पुस्तक समीक्षा:ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक:“अव्यक्त से व्यक्त तक”

समीक्षक,. डॉ. पूनम पाठक, मेरठ

आत्मकथाकार: रेणु गौरीसरिया

इससे पूर्व कि हम रेणु गौरीसरिया द्वारा विरचित आत्मकथा “ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक” पर चर्चा करें और यह समझने का प्रयास करें कि एक स्त्री अपनी आत्मकथा आखिर क्यों लिखती है, हमारे लिए प्रथम ‘आत्मकथा’ को समझना और जानना आवश्यक है। आत्मकथा शब्द अंग्रेजी के ऑटोबायोग्राफी का हिंदी रूपांतरण है। ‘आत्मकथा’ लेखक के जीवन में घटित कुछ विशेष या अनेक हिस्सों को, उससे जुड़ी तमाम घटनाओं को शब्द रूप में प्रस्तुत करने वाला वह सच्चा दस्तावेज है जिसमें अतीत की स्मृतियों और भोगे हुए जीवन की अनेक घटनाओं का विवरण सत्य एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि में लेखक के स्वयं के दृष्टिकोण से बताया गया हो। अपनी तीव्र और गहन अनुभूतियों को लिखते समय एक बार फिर से भोगने की पीड़ा या प्रसन्नता को अनुभव करता है। वस्तुतः अनुभूतियों का सर्जनात्मक विन्यास है आत्मकथा इसीलिए ‘आत्मकथा’ को साहित्य की श्रेणी में रखा गया है। यह हिंदी साहित्य की एक अत्यंत गूढ़ एवं जटिल किंतु अर्थपूर्ण विधा है।                           यथार्थता, निष्पक्षता,क्रमबद्ता, तटस्थता और ईमानदारी आत्मकथा के लिए नितांत अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण तत्व है जो कथाकार को ही नहीं अपितु उसकी कृति को भी जीवंत, रोचक, प्रभावशाली, विश्वसनीय और प्रामाणिक बनाता है। इस शब्द का पहली बार प्रयोग सन 1796 में हर्डर नामक जर्मन व्यक्ति ने किया था। जिसे ‘जीवनी’ के समकक्ष माना गया था। 19वीं शताब्दी के आरंभ में आत्मकथा को जीवनी से पृथक मानते हुए इसे एक स्वतंत्र विधा के रूप में लिखा एवं पढ़ा जाने लगा।                                                                                                                             हिंदी साहित्य की पहली आत्मकथा “अर्धकथानक” नाम से प्रकाशित है जिसके लेखक श्री बनारसी दास जैन माने जाते हैं। अंबिकादत्त व्यास, महावीर प्रसाद द्विवेदी, डॉ श्यामसुंदरदास, राहुल सांकृत्यायन, बाबू गुलाब राय,डॉ राजेंद्र प्रसाद, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, और डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन आदि मुख्य पुरुष आत्मकथाकार रहे हैं। सूची लंबी है।           पुरुष प्रधान देश और समाज में भाई, पिता या पुत्र के संरक्षण में जीवनपर्यंत जीने के लिए विवश स्त्रियों का स्वतंत्र अस्तित्व विकसित होना जब संभव नहीं था तो कोई भी स्त्री अपनी आत्मकथा कैसे लिख पाती? पुरुष आत्मकथा लेखन की भरमार के बीच स्त्री आत्मकथा लेखन का स्रोत दूर तक भी दिखाई नहीं देता था। समाज की रूढ़िवादी मान्यताओं, रीति-रिवाजोंऔर परंपराओं के बंधन से निकलने के लिए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया। वर्षों से पुरुष वर्चस्व की कैद में रहते हुए भी सहिष्णुता पूर्वक जीवन जीने वाली स्त्रियाँ कलम पकड़ने के पश्चात भी अपनी आत्मकथा लिखने से परहेज ही करती रही कि आत्मकथा लेखन से उनके भीतर किसी कोने में दबी छिपी कोमल कठोर भावनाएं कहीं सार्वजनिक न हो जाएं जिसके चलते उन्हें पारिवारिक और सामाजिक क्षति उठानी पड़ेगी। धीरे-धीरे पुरानी मान्यताओं के