जन्म स्थान -12 जून, 1957 , मूल नाम गीतांजलि पांडेय।
जन्म स्थान – उत्तर प्रदेश का मैनपुरी
संक्षिप्त पारिवारिक परिचय –
पिता का नाम – अनिरुद्ध पांडेय आईएएस अधिकारी,
माता का नाम – श्री कुमारी पांडेय
पति का नाम – सुधीर पंत, इतिहासकार
आपकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई . पिता आई ए एस बनाना चाहते थे। माँ चूंकि हिंदी भाषी थीं इसलिए हिंदी से प्रेम स्वाभाविक था। माँ पिता दोनों से ही अलग- अलग विश्वास और नजदीकी का रिश्ता रहा। मर्ज़ी से विवाह किया, पति का पूरा सहयोग मिला।
#शिक्षा –
प्रारंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों मथुरा, अलीगढ़, मुज्जफरनगर में,दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से स्नातक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए, महाराज सयाजी राव विवि वडोदरा से प्रेमचंद और उत्तर भारत के औपनिवेशिक शिक्षित वर्ग विषय पर शोध की उपाधि प्राप्त की जामिया मिल्लिया इस्लामिया विवि में अध्यापन कार्य भी किया, सूरत के सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में पोस्ट-डॉ क्टरल रिसर्च के लिए गईं।
#कृतियाँ –
उपन्यास- ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगह’ रेत की समाधि
कहानी संग्रह- ‘अनुगूँज’, ‘वैराग्य’, ‘मार्च माँ और साकुरा’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘यहाँ हाथी रहते थे’
थियेटर के लिए भी लिखा हैंं जिसके नाट्य रूपांतरणों का मंचन देश-विदेशों के कई शहरों में हो चुका है।
#पुरस्कार –
इन्दु शर्मा कथा सम्मान, हिन्दी अकादमी साहित्यकार सम्मान-2000-2001 , यू के कथा सम्मान – 1994 अनुगूंज के लिए। द्विजदेव सम्मान, कृष्ण देव बलदेव सम्मान के अलावा जापान फाउंडेशन, चार्ल्स वॉलेस ट्रस्ट भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और नॉन्त स्थित उच्च अध्ययन संस्थान की फ़ैलोशिप ।
स्कॉटलैंड, स्विट्ज़रलैंड और फ्रांस में राइटर इन रैजि़डैंस भी रही हैं.
उनकी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, जापानी, सर्बियन, बांग्ला, गुजराती, उर्दू आदि भाषाओं में हो चुके हैं।
गीतांजलि का एक शोध-ग्रंथ ‘बिट्वीन टू वर्ल्ड्स: एन इंटलैक्चुअल बायोग्रैफ़ी ऑव प्रेमचन्द’ भी प्रकाशित हो चुका है।
#विशेष_टिप्पणी –
गीतांजलि श्री अपनी तरह की एक अनूठी रचना कार हैं। आधुनिक स्त्री साहित्यकारों में उनकी पहचान है। स्त्रीवादी साहित्यकारों की परंपरा से हटकर विश्वस्तरीय विषयों की चर्चा उनके साहित्य में जरूर है। लेखिका की खास पहचान सिग्नेचर ट्यून उन्हें अन्य स्त्री लेखिकाओं से अलग पहचान देती हैं। उनका कथा साहित्य और उसकी खास शैली परंपरा से हटकर और परंपरा में समाहित भी है।
गीतांजलि श्री का मानना है कि साहित्य तो है ही व्यंजना और लक्षणा का खेल।
हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘रेत समाधि’को सब बंधन तोड़ देने के बाद ऐसे लिखा गया है जैसे कि मन सोचता है। वे मानती हैं कि फ़्रेंच में अनुदित किताब अलग जीवन शैली व संस्कृति वाले लोग पढ़ेंगे और उनकी सोच व समझ कृति में नए आयाम खोलेगी। कृति नए सिरे से जीवन पाएगी। ये लेखिका उपलब्धि मानती हैं ।
#ख़ास –
अच्छा तब लगता है जब विदेशी पाठक अपनी संस्कृति से भिन्न जीवन में वह पाते हैं जो अलग दिखता है पर उनके अनुभव का हिस्सा भी है, यानी वे बातें जो विशेष होकर भी सार्वजनिक हैं और महज़ इंसानी। पराया भी अपना है!
