कोलकाता। जिले में पोइला बोइशाख (बंगाली नववर्ष) की दस्तक के साथ एक बार फिर बाजारों में पारंपरिक कैलेंडर और खाता-बही की मांग बढ़ती नजर आ रही है। आधुनिक तकनीक के दौर में जहां डिजिटल रिकॉर्डिंग और ऑनलाइन ग्रीटिंग्स ने पारंपरिक चीजों को पीछे छोड़ दिया था, वहीं अब पुराने तौर-तरीके एक बार फिर लोकप्रिय हो रहे हैं।
बंगाली संस्कृति में पोइला बोइशाख को विशेष स्थान प्राप्त है। इस दिन व्यवसायी नए साल की शुरुआत ‘हाल खाता’ से करते हैं—यानी पुराने खाते बंद कर नए बहीखातों की शुरुआत। पहले की तुलना में पिछले कुछ सालों में इसकी मांग में भारी गिरावट आई थी। कारण साफ था—कंप्यूटर और मोबाइल ने कागज़ की जगह ले ली थी। नदिया के कृष्णगंज स्थित माजदिया के प्रसिद्ध कैलेंडर व्यापारी स्वप्न कुमार भौमिक बताते हैं, “पिछले 50 वर्षों से मैं इस व्यवसाय में हूं। हाल के वर्षों में बिक्री 80% तक गिर गई थी, लेकिन इस बार फिर से पुराने जैसे ऑर्डर मिलने लगे हैं। चैत्र माह में अब भीड़ वैसी ही हो रही है जैसी पहले हुआ करती थी।” प्रिंटिंग प्रेस संचालक गोपाल मंडल कहते हैं, “हम और हमारे कर्मचारी दिन-रात कैलेंडर और हलखाता कार्ड की छपाई में जुटे हैं। हलखाता की परंपरा अब केवल पोइला बोइशाख तक सीमित नहीं रही। अक्षय तृतीया, बुद्ध पूर्णिमा, यहां तक कि रथयात्रा जैसे पर्वों पर भी हलखाता का चलन शुरू हो गया है।”
स्थानीय ग्राहक इंद्रजीत बिस्वास बताते हैं कि बकाया भुगतान और ग्राहक-व्यापारी संबंधों के लिहाज से यह परंपरा बेहद कारगर साबित हो रही है। वहीं विद्युत बिस्वास मानते हैं कि डिजिटल निमंत्रण जितना भी तेज हो, उसमें वह आत्मीयता नहीं जो एक कार्ड या कैलेंडर में होती है—जो सालभर दीवार पर टंगा रहता है और याद दिलाता है अपने रिश्ते का।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि डिजिटल युग की चमक के बीच भी परंपराओं की गर्माहट बनी हुई है। बहीखाता और कैलेंडर फिर से दुकानों की शोभा बन रहे हैं, और शायद यही वो सांस्कृतिक जड़ें हैं, जो समय के साथ और मजबूत होती जा रही हैं।