टूटने पर स्त्रियाँ परिवर्तित मूल्य बोध के प्रति जागरूक हुई और आधुनिक काल में अपने जीवन-संघर्ष को चित्रित करने लगी। परिणामस्वरूप बहुत बाद में वे अपनी आत्मकथा लेखन में रुचि दिखाने का साहस कर पाईं। मराठी, पंजाबी, बांग्ला आदि भारतीय भाषा में लिखित आत्मकथा से प्रभावित होकर हिंदी में भी आत्मकथा लेखन प्रारंभ हुआ। जिसमें खुलकर लेखिकाओं अपनी व्यथा, पीड़ा और  मानसिक घुटन को शब्दों में व्यक्त किया।                                        महिला आत्मकथा साहित्य का सर्वप्रथम सूत्रपात  बांग्ला भाषा में रससुंदरी देवी नामक लेखिका द्वारा माना जाता है जिन्होंने वर्ष 1876 में “आमार जीबोन ” नामक आत्मकथा लिखी। इसके पश्चात यही साहस बांग्ला, मराठी इत्यादि अनेक भाषाओं के साथ-साथ हिंदी भाषा की अनेकों आत्मकथा में भी प्रतिबिंब होता रहा है। हिंदी की पहली स्त्री आत्मकथा जानकी देवी बजाज द्वारा रचित “मेरी जीवन यात्रा है” जो वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी की प्रमुख आत्मकथाकारों में मैत्रेई पुष्पा, रमणिका गुप्ता, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेई पुष्पा, चंद्रकिरण सोनरिक्शा, रमणिका गुप्ता, सुषमा बेदी इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। पंजाब की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट समूचे स्तरीय आत्मकथा साहित्य में अग्रिम पंक्ति की रचना मानी जाती है। लेखिकाओं ने बड़ी ही बेबाकी और निर्भीकता से अपने हृदय की भावनाओं को आत्मकथा में अभिव्यक्त किया।                                                                                                             स्त्री आत्मकथाओं की इस कड़ी में अब एक कड़ी और जुड़ गई है –रेणु गौरीसरिया द्वारा लिखित आत्मकथा “ज़करिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड तक” जो नवंबर वर्ष 2020 में संभावना प्रकाशन, हापुड़ से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य रु 300/ है। इस आत्मकथा का बांग्ला संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है जिसे बांग्ला भाषियों में काफी प्रशंसा मिल रही है।       रेणु दी से मेरा परिचय कोलकाता की साहित्यिक संस्था “साहित्यिकी” के माध्यम से हुआ। अक्सर मिलना-जुलना रहता था। रेणु गौरीसरिया, कोलकाता महानगर में राजस्थान से सदियों पूर्व आकर बसे एक संभ्रांत, धनाढ्य, सुसंस्कृत कोलकाता महानगर के एक मारवाड़ी परिवार में जन्मी, पली, बढ़ीं एक रिटायर्ड स्कूल टीचर हैं। कुछ वर्ष पहले जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़ी और तब उनकी चेतना ने उन्हें एहसास कराया कुछ लिखने का। तभी उन्होंने निश्चय किया कि जो कुछ भी अपने जीवन की स्मृतियां उनमें अभी भी शेष है वह सब वे अपने पुत्र और पुत्री के लिए लिखेंगी। जिसका परिणाम सामने आया “जकारिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक” के रूप में जिसमें उनके अब तक के भोगे गए जीवन का यथार्थ समाहित है। यूँ देखा जाए तो जकरिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड की दूरी भले ही कम हो, मात्र 6-7 किलोमीटर की और इस यात्रा को मात्र 20-25 मिनट में ही पूरा कर लिया जाता है, किन्तु प्रतीकात्मक रूप में लेखिका ने इन दोनों स्थानों बीच सिमटा अपने जीवनकाल का बहुरंगी एक लंबा फासला तय किया है। इन दोनों