इसके पहले उनके दो और उपन्यास फ्रेंच में आ चुके हैं और वे अपने को ख़ुशक़िस्मत मानती हैं क्योंकि दोनों अनुवादकों से उनका अच्छा सम्बंध बन गया है। एक हैं जानी मानी हिंदी की विदुषी प्रोफ़ेसर आनी मौंतो जो पेरिस में हैं, और दूसरे हिंदी पढ़ाते हैं स्विटज़रलैंड में, निकोला पोत्ज़ा। दोनों हिंदी साहित्य और हिंदुस्तान से ख़ूब परिचित हैं और कुछ हद तक भारतीय बन चुके हैं
#रचना_अंश –
गीतांजलि श्री की पहली कहानी ‘बेलपत्र’ 1987 में ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुई।
उनकी पुस्तक ‘सांस लेती अपनी दुनिया’ में भी ‘वास्तविक जीवन’ की हार्दिक बात ही है। सर्जन क्रिया में कल्पना और वास्तविक जीवन का विचित्र खेल चलता है और अगर एकदम सपाट साधारण लेखन की बात छोड़ दें तो ऐसा नहीं होता कि बस जीवन से सीधे सीधे चरित्र उठाया और साहित्य में बैठा दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि बहुत से तत्व मिलते हैं और साहित्य और उसमें आते चरित्र, घटनाएं, इत्यादि जन्मते हैं। अक्सर वास्तविक जीवन के अनेक चरित्र मिलके एक चरित्र निर्मित हो जाता है। सर्जक की कल्पना वहां काम करती है।
उनका मानना है कि साहित्यकार को जीवन की सम्भावनाएं, जो हो सकता है अभी हासिल में नहीं आयी हों, भी प्रेरित करती हैं। ये सम्भावनाएं अच्छाई की भी हो सकती हैं और बुराई की भी। साहित्यकार उत्साहित भी कर सकता है, चेतावनी भी दे सकता है। यही कारण है कि भविष्य अक्सर साहित्य में प्रतिध्वनित होने लगता है। जॉर्ज ओरवेल का साहित्य हो या हमारे यहां टैगोर का गोरा । हिंदू समाज को अभी तक उसका गोरा नहीं मिला है, पर है वह कितना परिष्कृत, परतदार, गहरा चरित्र, और कितना ज़रूरी हमारे उद्धार के लिए।
बहुचर्चित उपन्यास ‘रेत समाधि’ में वे एक जगह लिखती हैं कि- “बेटियां हवा से बनती हैं। निस्पंद पलों में दिखाईं नहीं पड़ती और बेहद बारीक एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं।”
गीतांजलि श्री के लेखन में ढेरों गूंज अनुगूंज हैं। एक बात यह कि बेटियों/औरतों को पुरुष-प्रधान समाज में अनदेखा किया जाता है या ख़ास ‘नज़र’ से देखा जाता है, उस नज़र से नहीं जो स्त्रियां चाहती हैं और जिसकी वे हक़दार हैं। उनका मानना है कि नयी नज़र हो,लड़की पहचानी जाए, उसकी बारीकी दिखे।
वे मानती हैं कि महिलाएं पुरुष से अलग हैं, कितनी अलग, किन बातों में अलग, इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है और वो निर्णायक बात से ज़्यादा एक चर्चा और बहुतेरे आयाम खोलने की बात है। समाज और संस्कृति ने किस तरह उन्हें अलग अलग जीव और पहचान बनाया है, वह चर्चा भी होनी होगी। उसकी जगह यहां नहीं है। अभी नहीं।
