोई नहीं जानता था कि इस आंदोलन को लेकर ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन का अगला कदम क्या होगा? हालांकि, इससे पहले करीब साल भर पहले चलें, जब 1904 में उस दौर की मशहूर पत्रिका सरस्वती में एक लेखिका ‘बंग महिला’ की हिन्दी कहानी छपी, जिसका शीर्षक था ‘चंद्रदेव से मेरी बातें’। खत की शैली में लिखी गई इस कहानी में बेहद साहसिक तरीके से लॉर्ड कर्जन पर तंज कसा गया था। कहानी में अंग्रेजी राज की भारत की अर्थव्यवस्था काे चौपट करने और बांटो और राज करो की नीति की पोल खोली गई थी। यह कहानी छपते ही देश में हलचल मच गई, हाय-तौबा मची। अंग्रेजों के चाटुकारों ने तब इस पर पाबंदी लगाने और कहानी को जब्त करने की वकालत की। पता लगाने की कोशिश की गई कि आखिर यह बंग महिला कौन है? यह भी कोई नाम हुआ? इसके पीछे कौन है?
मुखर होने के नाते चरित्र पर लगे लांछन, पर नहीं टूटा हौसला
दरअसल, यह और कोई नहीं आधुनिक हिन्दी नव जागरण की पहली महिला कहानीकार राजेंद्र बाला घोष थीं, जिन्होंने आक्रामक लेखन से पुरुषों के वर्चस्व और उनकी दुनिया को चुनौती दी। राजेंद्र बाला घोष (1882-1951) बंग महिला के छद्मनाम से हिन्दी में लिखती थीं। भारत में अपने लेखों से फेमिनिज्म यानी नारीवादी आंदोलन की शुरुआत करने वालीं बंग महिला को लोगों ने जाने क्या क्या नहीं कहा। कोई उनके चरित्र पर लांछन लगाता तो कोई कहता कि वह बहुत लड़ाका किस्म की हैं। वह इन आरोपों से न तो घबराईं, न टूटीं और न ही उनके हौसलों को कोई थाम सका। उनका नारी मुक्ति का अभियान फेमिनिस्ट आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। उनकी बनाई जमीन पर मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद जैसे दिग्गज कथाकारों ने हिन्दी कहानी को नई धार दी। उनका लेखन स्वदेशी आंदोलन के बाद के दौर में उस वक्त तब बेहद मजबूती से सामने आया, जब भारत में ब्रिटेन के मैनचेस्टर में बने कपड़ों और लिवरपूल के नमक जैसी वस्तुओं के बहिष्कार किए गए। बंटवारा लागू होने के बाद वंदे मातरम् गीत गाकर विरोध किया तो रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी आमार सोनार बांग्ला काे लोगों ने एकता का प्रतीक माना। आखिरकार 1911 में लोगों के जबरदस्त विरोध को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत को बंगाल विभाजन की योजना रद्द करनी पड़ी।
‘भारत भ्रमण पर आएं तो देवताओं के चीफ जस्टिस चित्रगुप्त जी को साथ जरूर लाएं’
बंग महिला की कहानी चंद्रदेव से मेरी बातें में कटाक्ष करते हुए चंद्रदेव को संबोधित किया गया है। जैसे इसकी एक बानगी देखें…आप इतने पुराने हैं तो सही, पर काम सदा से एक ही और एक ही स्थान में करते आते है। आप कभी भारत-भ्रमण करने आएं तो अपने ‘फैमिली डॉक्टर’ धन्वन्तरि महाशय को और देवताओं के ‘चीफ जस्टिस’ चित्रगुप्त’ जी को साथ अवश्य लेते आएं। आशा है कि धन्वन्तरी महाशय यहां के डॉक्टरों के सन्निकट चिकित्सा संबंधी बहुत कुछ शिक्षा का लाभ कर सकेंगे।
इंडियन पीनल कोड पर करारा व्यंग्य, कामकाज पर भी साधा निशाना