स्थानों पर जहाँ एक ओर रेणु जी द्वारा व्यतीत किए गए, कहना चाहिए कि भोगे गए और अनुभव किए गए परिस्थितिजन्य विविध पलों, भावनाओं, संवेदनाओं, यंत्रणाओं, पीड़ाओं और विपदाओं के पल-पल परिवर्तित अंधकारमय अनेक चित्र समाहित है तो दूसरी ओर आशा, आत्मविश्वास, निर्भीकता, दृढ़ इरादे,  संघर्षशीलता और जीवटता के उजाले भी फैले हैं जिसमें उनका जगमगाता हुआ व्यक्तिव उभर कर सामने आता है। नियति के खेल का अद्भुत उदाहरण इसे माना जा सकता है।                                                  किसी के लिए भी अपनी आत्मकथा लिखना सरल कार्य नहीं होता है। इसकी विषयवस्तु कथाकार का स्वयं का जीवनवृतांत होता है। अपने जिए हुए जीवन और उससे प्राप्त कटु एवं मधुर अनुभव, अतीत में भोगे हुए दुख-सुख का पुन:निरीक्षण करता है। जकरिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड की यह यात्रा स्त्री चेतना, स्त्री अस्मिता, स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री संघर्षशीलता एवं स्त्री के सशक्तिकरण की अद्भुत आत्मकथात्मक कृति है जिसमें एक स्त्री जीवन की घुटन, पीड़ा, अन्याय, वैवाहिक जीवन के दर्द और पति की संकुचित मानसिकता को बेबाकी से और निर्भीकता से चित्रित किया गया है। स्त्री के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक वर्जनओं, बंधनों पितृसत्तात्मक समाज की ओर से लगी अनेक पाबंदियों को उजागर कर स्त्री शोषण, स्त्री अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करती है यह यात्रा गाथा। लेखिका के द्वारा भोगे हुए जीवन का सच यथार्थ के धरातल पर प्रकट हुआ है। उन्होंने अपने बाल्यकाल से लेकर लेखिका बनने के मार्ग में आने वाली तमाम घटनाओं का उल्लेख ही नहीं किया वरन उन्हें एक बार फिर से जिया भी है। अपने कमजोर आत्मविश्वास को उन्होंने आत्मिक दुर्बलता के संदर्भ में देखा और अपने जीवन में संघर्षों से, कठिनाइयों से कभी हार नहीं मानी। यह आत्मकथा नियति के समक्ष स्त्री सशक्तिकरण की एक ऐसी इबारत प्रस्तुत करती है जो अनेक अर्थों में समाज के लिए प्रेरणास्पद है।एक कुलीन,समृद्ध, संभ्रांत बहुत बड़े संयुक्त परिवार की लड़की जिसे खाना पकाना तक न आता हो उसके मन में अनगिनत विचारों, यादों का, भावनाओं का ऐसा अदृश्य संसार बसा है जिससे वह स्वयं ही अनजान रही। बीमारी की पीड़ा ने उसे उसके भीतर बसे संसार में जाकर उसको फिर से जीने देने का अवसर प्रदान करने के लिए प्रवेश द्वार खोल दिए जिसके परिणामस्वरूप यह आत्मकथा पाठकों के समक्ष आई। बेहद संकोची, शर्मीली सी, मृदुभाषी, मितभाषी और संस्कारवान लड़की की स्मृतियाँ चित्रपट पर मानों रील के सदृश्य चलने लगती है और अनेक दृश्य एक-एक कर शब्दों का लबादा ओढ़े पन्नों पर बिछते चले जाते हैं। रेणु जी के जीवन संघर्ष की कथा है यह आत्मकथा।                             रेणु जी की यह आत्मकथा प्रमाण है कि एक भारतीय स्त्री को अपने जीवन को जीवन जैसा बनाए रखने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है वह भी तब जबकि उसका बचपन, उसका पालन पोषण एक सनाढ्य और समृद्ध परिवार में व्यतीत हुआ हो। यह उस कर्तव्यनिष्ठ पुत्री, पत्नी और माँ की कहानी है जिसने अपनी स्वायत्तता को प्रत्येक परिस्थिति में बनाए रखा।                                                                                                        