सभी सखियों को नमस्कार। सखियों स्त्री वह चाहे रानी हो या बांदी, उसकी सबसे बड़ी पहचान यही होती है कि वह स्त्री है। भले ही तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में मंथरा के मुख से कहलवाया हो-
“कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥”
लेकिन यह अंतर तो ऊपर का है। थोड़ा गहराई में उतर कर देखें तो हर स्त्री अपने हिस्से में दासत्व या सेवा के व्रत के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य के साथ जन्म लेती है। इस नियति को बदलना बहुत ही मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है। सखियों, आज मैं आपको एक रानी की कथा सुनाऊंगी और यह निर्णय आप पर ही छोड़ती हूं कि उस रानी की नियति साधारण स्त्री से अलग है या नहीं।
जोधपुर के महाराजा मानसिंह की दूसरी पत्नी थी, रानी चावड़ी जी। अब राजा तो राजा होता है। राज्य विस्तार के लिए या राजनीतिक अभिसंधियों के लिए एकाधिक विवाह कर सकता है। इतिहास के विशेष कालखंडों में बहुविवाह की प्रथा भी विद्यमान थी। साथ ही राजा या सामंत विवाह के अलावा भी एकाधिक संबंध रख सकता था। इसे मध्ययुग के प्रचलित सामाजिक नियमों के विरुद्ध भी नहीं माना जाता था बल्कि इससे उसकी शान में वृद्धि ही होती थी। लेकिन दूसरी, तीसरी या चौथी पत्नी होने का दर्द क्या होता है, यह तो स्त्री ही जानती है। जिस समाज में पति के बिना स्त्री की कोई अलग पहचान नहीं है वहाँ पति की नजर और ह्रदय में बने रहने के लिए कितने उपक्रम करने पड़ते होंगे, इसकी तफसील तो रानियों के ह्रदय में छिपी पड़ी है। कहीं- कहीं इस पीड़ा को शब्द भी मिले हैं। रानियों के भीतर अगर रचानात्मक क्षमता होती थी तो वह अपने सुख- दुख, विरह- व्यथा को शब्दों का जामा पहनाकर दुनिया के सामने साकार रूप दे देती थीं।
रानी चावड़ी जी भी पद्य और गीत रचती थी। इतिहासकारों के अनुसार राजा मानसिंह ने कुल तेरह विवाह किए थे। कवयित्री प्रताप कुंवरी बाई भी इनकी पत्नी थीं। इसके साथ ही उनकी कई रक्षिताएं भी थीं। ऐसे में पत्नियों की भीड़ में शामिल रानी के कवि ह्रदय ने वियोग के गीत रचकर अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी। हालांकि यह माना जाता है कि वे पति के ह्रदय के निकट और उन्हें प्रिय थीं लेकिन इसके बावजूद पति से दूरी का अनुभव उन्होंने अवश्य किया होगा। प्रिय की प्रतीक्षा में व्याकुल प्रिया की पीड़ा और मिलन की आकांक्षा इस पद में साकार हो उठीं है-
“बेगा नी पधारो म्हारा आलीजा जी हो।
छाती सी नाजक धन रा पीन।।
ओ सावणियो उमंग्यो छै।
हरिजी ने ओडण दिखणी चरि।।
इण औसर मिलणो कद होसी।
लाडी जी रो थांपर जीव।।
छोटी सी छण रा नाजक पीजी।”
रानी चावड़ी की रचनाओं का कोई संकलन नहीं मिलता, संभवतः उनका संकलन हुआ ही ना हो। हाँ, यत्र तत्र बिखरे उनके कुछ पद अवश्य मिलते हैं। राजस्थानी साहित्य पर शोध करने वाले लेखकों के आलेखों में भी उनके पदों और गीतों के उद्धरण मिल जाते हैं। रानी ने कुछ विवाह गीतों की रचना भी की थी। उनकी विडंबना तो देखिए कि बहुविवाह करने वाले पति के विवाह के अवसर के लिए भी उन्होंने गीतों की रचना की और स्वयं गाया भी। डॉ. सुमन राजे की पुस्तक “इतिहास में स्त्री” में उनका ऐसा ही एक गीत संकलित है। पत्नी की स्थिति देखिए, पति फिर से केसरिया पाग बाँध कर विवाह के फेरे लेने जा रहा है और पत्नी इस मंगल अवसर पर त्याग और समर्पण का मूर्तिमान स्वरूप बनी, ह्रदय में अश्रु और अधरों पर मुस्कान सजाए पूरे उछाह के साथ मंगल गीत गा रही है-
“चाली मृग नैणियाँ जी चम्पा ब्याहियाँ।
उठे लाल तम्बूड़ा तणियाँ
पनी सुमरे संगरा साथी
ज्यू माला रा मणियाँ
रसीलों राज नींद मदमाती।
सुख समाज रंग वणियाँ
फेर बँधावण चालो सखी
पिव केसरिया वणियाँ।
महाराज मानसिंह का शासन काल 1803 से 1843 तक माना जाता है। तकरीबन यही समय रानी चावड़ी जी की रचनात्मक सक्रियता का भी माना जा सकता है। दुख इस बात का है कि रानी के जीवन का अंत बेहद दुखद रहा। साहित्यप्रेमी, कवि और कलानुरागी एवं दानवीर के रूप में ख्यात महाराजा मानसिंह जिनका जीवन काफी विलासितापूर्ण था, के विरुद्ध उनके पुत्रों के मन में विरोध की अग्नि सुलगने लगी। फलस्वरूप उन्होंने विलासी पिता के प्रति विद्रोह का बिगुल बजाया। रानी ने भी संभवतः पुत्रों का ही साथ दिया जिसका दारुण परिणाम भी उन्हें झेलना पड़ा। डा. सावित्री सिन्हा ने अपनी पुस्तक “मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ” में लिखा है कि कवयित्री पत्नी को उनके राजा पति ने ही उनके ही शयनकक्ष में कैद कर दिया। शयन कक्ष काल कोठरी में बदल गया जहाँ भूख प्यास से तड़प- तड़प कर रानी ने प्राण त्याग दिये। इतिहास विरोध करनेवाली स्त्रियों को ऐसी ही सजा देता है ताकि पूरी स्त्री जाति को सबक मिल सके। सखियों, यह समय उन ऐतिहासिक सबकों से सीख लेकर डर- डर कर जीने का नहीं बल्कि नया इतिहास रचने का है। रानी चावड़ी जी जैसी कवयित्री को नमन करते हुए, उनके रचनात्मक अवदान के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए, उनके पदों को पढ़ते हुए हमें उनके प्रति समादर अवश्य प्रकट करना चाहिए लेकिन उनकी नियति के प्रति विद्रोह की आवश्यकता भी है। वह नियति आज की स्त्री की नियति नहीं होनी चाहिए। पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता के खिलाफ हमें एकजुटता के साथ डट कर खड़े होने की आवश्यकता है। तभी स्त्रियों की पारंपरिक दुखद नियति में परिवर्तन आएगा। समाज आखिर कब तक स्त्री की आवाज़ दबाता रहेगा। एक ना एक दिन उसे स्त्री की बात सुननी ही होगी और स्वीकारने के लिए भी प्रस्तुत होना होगा।