कहानी में वह तंज कसते हुए कहती हैं कि यदि प्लेग महाराज (ईश्वर न करे) आपके चंद्रलोक या देवलोक में घुस पड़े तो, वहां से उनको निकालना कुछ सहज बात न होगी। यहीं जब चिकित्सा शास्त्र के बड़े-बड़े शूरमा उन पर विजय नहीं पा सकते, तब वहां आपके देवलोक में जड़ी-बूटियों के प्रयोग से क्या होगा? यहां के ‘इंडियन पीनल कोड’ की धाराओं को देखकर चित्रगुप्त जी महाराज अपने यहां की दंड विधि (कानून) को बहुत कुछ सुधार सकते हैं। और यदि बोझ न हो तो यहां से वे दो चार ‘टाईपराइटर’ भी खरीद ले जाए। जब प्लेग महाराज के अपार अनुग्रह से उनके ऑफिस में कार्य की अधिकता होवे, तब उससे उनकी ‘राइटर्स बिल्डिंग’ के राइटर्स के काम में बहुत ही सुविधा और सहायता पहुंचेगी। वे लोग दो दिन का काम दो घंटे में कर डालेंगे।
दुलाईवाली कहानी आधुनिक हिन्दी की पहली कहानियों में शुमार
बंग महिला मूल रूप से हिन्दी भाषी नहीं थीं। उनके घर में सभी लोग बांग्ला ही बोलते थे, मगर उन्होंने हिन्दी को ही प्रमुख रूप से लेखन का जरिया बनाया। बंग महिला की प्रमुख कहानी दुलाईवाली है, जो 1907 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी की पहली कहानी पर तो वैसे साहित्यकारों में मतभेद है, मगर इस बात पर सब एकमत हैं कि हिन्दी की पहली कहानियों में बंग महिला की दुलाईवाली भी है, जिसने आधुनिक हिन्दी कहानी की नींव रखी। वह बांग्ला में भी लिखती थीं, मगर यहां उनके लेखों पर उनका नाम प्रवासिनी हुआ करता था।
राजनीतिक विरोध और प्रदर्शनों के माहौल के बीच पली-बढ़ीं
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के करीब तीन साल पहले राजेंद्र बाला घोष का जन्म वाराणसी में 1882 में हुआ था। 1857 की क्रांति के बाद भारतीयों द्वारा राजनीतिक तौर तरीके से विरोध करने के लिए कांग्रेस संगठन बनाया गया। ऐसे ही माहौल में राजेंद्र बाला प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में पली बढ़ीं। माता-पिता की दुलारी थीं तो बचपन में उन्हें ‘रानी’ और ‘चारुबाला’ के नाम से सब बुलाते थे।
बच्चों और पति की मौत के बाद छूटा लेखन, गुमनामी के अंधेरे में डूबीं
बंग महिला नाम से राजेंद्र बाला घोष 1904 से 1917 तक लिखती रहीं। बाद में दो बच्चों की असमय मौत और 1916 में पति के इस दुनिया से जाने के बाद वे टूट सी गईं। लेखन छूट गया और गुमनामी व अवसाद के अंधेर में डूब गईं। आखिरकार 24 फरवरी, 1951 को उनका निधन हो गया। कुछ साहित्यकार कहते हैं कि अगर उनका लेखन नहीं छूटा होता तो शायद हिन्दी और समृद्ध और शक्तिशाली होती।
महिलाएं जब बेड़ियों में जकड़ी थीं, तब की मनपसंद पति चुनने की आजादी की बात
बंग महिला के दौर में महिलाओं का ज्यादा आजाद ख्याल अच्छा नहीं माना जाता था। वे कई तरह की परंपराओं और कुरीतियों की बेड़ियों में जकड़ी हुई थीं। उन्होंने पहले तो स्त्री शिक्षा की जमकर वकालत की और महिलाओं को अपनी मनपसंद पति का चुनाव करने की बातें की। यहां तक कि तलाक जैसी बातें भी उन्होंने अपने लेखों में की, जिससे परंपरावादी समाज हिल गया था।