एक अत्यंत विशाल संयुक्त परिवार में रेणु जी का पालन पोषण हुआ। आज के एकाकी परिवार के समय में संयुक्त परिवार का ऐसा उदाहरण है जिसमें अनेक कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं, जिनमें दादा-दादी, चाचा, ताऊ अपने अपने परिवार के साथ रहा करते थे, एक स्वप्न समान प्रतीत होता है। अनेक चचेरे भाई-बहन के बीच बिताए बचपन की सुनहरी स्मृतियों ने आत्मकथा के बड़े हिस्से को सुंदर एवं रोचक बना दिया है। फिल्मों की बेहद शौकीन रेणु जी ने बचपन की यादों को कुछ इस तरह से याद किया है – ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ती फिरती तितली बन के’।  इस आत्मकथा में एक भारतीय स्त्री की स्मृति रूपी खजाने से निःसृत अनेक ऐसे वृतांत हैं जो पाठक को उसके बचपन स्मृतियों में खींच कर ले जाते हैं। बचपन में जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। वह लिखती है बचपन किसी का कुछ कठिनाइयों भरा हो तब भी वर्तमान की तुलना में मधुर ही प्रतीत होता है। सभी को अपना बचपन प्रिय होता है। वास्तव में बचपन की खट्टी-मीठी, चटपटी यादें किसी भी इंसान के परवर्ती जीवन जीने के लिए मानो रिचार्ज कूपन होते हैं इस आत्मकथा ने यह सिद्ध कर दिया है। आत्मकथा के अनेक मोड़ों पर पाठक का मन फिर-फिर मुड़ कर पीछे बचपन की गलियों में लुकाछिपी खेलता, चचेरे भाई बहनों, संगी-साथियों के संग अनगिनत मजेदार किस्से-कहानियों को सुनता-सुनाता, बाल-सुलभ वाद विवादों में उलझता-सुलझता तरह-तरह के स्वांग रचता, सोने से दिन और चांदी-सी रातों वाले बचपन के मजे लूटने लगता है। कथाकार के बचपन के बेशुमार किस्सों को पढ़ते पढ़ते मेरा मन भी कुछ क्षणों के लिए अपने बचपन की ओर ताकता, आनंद लेता और फिर वापस पन्नों में आँखों के साथ साथ मन को भी लौटा लाने का प्रयास करता। बालमन की चंचलता, निश्छल हास्य विनोद के अनेक एवं विस्तृत रोचक वृतांतों से रेणु जी की आत्मकथा जीवंत हो उठी है। तीज त्योहार, रीति रिवाज, परम्पराएं और रिश्तों की मजबूत डोर से बंधी मजबूत यादें लेखिका के जीवन का अभिन्न अंग बनी हैं।            यह आत्मकथा एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो जीवन के गहरे उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए अपना जीवन जीती है। समाज में व्याप्त भ्रांतियाँ, रूढ़िवादिता, परंपरावादिता पर लगातार गहरी चोट करती हैं। कई स्थानों पर लेखिका की सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना मुखरित हुई है। कोई भी आत्मकथा सदा खुलेपन की मांग करती है। बड़ी बेबाकी से बिना लाग लपेट के रेणु जी ने अपने अंतर्मन में जमी तहों को खोल दिया है। किसी भी युग में स्त्री का बोलना सहज सह्य नहीं होता है लेकिन एक ईमानदार अभिव्यक्ति कोपाठकों का विश्वास और स्नेह सहज ही प्राप्त हो जाता है। अपनी तथाकथित इमेज के टूटने के डर से लेखक खुलेपन से बचते हैं। रेणुजी ने अपने इस डर को धता-बता दिया जो बड़े साहस की बात है।                                                                                                                    एक धनाड्य मारवाड़ी परिवार की नाजों से पली-बढ़ी बेटी पर ऐसा भीषण कुठाराघात हुआ कि उसे असमय वैधव्य मिला। नियति के कठोर दुख को सहन कर उसने दूसरे वैवाहिक जीवन की प्रतारणा झेली।  