वे अलग हैं, किन मायनों में हैं, किन मायनों में नहीं, इससे बराबरी की मांग पर फ़र्क़ नहीं ज़रूरी। मैं अलग हूं तो भी बराबरी मांगूंगी। बराबरी यह नहीं कि औरत के भी शिश्न हो और पुरुष के भी स्तन। बल्कि यह कि किसी भी सूरत में दोनों के समान अधिकार हों, समान विकल्प हों, चुनाव की एक-सी आज़ादी हो।
हिंदी साहित्य में किसी नए क्राफ्ट,नए शिल्प या बुनाई के प्रयोग कम ही होते हैं। लेकिन’ रेत समाधि’ में उन्होंने सब बंधन को तोड़ देने के बाद ऐसे लिखा गया है जैसे कि मन सोचता है। वे मानती हैं कि रचना तब सशक्त होती है जब वह अपना विशिष्ट स्वर पा लेती है,अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है,अपनी चाल निर्धारित कर लेती है। रचनाकार को अपने को निमित्त बनने देना पड़ता है। वे ख़ुद को स्वतंत्र छोड़ने का उपक्रम करती हैं और कृति कोख रस्ते, भाषा, शिल्प-शैली चुनने देती हैं। मगर यह किसी अराजकता का पालन करना नहीं है। उनका अंतर्मन, लेखक-मन, चेतन-अवचेतन, संवेदना, सूझबूझ, कल्पना-शक्ति, प्रज्ञा, यह सब रचना शक्ति को तराशते रहते हैं और अभी भी तराश रहे हैं। उनका अंतर्मन अनजाने उन्हें गाइड करता है। अराजक होने से रोकता है, साहस करने को उकसाता है, जोखिम लेने को भी, मगर धराशायी होने के प्रति चेताता भी है, पांसा ग़लत भी पड़ सकता है, पर वह सृजनधर्म में निहित है। और चैलेंज वही है कि संतुलन मिले पर ऊबा हुआ, रगड़ खाया, सपाट घिसा पिटा अन्दाज़ और ढब न बने।
उन्हें रामानुजन का यह कथन बेहद प्रिय है कि मैं कविता का पीछा नहीं करता,अपने को ऐसे ‘माहौल’ या ‘जगह’ में स्थित कर देता हूँ कि कविता मुझे ढूंढ़ लेती है।
जैसा उस्ताद अली अकबर ख़ां ने कहा है – शुरू करता हूं तब सरोद मैं बजाता हूं, फिर सरोद मुझे बजाने लगता है।
जहां उपन्यास रेत समाधि ने बंधन तोड़े हैं तो वह उसका अपना तलाशा और पाया हुआ सत्य है। अगर वह विश्वसनीय, ज़ोरदार बन गया, अपना व्यक्तित्व पा लेता है । सात साल बाद रेत समाधि राजकमल से प्रकाशित हुआ जो ‘डूबना’ डुबा नहीं गया, कोई ‘मोती’ तल से भंवरता आख़िरकार ऊपर आया और हाथ लगा। शायद पाठकों के भी।
‘ तिरोहित ‘ उपन्यास के एक अंश में उनकी भाषा की बानगी देखिए – – तिरोहित टेबल फैन वह वाला जिसे एक बार चोर ने चलता हुआ उठाने की कोशिश की थी, छत से आँगन में रस्सी डालकर, मानो तालाब से मछली पकड़ता हो! उसी के बाद चाचा ने, कि ललना ने, या फिर चच्चों ने, आँगन पर टटूटर डलवा दिया.गर्मी की रात!गर्मी की रातों में क्या किया जाता है ?छत पर सोया जाता है.