पुरुषवादी सोच को चुनौती देकर चंद्रो दादी ने बनायी अपनी जगह

संध्या द्विवेदी
नयी दिल्ली : दादी तो सबकी होती हैं। मगर चंद्रो और प्रकाशी तोमर जैसी दादियां किस्मत से ही मिलती हैं। उनके निशानेबाजी के किस्से इतने मशहूर हुए कि उनका गांव ही ‘दादी का गांव’ कहलाने लगा। बागपत पहुंचकर अगर आप ‘जोहड़ी’ गांव का रास्ता किसी स्थानीय व्यक्ति से पूछेंगे तो वह एक बार जरूर कहेगा, अच्छा आपको दादी के गांव जाना है। फिर गांव ही नहीं बल्कि दादी के घर तक का रास्ता आपको वह फौरन बता देगा। 2017 में आखिरी बार चंद्रो तोमर से मुलाकात के वक्त उन्होंने कहा था, ‘यह बात सच है कि औरतों के वोट का फैसला मर्द ही करते हैं। यह तो मर्दों का अपना फैसला है न कि औरतों को वह आगे नहीं बढ़ने देंगे, पर औरतों का भी तो कोई फैसला होगा?’
82 साल की चंद्रो का यह सवाल मर्दों की सोच से ज्यादा उन औरतों पर निशाना साधता है जो बिना कुछ कहे मर्दों के फैसले के पीछे चल पड़ती हैं। इस सवाल के जवाब में कि हर औरत आपके जैसी ताकतवर तो नहीं हो सकती? उनका जवाब था, ‘ताकत लानी पड़ती है, उसकी भी कीमत है। जब हमने बंदूक हाथों में थामी थी, तो घर के मर्दों ने क्या कुछ नहीं किया, पर मैंने भी सोच लिया कि एक बार अगर आगे बढ़ गए तो बढ़ गए। चंद्रो ने हंसते हुए बताया था, ”म्हारे घर के मरद कहवें थे कि बुढापे में तम के कारगिल में जाओगी, वहां बंदूक चलावन जाओगी, हम भी हंसते हुए जवाब देते जांगे कारगिल में भी जांगे, मगर थोड़ा टरेनिंग तो कर लें, तब तो जांगे।”
चंद्रो ने अपने संघर्ष की कहानी कुछ यूं बताई थी, ‘हम यानी मैं और मेरी देवरानी प्रकाशी तोमर ट्रेनिंग में जा सकें इसके लिए पूरी रात घर का काम करते, 2-3 घंटे ही सोने को मिलते थे। ताने अलग से, शुरुआत में तो हम चोरी छिपे जाते लेकिन एक बार अखबार में किस्सा छप गया। हमारी पिटाई भी हुई। हमने भी घर के मर्दों से कह दिया, अब ये बंदूक तो हाथ से तभी छूटेगी जब हमारे प्राण छूटेंगे। अब हमारा निशाना मर्दों की सोच पर भी लगेगा। औरतों के खिलाफ भेदभाव भरी सोच पर भी लगेगा। और वो दिन की आज का दिन हम लगातार बोर्ड पर और मर्दों की सोच दोनों पर निशाना लगा रहे हैं।’
जोहड़ी गांव में जब लड़कियां होतीं तो दादी बधाई लेकर जातीं
चंद्रो और प्रकाशी तोमर ने अपने गांव में लड़कियों को पैदा होने पर बधाई देने की प्रथा शुरू की। यह प्रथा ऐसी स्थापित हुई कि इस गांव में जब भी कोई लड़की पैदा होती है तो मोहल्ले वाले नवजात बच्ची के लिए उपहार और तोहफे लेकर उसके घर पहुंचते हैं। खूब जमकर नाच गाना होता है। गांव वालों इस परंपरा के बारे में कुछ यूं बताया था, ‘पहले लड़कियों के होने पर यहां सबके चेहरे लटक जाते थे। लेकिन दादी ने जब से बधाई देने की परंपरा डाली तो अब लड़कियों के होने पर मुंह नहीं लटकते। लोग उन्हें निशानेबाज बनाने का सपना देखते हैं, दादी की तरह और राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ चुकी उनकी पोतियों सीमा और शेफाली की तरह।’
पुरुषवादी सोच पर करारा तमाचा
चंद्रो तोमर ने लड़के-लड़कियों के भेदभाव वाली बात पर अपना एक किस्सा बताया था। किस्सा कुछ यूं था, ‘बात 2004 की है। चंद्रो ने बताया कि मेरा मुकाबला एक DIG से हुआ। मैंने उनको हरा दिया। जब मीडिया वाले मेरी और उनकी फोटो ले रहे थे तो वह भड़क गए और कहने लगे कि एक औरत से हारने के बाद काहे की फोटो। उन्हें हारने से ज्यादा इस बात का दुख था कि वह एक औरत से हारे। उन्होंने न मेरी तरफ एक भी बार देखा न मीडिया को फोटो लेने दी। तो आप ही बताइये कि जब मैं DIG को हरा सकती हूं तो लड़कियां सब कुछ कर सकती हैं।’
नोट-2015 में निशानेबाज दादियों का किस्सा कवर करते वक्त और फिर 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान चंद्रो तोमर और उनकी देवरानी प्रकाशी तोमर से मुलाकात हुई थी।
(साभार – दैनिक भास्कर)

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