उनके भीतर धीरे-धीरे अंदर ही अंदर बहुत कुछ टूटा जा रहा था। अनेक बार आत्मविश्वास भी डगमगाया। एक सम्पन्न परिवार की बेटी ने आर्थिक कठिनाइयों को झेला। अपनी परिवार और मित्रों का संबल पाकर टूटी नहीं। परिस्थितियों से निरंतर लड़ती रहीं। उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किए लेकिन अपनी शर्तों पर जीने जीने वाली इस नाजुक-सी दिखने वाली मजबूत लड़की ने परिस्थितियों के कारण जीवन के संघर्ष में कभी हार नहीं मानी। सम्मुख आन खड़े लक्ष्य का हाथ थामने से इनकार भी नहीं किया। अपनी पीड़ाओं को पहले आँसुओं में और फिर पन्नों पर बहाया उसने। गहरे तनाव की अवस्था में अपने कष्टकर परिस्थितियों से छुटकारा पाने का एकमात्र समाधान उन्होंने मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में एक नहीं तीन तीन बार आत्मघात करने जैसा भयानक विचार तक सोचा और अमल भी किया किन्तु ईश्वर को कुछ और ही स्वीकार्य था। उन गलतियों और नादानियों के लिए भीषण मानसिक और शारीरिक प्रताड़नाएं झेली जो उन्होंने कभी की ही नहीं। इसी तरह कुछ मधु और कुछ कटु दिन व्यतीत करते हुए जीवन से विरक्त बस जिए जा रहीं थी। जीवन की भटकनों में दिशा दिखाने वाले अनेक व्यक्तियों ने गहरी संवेदना के साथ उनको अपनाया,जिनके प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए लेखिका जीवन में चलती ही रहीं। उन्होंने अपने जीवन के सबसे बड़े संबल माँ और भैया को यह आत्मकथा समर्पित की है जिनके अत्यधिक लाड़ प्यार ने बिगड़ा भी और जीने की ताकत भी दी। वे निरंतर अनुभवों से सीखती रहीं, आगे ही आगे बढ़ती रहीं और बस चलती रहीं क्योंकि जीवन रुकना नहीं जानता।                                                                                          10 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद दोबारा शिक्षा प्रारंभ करना कठिन होता है लेकिन यह कठिन कार्य भी आत्मकथाकार ने सहज भाव से करते हुए अपनी सांस्कृतिक अभिरुचि को भी तराशा। पुराने मित्रों का साथ आत्मीयजनों के स्नेह सूत्र को थामे-थामे अनेक नए मित्र बनाए और नए पुराने सभी के साथ अपने रिश्तों को सहज भाव से निभाती रहीं। पुराने परंपरावादी विचारों को छोड़ कर नए आसमान में अपनी राहों को तलाशना उन्होंने अपनी माँ से सीखा। बेटियों को सदा से ही पराया समझा गया। विवाह के बाद ही उसका वही घर मान्य होता है जो उसका पति की कमाई से खरीद गया हो। रेणु दी की अपनी बेटी के लिए विवाह पूर्व मुंबई में अलग फ्लैट खरीदने के विचार को प्रश्रय देने वाली आधुनिक प्रगतिवादी सोच ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। इससे प्रेरित होकर मैंने भी अपनी बेटी के लिए भी ऐसा ही निर्णय लिया यह सोच कर कि विवाह पूर्व यदि लड़का घर खरीद सकता है तो लड़की क्यों नहीं? कथाकार की प्रगतिवादी सोच की कुछ टूटी कुछ छूटी अनेक कड़ियाँ इस आत्मकथा में यत्र तत्र मिलती हैं। स्मृतियों के हाथों में कलम थमा कर कथाकार यंत्रवत मात्र दृष्टा बनकर अपने भोगे हुए सच का हिस्सा बनता जाता है।                                                                  