साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. गीता दूबे अपनी कविताओं और आलोचना की तेजस्विता के लिए जानी जाती हैं। उनके साहित्य में स्त्री विमर्श और उससे जुड़े सवाल खुलकर सामने आते हैं। स्कॉटिश चर्च कॉलेज की एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ साहित्यिकी की सचिव और प्रलेस की सँयुक्त सचिव भी हैं। अपराजिता ने डॉ. गीता दूबे से खास मुलाकात की –
पढ़ना आन्तरिक व बाहरी संघर्षों से जूझने की ताकत देता था
मुझे प्रोत्साहन नहीं मिला। मेरे परिवार में लड़कियाँ पत्र लिख लें, इतनी शिक्षा पर्याप्त मान ली जाती थी। कहा जाता था – का करिहें पढ़लिख के, कलेक्टर बनिहें का। पढ़ना मेरे लिए आन्तरिक संघर्ष के साथ बाहरी संघर्षों से जूझने की ताकत देता था। नौवीं कक्षा पास की तो नानी के पास भेज दिया गया। तब लड़कियाँ प्राइवेट से परीक्षा देती थीं या यूँ कहें कि परीक्षा भर ही देती थीं। अँग्रेजी मजबूत नहीं थी और साइंस लेने का मन था मगर 12वीं के बाद पता चला कि लड़कियाँ साइंस नहीं ले सकती थीं। श्री शिक्षायतन कॉलेज से मैंने स्नातक किया। मैंने 11 -12वीं कक्षा में अँग्रेजी नहीं पढ़ी थी और कॉलेज में सारे विषय ही अँग्रेजी में पढ़ने थे। ऑनर्स में मैंने टॉप किया मगर को एड होने के कारण एम. ए. करने में कठिनाई हुई क्योंकि कहा गया कि प्राइवेट से कर लो। लड़की विश्वविद्यालय़ जाएगी। मैंने ट्यूशन पढ़ाया और पहली नौकरी बालीगंज शिक्षा सदन में की। बाद में मैंने अँग्रेजी की पढ़ाई की।
हिन्दीभाषी विद्यार्थियों के साथ भेदभाव होता है
हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भाषा बड़ी समस्या है। अँग्रेजी पर उनकी पकड़ कमजोर होती है। घर में अँग्रेजी नहीं बोली जाती। माध्यमिक शिक्षा परिषद में हिन्दी का एक भी विशेषज्ञ नहीं है। विद्यार्थी प्रश्न समझेंगे तो उत्तर कैसे देंगे? पीएससी की परीक्षा के लिए बांग्ला जानना जरूरी है। हिन्दीभाषी विद्यार्थियों के साथ भेदभाव होता है और उनको पिछड़ा हुआ मान लिया जाता है।
शिक्षक समुदाय में संघर्ष की आँच उतनी तेज नहीं है
हम शिक्षक कहीं न कहीं स्वकेन्द्रित हैं। कक्षाएं लेना भर ही अपना उत्तरदायित्व समझते हैं। हिन्दी और अपने विद्यार्थियों के लिए उनको खड़ा होना चाहिए। शिक्षक समुदाय में संघर्ष की आँच उतनी तेज नहीं है। सुविधाएं पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
माहौल बदला है, लोग सुनते हैं मगर स्वीकार नहीं कर पाते
आज की लेखिकाएं उर्वर हैं और चुनौतियाँ दे रही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्रियों को उपेक्षित किया जाता रहा है। वर्जनाएं टूट रही हैं मगर हमारी जड़ मानसिकता उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वे साहित्यकार के रूप में खुद को अच्छी तरह स्थापित कर रही हैं मगर उनके लिए राह अभी भी कठिन है। माहौल बदला है, लोग सुनते हैं मगर स्वीकार नहीं कर पाते।
समाज में स्वीकार करने की मानसिकता विकसित नहीं हो सकी है
स्त्री विमर्श की आवश्यकता है मगर कई बार वह खोखले नारों और कोरी बयानबाजी तक सीमित रहकर फैशनपरस्ती का शिकार हो जाता है। अभी भी स्त्रियों का बड़ा तबका अधिकारों से वंचित है। दबंग महिलाओं को लोग अभी भी पसन्द नहीं करते। समाज में स्वीकार करने की मानसिकता विकसित नहीं हो सकी है।
मुक्त होने का मतलब बिखराव नहीं है
आज पुरुष विमर्श की जरूरत है। पुरुषों में उन्नत तथा उदार मानसिकता की जरूरत है। उनको स्त्रियों की स्वतन्त्रता को सहजता से स्वीकार करना सीखना होगा। स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता के बीच महीन सीमारेखा है। मुक्त होने का मतलब बिखराव नहीं है।
संघर्ष की आँच कभी मन्द न पड़ने दें
मैं कहना चाहूँगी कि संघर्ष की आँच कभी मन्द न पड़ने दें। स्त्री विमर्श परिवार और समाज का विरोधी नहीं है बल्कि उसे साथ लेकर चलने का आँकाक्षी है।