पर छत तो पूरे मोहल्ले की है, मार भीड़-भाड़, शोर-शराबा, चाँद की तरह ताकाझांकी. चुपके चुपके सहली-सहली. हवा की तरह शरारतें. कहीं मुंडेर पर सुराही रखी है कि रात को उठकर सोंधी मिट्टी की महक का पानी पी लो. कहीं खाट पर कोरी चादरें बिछी हैं, तकियों को गोल मरोड़कर मसनद बना डाला है, ठहाके लगा रहे हैं. जरा अलग किसी ने अंगीठी भी जला ली है और परात से नर्म लोइयाँ लेकर बेल रहा है, गर्म-गर्म फुल्के सेंक रहा है. गिलहरी सोते-सोते जग गई है और उम्मीद नहीं छोड़ पा रही कि आटे में उसके नाम भी हिस्सा है, दो कदम आगे डर-डर के, बीस कदम पीछे और डर के.लेबरनम हाउस की छत. अभी भी कभी-कभी सर्राफों की छत कहलाती है. अठारहवीं शती में यह सर्राफों का मोहल्ला था और उनके राजा ने एक छत के नीचे यह रहने-बेचने की जगह कर दी. कहीं ऊँची, कहीं नीची छत. हर मौसम की निराली छत. हर रिश्ते की हिमायती छत. दबावों से मुक्त छत. असीम से असीम को लाँघती हुई.अट्ठारह सौ सत्तावन में इन घरों में न जाने कितने बाग़ी छिपे कि अंग्रेजों की टुकड़ी आई तो छत की राह घर-दर-घर लाँघते हुए मोहल्ले नीचे कूद जाएँ और फ़रार! सुनते हैं कि चमनजी के दो परदादा भाइयों में एक बाग़ियों के साथ था, दूसरा अंग्रेजों के, और उन मारपीट के दिनों में दोनों एक दूसरे से छिपाकर अपनी टोलीवालों को शरण देते. एक दिन एक इधर का छिपा छत के रास्ते भाग रहा था और उधर का एक, छत के उसी रास्ते छिपने आ रहा था. राह में टकरा गए दोनों और ऊपर से नीचे की छत पर जा गिरे जिससे एक के पैर में पड़ गई मोच. ऐसे में दूसरे ने दोनों हाथों से सहारा देकर उसे छज्जे से ऊपर खींचा और तब फिर ग़ायब हो गया.ग़ायब होना आज भी आसान है इस छत पर. किसी का घर दो-मंजिला, किसी का तीन, कहीं पौर से लगा ज़ीना, कहीं आँगन की दीवार से सटी लोहे की सीढ़ी. छत पर बढ़ी आई दरख्तों की डालें, खम्बे, छज्जे, टंकियां. एक कदम इस ओट, दूसरा कदम उस ओट और नौ-दो-ग्यारह.यही जानकर सुधीरचन्द्र 1942 में भागे, जब पुलिस पहुँच गई उनके बाबा को पकड़ने, जो आंदोलन में सक्रिय थे. अरे बचवा भाग, उनकी दादी चिल्लाई. तोहार बाबा ते है नहीं, ये जल्लादन तोहिके भूँज देंगे. लगीं देने गालियाँ फिर देशद्रोही, वर्दीपोश, अंग्रेजों के टट्टुओं को.मजा यह कि देशद्रोही नहीं तो बड़े देशप्रेमी भी नहीं थे सुधीरचन्द्र. इन्टर, बीए कुछ कर रहे थे और बस इतनी-सी आकांक्षा थी कि अच्छी-भली कोई नौकरी, काले, गोरे, पीले, लाल, जिसके तले, पा जाएँ. ऊधमी बाबा फ्यूचर न बिगाड़ दें, सिर पर पाँव रखकर भागे. पर अबके जो छत पर उधर से दौड़ा आ रहा था, उसने ऐसे किसी रुख का संकेत नहीं दिया कि पास आ, सहारा दे हट जाऊँगा. एक तरफ नीम की डाल दूसरी तरफ दारोगा की मूँछ!