इस आत्मकथा के माध्यम से पुराने जमाने के रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्पराएं और जीवन शैली की झलक मिलती है। पुस्तक प्रेमी,गीत संगीत और घूमने की शौकीन लेखिका पंडित जसराज जैसे नामी गिरानी व्यक्तियों से घनिष्ठता से जुड़ी थी यह जानना मेरे लिए यह अत्यंत रोमांचकारी रहा  इसलिए नहीं कि पंडित जसराज मेरे भी प्रिय हैं और उनके लिए मेरे मन में अगाध श्रद्धा भाव है बल्कि इसलिए भी कि जिन रेणु दी को मैं जानती हूँ व्यक्तिगत तौर पर,उनकी प्रशंसक हूँ और उनके शांत-सौम्य व्यवहार से बेहद प्रभावित भी हूँ, उनके साथ अपने पंडित जी की घनिष्ठता होने से रेणु दी मेरे लिए उतनी ही श्रद्धेय स्वरूप हैं ऐसा लगा मानों मैं स्वयं पंडित जी से जुड़ गई।                                                 लेखिका एक संवेदनशील स्त्री, पत्नी, माँ, बेटी, बहन, सखि, शिक्षिका आदि अनेक रूपों में तो सामने आती ही है, पर वह भावुक और दुर्बल बिल्कुल नहीं है। वह संवेदनशील नागरिक भी जो कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं पर चिंता व्यक्त करती है। देशवासियों में घृणा और नफरत फैलाने वाली राजनीतिपरक मानसिकता से उनका मन विचलित हो जाता है। अनेक सामाजिक बुराइयाँ जैसे विवाह के लिए लड़की को देखने आने की प्रथा, बेटी का उपहार आदि न देने की परंपरा का विरोध भी प्रबलता से दर्ज कराती हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों से यह आत्मकथा भरी पड़ी है और पठनीय बन पड़ी है।         यह आत्मकथा अनेक प्रश्नों के उत्तर अनायास ही सुझाती है। आज की भागदौड़ भरे जीवन और आपा-धापी के वातावरण, माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या और एकाकी परिवारों में पोषित अधिकांश बच्चे छोटी सी कठिनाई आते ही निराशा के गहन तल तक पहुँच जाते हैं, संघर्ष करने से घबराते हैं, मनचाही वस्तु आसानी से सुलभ न होने पर क्यों धैर्य छोड़ बैठते हैं, क्यों उनके व्यक्तित्व में अनेक गाँठे पड़ जाती  हैं जो प्रयास करने के बावजूद जीवनपर्यंत खुल नहीं पाती। शायद ऐसे बच्चों को बचपन की जीवंतता और बालसुलभ चंचल स्वतंत्रता सुलभ नहीं होती। एक साथ रहने वाली कई पीढ़ियों के परिवारों का आपस में प्रगाढ़ता से जुड़े रहना जीवन को अनोखा संबल प्रदान करता है जो उनके परवर्ती जीवन में ढाल बनकर सदा ही उनको आत्मविश्वास से लबरेज रखता है। जिसके तार बचपन के सूत्रों में गूँथे रहते हैं। यह आज के अभिभावकों को सीखने की आवश्यकता है। कथाकार के समृद्ध बचपन के अनेक भव्य चित्र, कई पुराने भारतीय परिवारों की याद दिलाते गएमुझे। छोटी उम्र में विवाह की मासूमियत के रंग कुछ अलग होते हैं । यह सच्चाई बहुत ही सहजता से अभिव्यक्त हुई है। पहले विवाह का लाड़ प्यार बहुत ही निर्मम तरीके से दूसरे विवाह के अपमान, तिरस्कार और उपेक्षा में कैसे बदल जाता है, शायद इसे ही नियति की कठोरता कहेंगे। नाजों से पली विवाहित बेटियों का दुख पिता को किस कदर तोड़ देता है, ससुराली अत्याचारों एवं पति की निर्ममता से मुक्ति दिलाने के लिए मायके वाले कितना तड़पते हैं। ऐसी कई परिस्थितियों में स्त्री कितनी लाचार और असहाय हो जाती है, उसकी ममता खून के आँसू रोती है। वर्णन-दर-वर्णन आत्मकथा पाठक की संवेदना को झिंझोड़ती है कि वह नियति की निष्ठुरता पर द्रवित हुए बिना नहीं रह पाता। कलाकारों, साहित्यकारों के संसर्ग में संस्कारवान होती हुई, आत्मोन्नति करती हुई कथानायिका मारवाड़ी समाज के जागरण और बदलाव को अपने चरित्र में रूपांतरित करती है। कई पड़ाव को पार करते, रुक-रुककर चलते-चलते आखिरकार शिक्षा के आलोक से जीवन को आलोकित करती हुई अपनी प्रगतिशील सोच का प्रमाण देती है यह शांत, सुशील किन्तु दृढ़ इरादों