नयी दिल्ली । बीते कई सालों से मधुकांता भट्ट फटे-पुराने कपड़ों को इको-फ्रेंडली बैग में बदल रही हैं। इसका मकसद प्लास्टिक बैग का विकल्प देना है। इससे इन फटे-पुराने कपड़ों का भी इस्तेमाल हो जाता है। मधुकांता की उम्र 93 साल हो चुकी है। उन्हें सिलाई करना बहुत पसंद है। वह अब तक 35,000 से ज्यादा कपड़ों के बैग मुफ्ट बांट चुकी हैं। 2015 से एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उन्होंने बैग न सिला हो। सुबह नहाकर पूजा और फिर ब्रेकफास्ट करने के बाद वह सीधे अपनी सिलाई मशीन पर बैठ जाती हैं। वह चाहती हैं कि धरती से प्लास्टिक का बोझ जितना कम हो सकता है हो। मधुकांता कहती हैं कि वह खाली नहीं बैठ सकती हैं।
शादी के बाद आ गई थीं हैदराबाद
मधुकांता का जन्म गुजरात के जामनगर में एक छोटे से गांव में 1930 में हुआ था। गांव में लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था। लिहाजा, उन्हें भी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली। 18 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। शादी के बाद वह पति के साथ हैदराबाद आकर रहने लगीं। उन्हें सिर्फ गुजराती ही बोलनी आती थी। ऐसे में उनका फोकस सिर्फ बच्चों पर हो गया। मधुकांता के चार बेटियां और एक बेटा है। उन्होंने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में कसर नहीं छोड़ी। सिलाई के प्रति उनका रुझान काफी पहले से था। लेकिन, उन्हें कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली।
1955 में जोड़-बटोरकर खरीदी सिलाई मशीन
बच्चे स्कूल जाने लगे तो मधुकांता के बचपन की ख्वाहिशें हिलोरे मारने लगीं। 1955 में उन्होंने बचत करके सिलाई मशीन ली। तब इसकी कीमत 200 रुपये थी। जोड़-बटोरकर मशीन तो वह ले आईं लेकिन लंबी ट्रेनिंग लेने का उनके पास पैसा नहीं था। लिहाजा, उन्होंने एक महीने का कोर्स किया। इसमें मशीन रिपेयर करने और इसके कामकाज का तरीका सिखाया जाता था। सिलाई, कटाई और डिजाइनिंग उन्होंने दूसरों को देख-देखकर सीख लिया।
35,000 से ज्यादा बैग मुफ्त बांट चुकी हैं
कुछ ही महीनों में मधुकांता मशीन चलाने में बिल्कुल ट्रेंड हो गईं। फिर वह अपने और बच्चों के कपड़े सिलने लगीं। पड़ोसियों के ब्लाउज और पेटिकोट भी वह सिल दिया करती थीं। उनके बेटे नरेश कुमार भट्ट बताते हैं कि मधुकांता आसपास के दर्जियों और फर्नीचर बनाने वालों से कतरन और फटे-पुराने कपड़े जुटाती हैं। फिर इन कपड़ों से बैग बना देती हैं। वह अब तक 35,000 से ज्यादा बैग बना चुकी हैं। इन्हें मधुकांता ने निःशुल्क बांटा है। मधुकांता कहती हैं कि वह खाली नहीं बैठ सकती हैं। खाली बैठना उन्हें सबसे ज्यादा परेशान करता है।