वाली कथानायिका। स्कूल में अध्यापन से जुड़कर आत्मनिर्भरता का बिगुल बजाती है। कई संस्थानों से जुड़कर अपनी बौद्धिक तृप्ति की राह स्वयं तलाशती है। अवसर मिलने पर अपनी यायावरी के शौक को पूरा करने का लोभ नहीं छोड़ पाती और सिलसिलेवार यात्रा की सुखद व दुखद स्मृतियों के लेखन से आत्मतृप्ति का अनुभव करती है। रेणु दी की लेखनी में वह क्षमता है कि उनके यात्रा संस्मरण भी यदि प्रकाशित हों तो पाठकों को साक्षात सैर का आनंद मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इस आत्मकथा मेंवे पग-पग मार्गदर्शन करने वाले, मुश्किल अवसरों में संबल बनने वाले समस्त जनों के प्रति आभार भी प्रकट करती गईं हैं जो उनकी विनयशीलता को प्रदर्शित करती है।                                                                 इस आत्मकथा की तटस्थता का उल्लेख किए बिना तो बात अधूरी रह जाएगी। संबंधों के विश्लेषण में कथाकार की तटस्थ दृष्टि हमेशा सक्रिय रही है। विशेषकर अपने बच्चों पम्मी और अर्जुन के नाम लिखे गए पत्रों में। दूरियों और नज़दीकियों के धागों में पिरोए उनको लिखे पत्र किसी मां की चिंताओं को बड़ी निस्संकता से अभिव्यक्त करते हैं। संबंधों की गर्मजोशी एवं कड़वाहट के रेखाचित्र आँकती यह आत्मकथा अपने आसपास की परिस्थितियों से रूबरू होकर समस्याओं के समाधान की प्रेरणा देती है। अनेक स्थलों पर कथाकार की सामाजिक और राजनैतिक चेतना तीव्रता से मुखरित हुई है।                    आत्मकथा साहित्य में स्वयं आत्मकथाकार ही पाठक के आकर्षण का केंद्रबिन्दु होता है, वही मुख्य नायक या नायिका होता है और अन्य पात्र उसके चरित्र के निमित्त मात्र ही होते हैं। अनेक बार आत्मकथा साहित्य में अन्य पात्रों की योजना कम या अधिक रहतीहै। इस आत्मकथा में रेणु जी ने अपने जीवन से सम्बद्ध हर उस व्यक्ति, हर उस घटना, हर उस स्थान का और उससे जुड़ी अनेक अनुभूतियों का गहराई से वर्णन किया है जिसने उनके जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। ऐसा करते हुए कुछ  स्थलों पर वर्णन आवश्यकता से कुछ अधिक विस्तृत हो गया है। इसे आत्मकथा लेखन की कोई त्रुटि नहीं वरन कथाकार की स्मृतियों और अनुभूतियों की सघनतापूर्ण और गहनतापूर्ण अभिव्यक्ति ही समझना चाहिए। प्रोफेसर शम्भुनाथ जी के शब्दों में यदि कहा जाए तो लेखन एक नरक से गुजरना है, अँधेरों तपिश और अनेकोनेक पीड़ाओं से गुजरना है, आत्मानवेक्षण से गुजरता है जहाँ कोई आश्वासन नहीं। लेखक इन यातनाओं से गुजरता हुआ भी इनसे अलिप्त रहता  है। इस दृष्टिकोण से इस आत्मकथा की गणना श्रेष्ठ आत्मकथाओं में होनी चाहिए क्योंकि श्रेष्ठ आत्मकथा वही है जिसमें लेखक यथार्थ और वास्तविक तथ्यों को बिनाकिसी कल्पना, लाग-लपेट अथवा विकृति के अपने संपूर्ण व्यक्तित्व के साथ नि:संकोच भाव, तटस्थता और ईमानदारी सेप्रस्तुत करे।                                        पुस्तक का कवर सुंदर बन पड़ा है जिसमें मुखपृष्ठ पर पुरुषों से भरा हुआ कोलकाता के एक व्यस्त इलाके ज़करिया स्ट्रीट का चित्र है और पिछले पृष्ठ पर मेफेयर रोड की छवि अंकित है। पर न जाने क्यों कवर पुस्तक के नाम के अनुरूप प्रतीत नहीं होता। यह मेरा अपना दृष्टिकोण भी हो सकता किन्तु मुझे यह प्रतीत हुआ कि जो लोग कोलकाता महानगर की भौगोलिक स्थिति से परिचित नहीं हैं उनके लिए संभवतः शीर्षक और कवर पृष्ठ को आपस में सम्बद्ध करना कठिन प्रतीत होगा।बंगाल जैसे कला-संस्कृति से समृद्ध व सम्पन्न नगर की और चित्रकार की कला की प्रशंसनीय है।                आत्मकथा साहित्य में शैली ही व्यक्ति है। ‘शैली’ ही (अभिव्यक्ति का तरीका) आत्मकथाकार के व्यक्तित्व को स्पष्ट रूप से उजागर करती है। प्रस्तुत आत्मकथाकार की शैली वर्णनात्मक, सहज, स्वाभाविक आम बातचीत की सुस्पष्ट, प्रभावशाली, प्रभावोत्पादक, रोचक एवं आकर्षित है। ऐसा लगता है जैसे लेखिका अपनी किसी अंतरंग सखि से अपनी नितांत निजी बातें साझा कर रही है। यह  इस आत्मकथा एक बड़ा गुण है। उनकी अनुभूतियाँ अनेक स्थल पर विशेष रूप से पुस्तक के अंत में कविता के रूप में भी प्रस्फुटित हुईं हैं जो उनके भीतर छिपे कवि हृदय होने का भी परिचायक है।                 प्रचार, प्रशंसा या आत्मसंतुष्टि या आत्माभिव्यक्ति ही किसी भी लेखन के उद्देश्य हो सकते हैं। प्रस्तुत आत्मकथा लेखन के उद्देश्य के विषय में यदि बात की जाए तो कहा जा सकता है कि लिखते समय लेखिका के मन में आत्माभिव्यक्ति की भावना की प्रबलता ही परिलक्षित होती है। जिसकी परिणति आत्मशांति में माना जा सकता है। बीमारी के समय गहन नैराश्य में डूबकर अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करने के मोह ने लेखिका को आत्मकथा लिखने पर विवश कर दिया। यही कारण है कि अभिव्यक्ति का विस्तार हो गया है किन्तु उसने  भावनाओं की मार्मिकता और रोचकता को प्रभावित नहीं होने दिया है।                                                                                                                   यह रेणु गौरीसरिया के लेखन का प्रथम प्रकाशन है। किसी भी उम्र का लेखन स्वागत योग्य होता है। आशा है कि इस प्रथम प्रकाशन की संतुष्टि उन्हें नई ऊर्जा और आत्मविश्वास से भर देगी और वे  इस क्षेत्र में निरंतर गतिमान रहेगी। अगले संस्करण में उनकी स्मृतियों की कुछ छवियाँ भी जुड़ सकें  तो आनंद की बात होगी। यह मेरा सुझाव है। नए युग के पाठकों और लेखकों के लिए यह आत्मकथा अनेक मायनों में ज्ञान के नए विस्तृत आयाम जोड़ती है जो उस जमाने के लोगों के माध्यम से ही प्राप्य हो सकता है।                                                                                        बढ़ती उम्र में लेखिका की स्मरण क्षमता के साथ लेखकीय क्षमता ने मुझे बहुत अचंभित किया। काश  कि मेरे कोलकाता प्रवास के दौरान ही मेरे हाथ में यह पुस्तक आती तो मैं भाग कर उनके घर और  उन सभी स्थानों पर जाती, देखती और अनुभूतियों को साक्षात महसूस करती जो कुछ भी पुस्तक को पढ़ते समय मैंने महसूस किया। मुझे समीक्षा लिखना नहीं आता और न ही कोई दावा करती हूँ। पर हाँ, इस आत्मकथा ने मुझे लिखने पर विवश किया। यही सच्चाई है। इस आत्मकथा को पढ़ते हुए  जो महसूस किया उसे ही शब्दों में उतारने की कोशिश भर की है। बहुत कुछ बता गई, जीने के गुर सिखा गई और रेणु दी का लिखा कुछ और पढ़ने की प्यास जगा गई यह आत्मकथा। ईश्वर उनकी लेखनी को और सशक्त करे, उन्हें स्वस्थ और आत्मविश्वास से भरपूर सुदृढ़ बनाए रखे। जल्दी ही उनके यात्रा संस्मरण और कोमल अनुभूतियाँ कविताओं के रूप में पढ़ने को मिले, इस कामना के साथ रेणु दी को बहुत सारा सादर प्यार!!

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कंकड़खेड़ा, मेरठ

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